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Wednesday, November 11, 2009

श्यामा

अलीगढ़ जिले के खैर कस्बे के पास एक छोटा सा गाँव है भरतपुर । इसी गाँव में एक वृद्धा विधवा श्यामा रहती थी। उसके पास जमीन -जायदाद तो कुछ थी नहीं मेहनत मजदूरी करके अपना जीवन यापन कर रही थी । श्यामा की उम्र लगभग सत्तर वर्ष की होगी । श्यामा बड़ी ही मिलनसार स्वभाव की थी,इसी लिए गाँव के लोग प्राय उसके सुख- दुख में उसका ख्याल रखते थे । श्यामा भी गाँव के लोगों की सहायता करती रहती । उम्र अधिक होने के कारण अब उससे ज्यादा काम तो होता नहीं था किन्तु उससे जितना हो सकता था वह जरूर करती थी किसी को ना नहीं कहती थी । उसके पास रहने के लिए एक छोटा सा मकान था । आज-कल इस मकान में श्यामा अपने अतीत की स्मृतियों को याद करके रो लेती है। यह घर भी बच्चों की किलकारियों ,शोर गुल से गूँजा करता था किन्तु आज श्यामा बिलकुल अकेली है। श्यामा के दो बच्चे थे एक लड़की और एक लड़का । बच्चे बड़े हो गए दोनो का ब्याह गोना कर दिया । बच्चे अपने संसार में सुखी से जीवन जी रहे हैं। श्यामा ने बच्चों को ईश्वर से बार-बार मिन्नते करके न जाने कितने व्रत -उपवास रखकर पाया था । पहली संतान बेटी थी उसके बाद बेटे को पाया था । बेटा तो उसके दिल का टुकड़ा था ,आँखों का तारा था । माँ-बाप ने मेहनत मजदूरी करके बेटे को पढ़ाया लिखाया और इस काबिल बनाया कि समाज में इज्जत से सिर उठाकर जी रहा है। बेटी का विवाह अच्छे खाते -पीते घर में कर दिया । बेटे का भी विवाह हो गया बहु कुछ दिन तो गाँव में सास -ससुर के पास रही फिर वह भी अपने पति के साथ जा शहर में रहने लगी । एक बार जो वह शहर गई उसने फिर कभी भी गाँव आने का नाम नहीं लिया। वह अपनी शहरी दुनिया में खुश थी। श्यामा का बेटा हरीश दिल्ली में किसी सरकारी कम्पनी में काम करता है ।
श्यामा के पति का स्वर्गवास हुए दस -पंद्रह वर्ष गुजर चुके हैं । पति के गुजर जाने के पश्चात से ही वह संसार में बुल्कुल अकेली हो गई है । बेटा - बहु, नाती -पोते सब तो ईश्वर ने दिए, किन्तु आज उसके पास कोई भी नहीं कि कम से कम एक गिलास पानी तो उसे दे सके। पिता की मृत्यु के बाद कुछ सालों तक तो हरीश बराबर माँ की राजी -खुशी पूछता रहता था और कभी - कभी गाँव भी आ जाता था । लेकिन धीरे -धीरे उसका माँ के प्रति ध्यान कम होने लगा । उसे इतनी फुरसत नही कि अपनी बूढ़ी माँ का हाल मालुम कर सके , न ही उसके घर में इस बेचारी बुढ़िया के लिए कोई जगह है जहाँ वह रह सके । जिस बेटे के भविष्य को बनाने के लिए माँ-बाप ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था आज उसी बेटे के पास अपनी बूढ़ी माँ को रखने के लिए जगह तक नही । जब बच्चों को शहरी सभ्यता का स्वाद लग जाता है तो उन्हें गाँव की सभ्यता से घिन आने लगती है , गाँव की सभ्यता से ही नहीं बल्कि गाँव के लोगों से भी उन्हें घृणा होने लगती है । वे लोग यह भूल जाते हैं कि उसी गाँव की मिट्टी में उनका बचपन बीता, उसी गाँव की गलियों में खेल-कूदकर बड़े हुए थे , पर आज उन्हें गाँव अच्छे नहीं लगते । यहाँ तक कि उन्हें गाँव के लोग अछूत से प्रतीत होने लगते हैं। ऐसा ही कुछ श्यामा के साथ हुआ । श्यामा का बेटा दिल्ली में ऐशोआराम की ज़िन्दगी बिता रहा है। वह माँ को अपने साथ नहीं रखना चाहता क्योकि माँ को शहरी सभ्याता का ज्ञान नहीं है । उसके घर बड़े -बड़े लोगों का आना जाना लगा रहता है । वे लोग श्यामा को देखेंगे तो क्या कहेंगे यही सोचकर हरीश अपनी माँ को अपने साथ नहीं रखना चाहता । सरकारी नौकरी है कमाई भी अच्छी खासी है इसीलिए तो दिल्ली में दो-दो मकान बनाकर खड़े कर लिए हैं । मकान तो उसने दो बना लिए किन्तु उन मकानों में माँ के रहने के लिए एक भी कमरा नही है ।
पति के गुजर जाने के पश्चात श्यामा अपने बेटे के भरोसे बैठी थी कि पति तो छोड़ गया लेकिन बेटा , नाती -पोतों के साथ रहकर बाकी का जीवन काट लेगी। लेकिन बेचारी को क्या पता था कि वह जो सोच रही है वह केवल उसकी सोच ही बनकर रह जाएगी । श्यामा को पति के जीवन की कठिन डगर पर साथ छोड़ जाने का जितना दुख था उससे कहीं ज्यादा इस बात का दुख था कि जिस बेटे को श्यामा अपनी जान से भी ज्यादा चाहती थी जिसकी एक खुशी के लिए वह कुछ भी कर गुजर जाती थी । आज उसी बेटे के परिवार ने उसकी तरफ से मुँह फेर लिया । उसे अपने साथ नहीं रखना चाहता। सही तो है क्यों रखे वह उसे अपने पास? क्या है ऐसा उस बेचारी के पास ? यदि आज श्यामा के पास धन दौलत होती तो यही बेटा श्यामा के आगे पीछे घूमता फिरता । सारा परिवार धन पाने के लालच में कम से कम कुछ देखभाल तो करता। लेकिन बेचारी के पास जो कुछ था सब तो बच्चों के ब्याह गोने में ही खर्च कर दिए और बचा कुचा बेटे की पढ़ाई-लिखाई मे खर्च हो गया। थोड़ी बहुत जमा पूँजी थी वह भी बेटे -बेटियों पर ही खर्च कर दी । घर में जो कमाने वाला था वह भी चल बसा । उसके पास छोटे से मकान के अलावा कुछ नहीं है । ईश्वर की इतनी तो कृपा रही कि उसके पास सिर छिपाने के लिए अपनी छत्त तो है नही तो पता नहीं बेचारी कहाँ मारी-मारी फिरती । मेंहनत मजदूरी करके अपना पेट भर लेती है। इतना सब कुछ होने पर भी वह दिन -रात अपने लाल की सलामती की दुआएँ करती रहती है, और मन में आस लगाए बैठी है कि एक न एक दिन बेटा उसे लेने ज़रूर आएगा । कभी न कभी उसे अपनी इस बूढ़ी माँ की याद आएगी ।
एक दिन श्यामा और उसकी पड़ौसिन कमला घर पर बैठी बातें कर रहीं थीं। दोनों बूढ़ियाँ अपने दुख दर्द एक दूसरे से कह सुन रही थी । उसी चर्चा में श्यामा के बेटे की चर्चा होने लगी। कमला ने श्यामा से कहा - “चों री श्यामा तू दिन रात हरीश के लइयाँ भगमान ते प्रार्थना करती रेह , कहा जरुरत है तोए वाके लईयाँ गी सब करने की। जब वा बेसरमे ई थोड़ी बोहत सरम नाए ,तो तू चौं दिन -रात कुढ़ती रेह । वाय तो इतनी भी फुरसत नाए कि अपनी बुढ़िया माँ की राजी खुशी पूछ सके । माँ कैसी होगी का हाल में होगी , कम ते कम वाकी राजी खुशी तो पूछ लऊँ। और तू बावरी वई के लईयाँ दिन-रात मरती रेह ,अरी ! कोई बात ना ऊ ना देखभाल करेगो तो का तू जीवेगी ना । वईने तू इसनी बड़ी ना कर दी । ईश्वर तो है गु हमारी देखभाल करेगो। तू काए लइयाँ दिन रात धुजती रेह । खश रेह कर देखियो का हाल कर राखोए तेने । अरी गिई हाल रहयो तो तू जादा दिन ना जिएगी।”
पड़ौसिन कमला की बातें सुनकर श्यामा मुस्कराते हुए बोली –“ क्या करु जीजी माँ जो हूँ । तुम तो जानती ही हो कि कितनी मिन्नतों के बाद इसे पाया था , इससे पहले तीन छोरा हो-हो कर गुजर गए तब जाके गि पायोए। अब गि नालायक हो चाहे लायक आखिर है तो मेरो ही खून । चिंता चों ना करु ? आखिर माँ जो हूँ । काश रामजी माँओं को पत्थर का दिल देता तो इतनी पीड़ा न होती । जीजी किस्मत के लेखेए कोई ना टाल सके जब मेरी किस्मत में बहु -बेटे का सुख ही ना लिखो तो भला कोई कहा कर सके । सुख-दुख सब अपने-अपने भागन ते ही मिलै । जब राम जी मेरी किस्मत लिख रहै होगो ना तो वाने मेरी किस्मत में बहु बेटे का सुख ही ना लिखो होगो।”

श्यामा अपने दुख से इतनी दुखी नहीं थी जितना कि बेटे - बहु की उपेक्षा से । वह दिन रात अपने बेटे और बेटे के बच्चों के आने का इंतज़ार करती । दिन पर दिन बीतते जा रहे थे समय के साथ -साथ श्यामा भी कमजोर होती जा रही थी । अब तो उससे ठीक से चला भी नहीं जाता था लकड़ी का सहारा लेकर चलती थी । दिखाई भी बराबर नहीं देता था। यह गाँव भी ऐसा कि जिसमें पीने का पानी तक नहीं । गाँव के लोग पीने के लिए पानी गाँव के बाहर कोसो दूर के कुएँ से लाते थे , बेचारी औरते घड़े पर घड़े रखकर पानी भरकर लाती थी । श्यामा भी अपनी छोटी सी दो मटकियों को लेकर पानी भरने जाती थी । अब जीना है तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा । कभी -कभी किसी बहु बेटी को श्यामा पर तरस आ जाता तो वे ही श्यामा के लिए पानी भर लाती, नहीं तो उसे ही गिरते पड़ते पानी भरकर लाना पड़ता था। कभी -कभी श्यामा की बेटी उसकी देखभाल करने के लिए आ जाती । वह घर का काम कर देती थी । लेकिन बेटी भी कितने दिन अपना घर परिवार छोड़कर उसके पास रह सकती थी । जब बेटी और उसके बच्चे आ जाते तो श्यामा का दिल लग जाता था ।
श्यामा की बेटी ने कई बार उसे अपने साथ चलने का आग्रह किया किन्तु वह उसके साथ नहीं गई । उसका मानना है कि हम तो बेटियों के घर का पानी तक नहीं पीते फिर उसके साथ उसकी ससुराल में जाकर रहूँ । यह कैसे हो सकता है? एक दिन बेटी ने श्यामा से कहा कि “माँ अबकी बार तू मेरे संग चलिओ यहाँ तू अकेली पड़ी रहती है किसी दिन मर -मरा गई तो ….. ?” यह सुनकर सुनकर श्यामा कह देती कि “बेटी मैं इतनी जल्दी मरनेवाली नहीं हूँ । मैं तो अपने नाती -पोतों का ब्याह करके ही मरुँगी, नाए तो तू देख लियों।” यह कहकर श्यामा बात को टाल देती फिर बेटी भी उससे ज्यादा बहस नहीं करती कि जब माँ का ही मन नहीं है तो फिर वह क्या कर सकती है। जैसे-जैसे बेटी के वापस जाने का समय आता जाता श्यामा का दिल घबराने लगता किन्तु यह बात अपनी बेटी को नहीं बताती यदि बेटी को बताएगी तो बेटी उसे अपने साथ चलने के लिए कहेगी जो वह कर नहीं सकती । इस तरह देखते-देखते बेटी के जाने का दिन भी आ जाता जिस दिन बेटी को अपने घर (अपनी ससुराल ) जाना होता । श्यामा अपनी बेटी और बच्चों को विदा करके घर में बैठकर खूब फफक-फफककर रोती । उस दिन उसके घर में चूल्हा नहीं जलता सुबह बेटी जो बनाकर रख गई थी उसी में से एक -दो रोटी खा लेती , रोटी खाती जाती और बच्चों को याद कर रोती जाती।
एक दिन की बात जब श्यामा पीने के लिए पानी भरने गाँव के बाहर बने कुएँ पर गई थी । कूएँ से पानी निकालकर उसने अपनी दोनो मटकियाँ भर ली थी , कुएँ से पानी खींचने के कारण उसकी साँसे फूल रही थी । पानी भरने के पश्चात वह कुएँ के मंडल पर विश्राम करने के लिए बैठ गई । उसने देखा कि एक लड़का भागता हुआ उस कुएँ की तरफ ही आ रहा है । जब लड़का उसके पास आ गया तो उसने उसके भागकर आने का कारण पूछा । लड़के ने बताया कि उसका ( श्यामा का ) बेटा आया है । वह घर पर बैठा उसका इंतजार कर रहा है । यह सुनकर पहले तो श्यामा को अपने कानो पर विश्वास ही नहीं हुआ कि लड़का जो कह रहा है क्या वह सही है ? उसने लड़के से कहा कि कही वह उसके साथ हँसी -मजाक तो नहीं कर रहा । किन्तु लड़के ने बताया कि वह मजाक नहीं कर रहा उसने जो कुछ कहा है वह सब सच है। यह सुनकर श्यामा तेज गति से घर की ओर लपकी , आज उसे चलने में कोई कठिनाई नहीं हो रही । कहाँ तो लकड़ी का सहारा लेकर धीरे-धीरे चलती है किन्तु बेटे के आने की खबर ने जैसे उसे नयी ताकत प्रदान कर दी हो । वह घर पहुँची तो बेटे को घर पर बैठे देखकर अपने आँसुओं को न रोक सकी और बेटे से लिपटकर फफक -फफककर रोने लगी। रोती जाती और कहती जाती –“चों रे भइया तू तो मोई कतई भूल गयो ।” श्यामा के घर पर और भी लोग इकट्ठे हो चुके थे । यह नजारा देखकर वहाँ पर खड़ी औरतों की आँखों में भी आँसू भर आए। कई औरतों ने हरीश को खूब खरी-खोटी सुनाई – “चो रे भईया तू तो बड़ो निरमोही हैगो - लुगाई के आगे अपनी माँ ए ही भूल गयो । देखियो बिचारी कैसी सूखके कांटो है गई है।” हरीश चुपचाप बैठा सारी बातें सुनता रहा । उसे पता है कि सारी औरतें जो कह रही है वह सब सही है किन्तु उसके पास उन सब की बातों का जवाब देने के लिए शब्द ही नहीं थे ।
माँ ने हरीश की राजी -खुशी पूछकर बच्चों का हाल -चाल पूछा सब की कुशलता की खबर पाकर वह बहुत प्रशन्न हुई। राजी-खुशी के बाद वह हरीश के लिए खाना बनाने लग गई , हरीश ने खाना खाया और आराम करने लगा । आराम करने के पश्चात उसने माँ से कहा कि - “माँ अब तू मेरे संग दिल्ली चल वहीं बच्चों के संग रहियो ।” यह सुनकर श्यामा को एक बार तो लगा कि जैसे आज ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली हो । किन्तु उसने हरीश का मन टटोलने के लिए कह दिया कि – “अरे भईया मैं तो यही पे ठीक हूँ ।” वह देखना चाहती थी कि हरीश सचमुच उसे अपने साथ ले जाना भी चाहता है या नहीं? किन्तु हरीश ने साफ कह दिया कि “माँ अब तू यहाँ नहीं रहेगी मेरे साथ चलेगी ।”
अगले ही दिन श्यामा हीरीश के साथ दिल्ली आ गई । वहाँ आकर वह बहुत खुश थी। वर्षों बाद उसने अपने पोते -पोतियों को देखा था । यहाँ आकर कुछ समय तो उसका ठीक ठाक कट गया किन्तु उसकी खुशी ज्यादा समय तक न टिक सकी । कुछ समय बाद हरीश ने श्यामा को छत पर बने एक कमरे मे रहने के लिए कह दिया । वह बेचारी उस कमरे में जा रहने लगी ,दिन -रात अकेली उस कमरे में पड़ी रहती न कोई बोलनेवाल, न कोई उसका हालचाल जाननेवाला । उसे वह कमरा जेल जैसा प्रतीत होने लगा । सुबह शाम नौकर आकर खाना दे जाता जो कुछ रुखा सूखा दे जाता वह खा लेती । खाना खा लेती और छत पर ही इधर -उधर टहल लेती । एक दिन श्यामा के मन में हरीश से मिलने की इच्छा हुई तो वह छत से नीचे जाने के लिए जैसे ही सीढ़ियो से उतरने लगी कि उसका पैर फिसल गया और वह बेचारी सीढ़ियों से नीचे जा गिरी । सीढ़ियों से गिरने के कारण उसके पैरों और कमर में गहरी चोट आई थी । कमर में चोट लगने के कारण वह सीधे बैठ भी नहीं सकती थी । हरीश ने माँ का थोड़ा बहुत इलाज करवाया और फिर उसे उसके हाल पर छोड़ दिया । बहु को सास से कोई लेना देना नहीं था । सास जिए या मरे उसकी बला से । वह तो श्यामा का हाल-चाल पूछने के लिए छत तक भी नही जाती थी । यहाँ तक कि बच्चों को भी फुरसत नहीं थी कि वे तो अपनी दादी का हाल चाल पूछ सकें । अब श्यामा की दुनिया सिर्फ और सिर्फ उस कमरे तक ही सिमट कर रह गई थी । बहु ने तो उससे मिलने पर ही पाबंदी लगा दी थी । कोई भी उसके पास आता -जाता नहीं ।
बेचारी श्यामा उस कमरे में अकेली पड़ी -पड़ी घुट-घुट कर दम तोड़ रही थी , अपने दर्द से कराह रही थी किन्तु उसके दर्द को सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था । दिन-प्रतिदिन वह मौत की प्रतीक्षा कर रही थी कि कब उसे मौत आए और वह इस पीड़ा भरी ज़िन्दगी से मुक्ति पाए । उसके दुख दर्द को देखकर शायद मौत ने भी उसकी तरफ से मुँह फेर लिया था । इधर हरीश से जो कोई भी उसकी माँ के स्वास्थ्य के बारे में पूछता वह सब से कह देता कि माँ का स्वास्थ्य अब काफी ठीक है और वह ऊपरवाले कमरे में आराम कर रही है। वाह रे! माँ के लाल खूब कर्ज चुकाया माँ के दूध का । दिन -प्रतिदिन मौत की प्रतीक्षा करती हुई श्यामा के लिए आखिर वह दिन आ ही गया जिस दिन उसे इस मतलबी संसार से छुटकारा और अपने दुखी जीवन से मुक्ति मिल ही गयी । बेचारी मरते समय भी शायद अपने बेटे के आने ,उसे अंतिम बार देखने की चाह में उसकी फोटों को देखते -देखते इस लोक को छोड़ गई लेकिन बेटे को………? यह सब क्या पता । भरे पूरे परिवार के होते हुए भी बेचारी के अंतिम समय में कोई मुँह में गंगाजल की एक बूँद तक डालने वाला नही था । हाय रे! ज़िदगी । घरवालों को तो पता ही नहीं कि माँ कब चल बसी वह तो घर का नौकर रोजाना की तरह खाना खिलाने के लिए आया तो पता चला कि माता जी नही रहीं ।
आज जब श्यामा जीवित नहीं है तब दुनिया को दिखाने के लिए हरीश माँ की बड़ी सी तस्वीर पर फूलों की माला चढ़ा कर उसकी पूजा करता है। जब वह जीवित थी तब तो उसके पास समय नहीं था कि अपनी माँ का हाल चाल पूछ सके , आज जब वह जीवित नहीं है तब उसकी तस्वीर के आगे फूलमाला, धूप, अगरबत्ती जलाई जाती है । वाह रे ! माँ के लाल धन्य है तुम्हारी मात्र भक्ति...............।

Friday, November 6, 2009

जब भी मैंने जीना चाहा

जब भी मैंने जीना चाहा ,मौत का गम डरा गया
जब भी पाना चाहा साथ तेरा ,जुदाई का गम डरा गया
अब तो ऊब गया हूँ यूँ डर-डर कर जीने से
जी में आया तोड़कर सारे बंधन उड़ जाऊँ नील गगन में।

जागी हैं मन में एक नई आशा
जागा है जीने का नया भरोसा
बनकर पंछी जा बैठूँ उस शान्ति वन में
जहाँ मन में रहे न कोई आशा और अभिलाषा
जब भी कुछ पाना चाहा ,गम का दर्द डराकर चला गया
जब भी मैंने जीना चाहा ,मौत का गम डरा गया।

लगाकर दिल किसी से मन में जागी एक नई उमंग
न जाने क्यों दिल धड़कता है लेकर उनका नाम
अब पाना उनको जीवन का है लक्ष्य मेरा
जब पहुँचे मंज़िल पर तो उनके धोखे ने हिला दिया।
जीवन की राह पर वो छोड़ गए साथ पुराना
जब भी मैंने जीना चाहा ,मौत का गम डरा गया।


लाख भुलाना चाहा उनको लेकिन भुला न पाए
देकर अपनी यादों की आहुती भी उनको भुला न पाए
जब उनको चाहा था अपनाना वो मझधार में छोड़ गए साथ पुराना
जब भी मैंने हँसना चाहा उनका चेहरा रुला गया
जब भी मैंने जीना चाहा मौत का गम डरा गया।

Wednesday, November 4, 2009

बुराई पर भलाई की जीत

एक गाँव में भोला सिंह नाम का किसान रहता था । वह बड़ा ही घमंड़ी और झगड़ालू था । उसके इसी स्वभान के कारण गाँव के सभी लोग उससे दूर ही रहते थे । भोला सिंह अपने आप को गाँव का सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति मानता था । वह अपनी झूठी अकड़ के किसी की एक न सुनता , इसी कारण गाँव के लोग उससे कन्नी काटते रहते थे , झगड़ालु स्वभाव के कारण ही वह पुरे गाँव में बदनाम था । गाँव का कोई भी व्यक्ति न तो उसकी सहायता करना चाहता था और ना ही उससे किसी भी प्रकार की सहयता की आस करता था । गाँव के सभी लोग एक दूसरे के सुख -दुख के शामिल होते , एक दूसरे के कामों में मदद करते किन्तु भोला सिंह इन सब से बिल्कुल अलग वह अपनी मस्ती में ही रहता । कुछ समय बाद उस गाँव में मोहन सिंह नाम का एक किसान आकर बस गया । मोहन सिंह स्वभाव से हँसमुख, दरियादिल और मिलनसार इन्सान था । वह सभी से हँस प्रेम से बाते करता और वक्त आने पर सब की सहायता के लिए हमेशा तैयार रहता था । कुछ ही दिनों में वह गाँव का चहेता बन गया , अपने सद्व्यवहार से उसने गाँववालों के दिलों में अपने लिए खास जगह बना ली थी । गाँववाले भी मोहन सिंह की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते थे । एक दिन गाँव वालों ने मोहन सिंह को भोला सिंह के स्वभाव के बारे में बताया और उसे भोला सिंह से बचकर रहने की सलाह देते हुए कहा –“ कि मोहन तुम भोला सिंह से हो सके तो दूर ही रहना । वह अच्छा इन्सान नहीं है, बड़ा ही घमंडी और झगड़ालू किस्म का इन्सान है।”

गाँववालों की बातें सुनकर मोहन सिंह मुस्कराते हुए बोला – “भोला सिंह मुझसे भला क्यों झगड़ा करेगा मैने उसका क्या बिगाड़ा है, जो वह आकर मुझसे लड़ेगा। अगर वह मुझसे झगड़ता भी है तो मैं उसे सही पाठ पढ़ा दुँगा फिर वह कभी भी किसी से झगड़ा नहीं करेगा।” गाँववालों को मोहन की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था कहा एक सीधा साधा इन्सान और कहाँ वह सर फिरा इन्सान पता नहीं मोहन किस प्रकार भोला सिंह का मुकाबला कर सकेगा। जब भोला सिंह को इस बात की जानकारी मिली कि मोहन सिंह मुझसे मुकाबला करके मुझे पाठ पढ़ाएगा तो वह क्रोध से लाल-पीला हो गया । अब तो भोला सिंह मोहन सिंह से मुकाबला करने के लिए आतुर हो उठा । एक दिन उसने मोहन के खेतों में अपने बैल छोड़ दिए । बैलों ने मोहन के खेतों की फसल को काफी नुकसान पहुँचाया किन्तु मोहन ने भोला सिंह से कुछ न कहते हुए दोनों बैलों को खेत से बाहर निकाल दिया । अपना वार खाली जाते हुए देखकर भोला सिंह और क्रोधित हो उठा । वह बार -बार मोहन सिंह से झगड़ने के उपाय करता किन्तु मोहन सिंह उसके वारों का हँसकर मुकाबला करके उसके वार को नाकाम कर देता । मोहन हमेशा अपना समय दूसरो का सम्मान करने और दूसरों की मदद करने में व्यतीत करता किन्तु भोला सिंह हमेशा अपना संमय दूसरों को अपमानित करने लड़ने झगड़ने में ही बिताता था ।

एक दिन मोहन के एक मित्र ने उसके परिवार के लिए ढेर सारे मीठे रसीले आम भेजे थे। मोहन सिंह ने सभी गाँववालों के घर थोड़े -थोड़े आम भेजे । उसने कुछ आम भोला सिंह के घर भी भिजवाए थे किन्तु भोला सिंह ने आमों को यह कहकर वापस लौटा दिया कि वह कोई भिखमंगा नहीं है जो ऐरे गैरे के घर से आए हुए सामान को स्वीकार कर ले । इस पर मोहन सिंह ने भोला सिंह को कुछ नही कहा और बात आई और गई हो गई । धीरे -धीरे मौसम में बदलाव होने लगा गरमी का मौसम समाप्त हो चुका था बरसात का मौसम शुरु हो चुका था । बरसात के मौसम में एक दिन भोला सिंह अपनी बैलगाड़ी में अनाज भरकर पास ही शहर की मंडी में बेचने जा रहा था । गाँव के कुछ ही दूरी पर एक नाला बहता था। जब भोला सिंह गाँव के उस नाले को अनाज से भरी गाड़ी से पार कर रहा था , उसकी बैलगाड़ी नाले में फँस गयी । भोला ने बैलगाड़ी को बाहर निकालने की जी तोड़ मेहनत की लेकिन वह गाड़ी निकालने में नाकाम रहा । थक हार कर वह नाले के एक किनारे पर जाकर बैठ गया । गाँववालों को इस बात का पता चल चुका था कि भोला सिंकी की अनाज के भरी बैलगाड़ी नाले में फँसी हुई है किन्तु किसी ने भी भोला की मदद के लिए जाना जरूरी नहीं समझा । जब मोहन को इस बात का पता चला तो वह तुरंत अपने दोनों बैलों को लेकर नाले पर भोला की मदद करने चला गया । मोहन सिंह को देखकर पहले तो भोला सिंह सकपका गया और फिर उसने मोहन से कहा – "मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता नहीं है । तुम जैसे आए हो वैसे ही वापस गाँव लौट जाओ ।" भोला सिंह की कटु बातें सुनकर मोहन सिंह पहले तो मुस्कुरा दिया और मुस्काते हुए बोला – “तुम्हें जितना क्रोध करना है करों ,पर मैं तुम्हें रात में यहाँ अकेला नहीं छोड़ सकता । गुस्सा करना तुम्हारा काम दूसरो की मदद करना मेरा काम” कहते हुए मोहन ने अपने दोनो बैल गाड़ी में जोत दिये। उसके ताकतवर बैलों ने थोड़ी ही देर में अनाज से भरी गाड़ी को बाहर निकाल कर खड़ा कर दिया । मोहन सिंह के सद्व्यवहार को देखकर भोला सिंह को अपने आप पर लज्जा आने लगी । उसका झूठा घमंड चूर -चूर हो चुका था । भोला ने मोहन से अपने दुर्व्यवहार के लिए क्षमा माँगी और वादा किया कि अब वह कभी भी किसी से न तो लड़ेगा और न ही किसी को सताएगा। किसी ने सच ही कहा है जो लोग झूठा घमंड करते है उन्हें सदैव नीचा देखना पड़ता है । घमंड़ी व्यक्ति कभी भी किसी का प्रिय नहीं हो सकता । घमंड ( अहंकार ) व्यक्ति के सोचने समझने की शक्ति को नष्ट कर देता है । अब भोला सिंह पूरी तरह बदल चुका है । वह गाँववालों के साथ मिलजुलकर रहने लगा है । एक इन्सान ने उसके जीवन को पूरी तरह बदल दिया । उसकी भलाई ने भोला की बुराई को जला दिया और उसे एक अच्छा इन्सान बना दिया । इस लिए हमें कभी भी घमंड़ नहीं करना चाहिए हमें दूसरों का सम्मान करना चाहिए और उनकी सहायता करनी चाहिए।

Tuesday, November 3, 2009

हास्य-व्यंग्य : सैद्धांतिक पीठिका

अध्याय - 1
हास्य-व्यंग्य : सैद्धांतिक पीठिका
1. भूमिका
2. हास्य-रस का स्वरूप
3. व्यंग्य : व्युत्पत्ति और अर्थ
4. व्यंग्य का स्वरूप
अ) भारतीय दृष्टिकोण
आ) पाश्चात्य दृष्टिकोण
5. व्यंग्य का प्रयोजन
6. व्यंग्य के प्रकार
7. हास्य, उपहास, परिहास और व्यंग्य (समानता और असमानता)
8. हास्य व्यंग्य के उपकरण
9. व्यंग्य : विधा या शैली
10. निष्कर्ष


हास्य-व्यंग्य : सैद्धांतिक पीठिका
1. भूमिका
आधुनिक साहित्य में व्यंग्य की प्रधानता के कारण इसका स्वतंत्र साहित्यिक विधा के रूप में अध्ययन किया जाने लगा है। इसे एक शैली या आध्यात्मिक प्रणाली के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। व्यंग्य को हिंदी में आधुनिक विधा माना जाता है।

व्यंग्य के संदर्भ में उसके वैशिष्ट्य, तत्व, लक्ष्य, प्रकार और महत्व पर पूर्णतया विधा के रूप में चर्चा या आलोचनात्मक लेखन के अभाव की प्रायः चर्चा की जाती है। कुछ विद्वानों ने व्यंग्य को हास्य के अंतर्गत माना है। जबकि अन्य कुछ ने स्वतंत्र विधा के रूप में व्यंग्य का प्रतिपादन किया है। व्यंग्य को गाली-गलोज से अलग एक सोद्देश्य अभिव्यक्ति माध्यम के रूप में देखा जाना आवश्यक है। कोई रचनाकार किसी शब्द, घटना से, वर्णन या किसी सुभाषित को अनुचित प्रसंग में उद्धृत कर भी व्यंग्य उत्पन्न किया जा सकता है। अतः यहाँ व्यंग्य के अर्थ, स्वरूप और उपकरणों पर विचार अपेक्षित है। ‘‘हास्य, व्यंग्य का अभिन्न अंग है, किंतु हास्य, व्यंग्य तभी बनता है जब उसमें आलोचना जोड़ी जाती है।‘‘( उषा शर्मा, स्वातंत्र्योत्तर हिंदी निबंध साहित्य में व्यंग्य, पृ. 69)

1.2. हास्य-रस का स्वरूप
हास्य अर्थात हँसना। हँसी उत्पन्न करने वाले रस को हास्य-रस कहा जाता है। हास्य को और कई नामों से जाना जाता है। जैसे - मज़ाक, दिल्लगी, हास-परिहास, हँसी-हँसी-ठट्ठा, हँसी-मज़ाक आदि। रस नौ हैं, उन्हीं नौ रसों में से एक हास्य-रस है। हास्य-रस के संदर्भ में भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र‘ में लिखा है -
‘‘विपरीत लङ्कारै विकृता चाराभिधान वेसैश्च
विक्ततैरर्थ विशेषैर्हसतीति रसः स्मृतो हास्य।‘‘
( पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ. सं. 2)
‘‘हास्य-रस मनुष्य तक परिमित है, इसलिए न तो वह श्रंगार के समान व्यापक है और न ही उसमें इतना आस्वादित होता है। इसमें सृजन शक्ति भी होती है। अतएव वह अपूर्ण और गौणभूत है। यदि श्रंगार -रस जीवन है तो यह आनंद, यदि वह प्रसून है तो यह विकास है, जिससे दोनों में आधार-आधेय का संबंध पाया जाता हैं।‘‘ - रस कलश, पृ. 103 से डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ. सं. 5 पर उद्धृत)


अर्थात् हास्य एक प्रीतिपरक भाव है। हास्य मनुष्य के मन के भावों का विकास है। हास्य की उत्पत्ति श्रंगार -रस से मानी गई है। ‘‘हास्य जीवन की वह शैली है, जिससे मनुष्य के मन भावों की सुन्दरता झलक उठती है।‘‘( डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ. सं. 1) हास्य मनुष्य के स्वास्थ्य एवं सौंदर्य को प्रकाश प्रदान करता है। वह व्यक्ति को तनाव से निकलने का सही रास्ता दिखाता है। हास्य से ही मनुष्य के मुख पर मधुरता छा जाती है, कुछ क्षणों के लिए वह अपना दुःख भूल जाता है। हास्य ही पृथ्वी को रहने योग्य बनाता है। हास्य मनुष्य का कवच है, जो उसे दुःख के आघात के वेग को कम कर देता है, एच.एच. ब्राउन के आधार पर - ‘‘हास्य-रस हृदय में आनंद की धारा ही प्रवाहित नहीं करता, दिल की गाँठों को भी खोलता है।‘‘ ( एच.एच. ब्राउन - डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य-विनोद, पृ. सं. 2 )‘हास्य‘ मे उन सभी उदात्त गुणों का समावेश है, जिनके द्वारा मनुष्य सत्य-असत्य का विवेक जागृत कर क्षमाशील तथा उदारचेता बन सकता है।

हास्य वस्तुतः निश्चल मन का संस्कार है। हास्य की पे्ररणाओं में भिन्नता और व्यापकता पाई जाती है। भिन्न-भिन्न पे्ररणाओं के समान ही हास्य वस्तुतः निश्चल मन का संस्कार है। हास्य की पे्ररणाओं में भिन्नता और व्यापकता पाई जाती है। भिन्न-भिन्न पे्ररणाओं के समान ही मनुष्य समान रूप से नहीं हँसता। हास्य देश, काल, परिस्थिति से प्रभावित होता है। प्रत्येक देश का हास्य भी अलग होता है। किसी वस्तु की परिस्थिति को देखकर हम भारतीय हँसेंगे, यह आवश्यक नहीं कि उसी परिस्थिति को देखकर पाश्चात्य या किसी अन्य देश के नागरिक भी हँसे। संभव है कि वे उस परिस्थिति से दुःख का अनुभव करें, जिससे भारतीय हर्ष का अनुभव करते हैं। यही कारण है कि हास्य हमारी जातीय विशेषता का द्योतक भी माना जाता है। हास्य अपनी मूल परिस्थिति और मूल प्रवृत्ति में बहुत ही निश्चय प्रतीत होता है। हास्य कभी किसी का दिल दुःखाए बिना, आलंबन की विचित्रता का चित्रण कर एक प्रकार की खुशी या सुख का अनुभव प्रदान करता है। हास्य कभी भी किसी भी प्राणी को कचोटता नहीं, उसका दिल नहीं दुःखाता। वह सबको बिना किसी भेद-भाव के समान रूप से सुख की अनुभूति कराता है। हास्य के सामने सभी समान है।

‘‘हास्य-रस का स्थाईभाव ‘हास‘ है।‘‘ (नाट्यशास्त्र, अध्याय-5, श्लोक-44 से डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 3 पर उद्धृत ) साहित्य-दर्पण के अनुसार ‘‘वागादिवैकृतैश्चेतोविकासो हास इष्यते‘‘ (डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 3) अर्थात वाणी, वेश-भूषादि की विपरीतता से जो चित्त का विकास होता है, वह हास कहलाता है।

हास्य मनुष्य को आंतरिक सुख की अनुभूति कराता है। हास्य में अनुभूति मानसिक आनंद से उत्पन्न चंचलता के स्पष्ट भाव जब स्थूल रूप में दिखाई देने लगते हैं, तो उसे हास कहते हैं। हास्य भले ही कुछ क्षणों के लिए ही हो मनुष्य के चित्त में सात्विक प्रसन्नता भर देता है।

स्थाई भाव के अनंतर विभाव की पहचान आवश्यक है। वस्तुमात्र में देखी गई किसी भी विकृति अथवा विपरीतता, व्यंग्यदर्शन, परचेष्टानुकरण, असंबद्ध प्रलाप आदि हास्य रस के विभाव (कारण, निमित्त अथवा हेतु) हैं।आकृति, वाणी, वेश तथा चेष्टा आदि की विकृति का इसका उद्दीपन विभाव माना जाता है।

हास्य-रस के अनुभवों के संबंध में आचार्य भरत ने लिखा है ‘‘होठ काटना, नाक और गालों में कंपन्न, आँखों का सिकुडना, पसीना आना, मुख पर लाली का फैलना और बगलों में हाथ डालना आदि हास्य के अनुभव है।‘‘ (डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 3)
(तस्यौष्ठ दंशन नासा कपोल स्पन्दन दृष्टि व्योकोशाकंुचन
स्वेदास्य राग पाश्र्व ग्रहणादि भिरनुभावैरभिनयः प्रयोक्तव्यः
नाट्यशास्त्र, अध्याय - 6, वार्तिक अंश।)

आचार्य विश्वनाथ ने हास्य-रस के अनुभाव को इस प्रकार स्पष्ट किया है - ‘‘अनुभावोऽक्षिसंकोच वदन स्मरे ताद्यः‘‘ (साहित्य दर्पण, श्लोक सं. 216, पृ.सं. 175 से डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में
हास्य-व्यंग्य, पृ.सं. 3 पर उद्धृत) अर्थात नेत्रों का संकुचित होना वदन का विकसित होना इसके अनुभाव हैं।

आचार्य भरत ने हास्य-रस के संचारी भाव - ‘‘निद्रा, आलस्य तथा अवहित्था (भाव गोपन का प्रच्छन्न संकेत) आदि‘‘ (डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में हाव्य-व्यंग्य, पृ.सं. 3) (‘‘व्यभिचारणिश्चास्य आलस्यावहित्थानन्द्रानिद स्वप्न प्रबोधासूर्यादयः
सुप्तनिद्रा वहत्थिंच, हास्ये भावाः प्रकीर्तिताः।।
अर्थात् आलस्य, अवहित्था, औंधाई, नींद, स्वप्न, प्रबोध, असूया (ईष्र्या) आदि को हास्य-रस का संचारी भाव माना जाता है। हास्य-रस में केवल यही एक भाव नहीं बल्कि अन्य भाव भी इसके अंतर्गत आते हैं जो इसी महत्ता को व्यक्त करते हैं। वे हैं - ग्लानि, शंका, श्रम तथा चपलता आदि हास्य-रस के उल्लेखनीय भाव माने जाते हैं, जो हास्य को अपने-अपने आधार से प्रस्तुत करते हैं।)को माना है। हास्य के दो भेद हैं। एक - आत्मस्थ और दूसरा - परस्थ। किसी व्यक्ति का स्वयं अपने आप में हँसना आत्मस्थ हास्य कहलाता है और अन्य किसी व्यक्ति को हँसते हुए देखकर हँसना परस्थ हास्य कहलाता है। हँसना और हँसाना एक प्रकार की कला है जो कि हास्य रस में निहित है। हास्य ही एक ऐसा माध्यम है, जो व्यक्ति के तनावपूर्ण जीवन में कुछ क्षणों के लिए खुशी लाता है। हास्य-रस एक बुझे हुए दीपक में तेल का कार्य करता है। अर्थात जो व्यक्ति अपने तनावों से ग्रस्त होने के कारण मुस्कराना ही भूल जाता है, हास्य उसे एक नई ज्योति प्रदान कर देता है।

हास्य के संचारी भावों का वर्गीकरण निम्नवत् किया जा सकता है -
1. स्नेहन: स्नेहन में करुणा संचारी होकर आलंबन के प्रति हास्य को सुगम एवं सरस बनाने के साथ-साथ उसे जन-जन में स्वीकार्य भी बनाती है। जिससे इसका महत्व प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँच सके।

2. उपहासक :जहाँ स्नेहन में करुणा संचारी होकर उसे आलंबन के प्रति स्वीकार्य बनाती है वही उपहासक में संचारी आकर हास्य आलंबन को तिरस्कार्य भी बना देती है।

3. विभाव संक्रमिति : विभाव संक्रमिति संचारी आश्रय को भी स्वतंत्र आलंबन बना देता है। माता-पिता के अधिक लाड़-प्यार के कारण बिगड़ा हुआ बालक अपने पिता की दाढ़ी-मूँछ उखाड़ता है। पिता का ऐसे बेटे के प्रति इस प्रकार का स्नेह आना उसे (पिता को) आश्रय से आलंबन बना देता है।

4. परिहास : किसी संगीत की महफ़िल में बैठे व्यक्तियों का संगीतकार के संगीत की खर-खर ध्वनि को सुनकर या गायन को सुनकर धीरे-धीरे सो जाना, अरुचि से उत्पन्न यह निद्रा संगीत की मधुरता पर एक प्रकार का व्यंग्य है। यह वर्णन परिहास के अंतर्गत आएगा।

5. रेचक : रेचक हास में किसी भी व्यक्ति विशेष की विशेषताओं का उल्लेख किया जाता है। जैसे - लक्ष्मण की उग्रता तथा रोष से परशुराम हास्यास्पद हो जाते हैं; हास्यास्पद के साथ-साथ उनके प्रति प्रतिशोध की भावना का भी रेचन होता चलता है।
6. ऊहामूलक : ऊहामूलक हास में वितर्क, प्रहेलिका, विमूढ़ता आदि को सम्मिलित किया जाता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है हास्य श्रंगार से उत्पन्न होता है। हास्य से व्यक्ति के मन का विकास होता है, जो कि प्रीति (स्नेह) का एक विशेष रूप माना जाता है। प्रायः हास्य के विस्तृत सीमा क्षेत्र की ओर ध्यान देने से ज्ञात होगा कि हास्य केवल श्रंगार में ही सीमित नहीं है और न ही हास्य को श्रंगार के क्षेत्र तक सीमित किया जा सकता है। हास्य के विभावों के मूल कारणों में औचित्य ही एक प्रकार कारण बन जाता है और वही कारण प्रायः सभी प्रकार के रसों के विभाव आदि में पाया जा सकता है। हास्य का संबंध श्रंगार से अधिक मानने का कारण यह है कि यह प्रिय चित्तानुरंजक होता है। (श्रंगार-रसभूयिष्ठः प्रियचित्तानुरंजः। रस सुधाकरः। से- डॉ.गणेश दत्त सारस्वत,हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद,पृ.सं.6 पर उद्धृत)

श्रंगार-रस द्वारा हास्य का जन्म होता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि हास्य-रस की व्यापकता मात्र श्रंगार-रस तक ही सीमित है। हास्य-रस की व्यापकता तो श्रंगार-रस से भी अधिक है। हास्य-रस श्रंगार रस का व्यापक अंग तो होता ही है, अन्य अनेक रसों के परिपाक में इसकी उपयोगिता भी महत्वपूर्ण मानी जाती है।

हास्य के भेद
आचार्य भरत मुनि द्वारा विवेचित हास्य के भेदों आत्मस्थ और परस्थ का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है - ‘‘पात्र जब स्वयं हँसता है तो यह आत्मस्थ हास्य कहलाता है और जब दूसरों को हँसता हुआ देखकर हँसता है तो इसे परस्थ हास्य कहते हैं।‘‘ (‘द्विविधश्चायम् आत्मस्थः परस्थश्च। यदा स्वयं हसति तदाऽऽत्मस्थः यदा तु परं हासयति
तदा परस्थः। - नाट्यशास्त्र, 6/47 से आगे गद्य तथा 6/49 ,61:8/19 से - डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 6 पर उद्धृत ) परस्थ कभी भी स्वयं उत्पन्न नहीं होता। परस्थ और आत्मस्थ में यह अंतर है कि जहाँ आत्मस्थ स्वयं उत्पन्न होता है वहीं अन्य व्यक्तियों को देखकर उत्पन्न हुए हास्य को परस्थ कहते हैं अर्थात यह दूसरों के कारण उत्पन्न होता है।

परस्थ हास्य उत्तम, मध्यम एवं अधम तीनों प्रकार के व्यक्तियों में अद्भुत होता है। इसके मुख्यतः छह भेद हैं। 1. स्मित, 2. हसित, 3. विहसित, 4. उपहसित, 5. अपहसित और 6. अतिहसित। वास्तव में ये भावभेद न होकर हास्य-क्रिया के भेद हैं।

1.मन की खुशी या आँखों की खुशी (मुस्कुराहट) प्रकट होना। आँखों की खुशी के साथ नीचे के होठ का कुछ हल्का-सा हिलना, साथ ही साथ बिना दाँत दिखाए चेहरे पर एक प्रकार की मधुरता छा जाना इसे ‘स्मित‘ हास्य कहते हैं।

2.व्यक्ति का कुछ इस प्रकार हँसना कि उसके गालों का हल्का-सा विकास हो जाए और गालों के साथ ही साथ उसके मुख और नयनों में चंचलता के साथ उसके दाँतों की कुछ पंक्तियाँ दीख पड़े ‘हसित‘ हास्य कहलाता है।

3.कुछ व्यक्ति इस प्रकार हँसते हैं कि पता ही नहीं चलता कि वे हँस रहे हैं या हँसने के सा-साथ बात कर रहे हैं। हँसते समय कुछ शब्दों का उच्चारण करना, हँसने की क्रिया का शब्दयुक्त होना इसे ‘विहसित‘ कहते हैं।

4.हँसते-हँसते लोट-पोट होना, हँसते समय नाक के नथुनों का फूल जाना, हँसते समय सिर और कंधों का सिकुड़-सा जाना ‘उपहसित‘ कहलाता है।
5.हँसते-हँसते आँखों में आँसू आ जाना, हँसते-हँसते कंधों और सिर में कुछ हल्का-सा कंपन उत्पन्न होना ऐसी हँसी को ‘अपहसित‘ कहा जाता है।

6.हँसते-हँसते आँखों से आँसू टपकना, आँसू टपकाते हुए ताली मारकर ठहाका मारकर हँसना, खुलकर हँसना ही ‘अतिहसित‘ कहलाता है।

लौकिक व्यवहार एवं बोलचाल में हास्य के कई अन्य भेद भी पाए जाते हैं। जैसे -बनावटी हँसी, नेत्रों की हँसी और सूखी हँसी इत्यादि। इन सभी प्रकार की हँसियों का साहित्यकारों ने भरपूर प्रयोग किया है। आचार्य केशवदास ने रसिक प्रिया में हास्य को चार भागों में विभक्त किया है - मंदहास, कलहास, अतिहास और परिहास इत्यादि।

‘‘1.मंदहास में नयन और कपोल विकसित होने लगते हैं तथा मंदहास में व्यक्ति के दाँत पूर्ण रूप से दिखाई देने लगते हैं।

2.कलहास वह है जिसे सुनकर, सुननेवाले का तन-मन पुलकित हो उठता है इसकी कोमल ध्वनि को सुनकर सुननेवाले का तन-मन खिल उठता है।

3.अतिहास में व्यक्ति अत्यंत सुख-भार का अनुभव कर निश्शंक होकर हँसता जाता है और हँसते-हँसते कुछ आधे-अधूरे अक्षर अथवा उच्चारण मात्र से हास्य फिर फूट पड़ता है। अर्थात व्यक्ति हँसता-हँसता लोट-पोट हो जाता है।
4.परिहास में परिवार के सभी सदस्य अपने कुल की मर्यादाओं के बंधन से मुक्त होकर दिल खोलकर हँस पड़ते हैं। उनकी हँसी निर्बाध तथा निर्बंध होती है।‘‘ (डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 8-9 )
डॉ. रामकुमार वर्मा ने हास्य के दोनों प्रकारों तथा छह भेदों का सम्मिश्रण करते हुए लिखा है - ‘‘वस्तुतः अपने प्रभाव के आधार पर हास्य तीन प्रकार के माने गए हैं - उत्तम, मध्यम और अधम। इन तीनों प्रकारों में प्रत्येक के दो-दो भेद हैं। जो इस प्रकार हैं - उत्तम के भेद हैं - स्मित और हसित, मध्यम के भेद हैं - विहसित और उपहसित तथा अधम के भेद हैं - अपहसित और अतिहसित।‘‘ (आलोचना, जनवरी 1955, दृश्य काव्य में हास्य तत्व, पृ.सं. 64 से डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 8 पर उद्धृत) ये प्रत्येक भेद आत्मस्थ और परस्थ हो सकते हैं। इस प्रकार हँसने की क्रिया बारह प्रकार से हो सकती है।

हास्य

उत्तम मध्यम अधम


स्मित हसित विहसित उपहसित अपहसित अतिहसित


आत्मस्थ परस्थ आत्मस्थ परस्थ आत्मस्थ परस्थ


आत्मस्थ परस्थ आत्मस्थ परस्थ आत्मस्थ परस्थ


इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय आचार्यों ने हास्य के विभिन्न पक्षों, प्रत्यक्ष एवं स्थूल कारणों पर अपनी दृष्टि केंद्रित कर रखी है, उन्होंने हास्य के संबंध में सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक कारणों की विवेचना पूर्ण रूप से नहीं की।
पाश्चात्य विद्वानों ने हास्य का विशद रूप में विवेचन करते हुए उसके पाँच प्रमुख भेद माने हैं - 1. स्मित हास्य (ह्यूमर), 2. वाग्वैग्ध्य (विट), 3. व्यंग्य (सटायर), 4. वक्रोक्ति (आइरनी) और 5. प्रहसन (फार्स)।

इसके अलावा ‘‘डी.एच. मोरनों ने हास्य को दस रूपों में व्यक्त किया है। यथा -
1. सामान्य घटनाक्रम का अतिक्रमण
2. सामान्य घटानाक्रम का कोई निषिद्ध अतिक्रमण
3. अश्लीलता
4. अप्रत्याशित स्थिति उत्पन्न करना
5. अप्रत्याशित मूक प्रदर्शन
6. शब्द क्रीड़ा
7. प्रलाप तथा झक
8. छुटपुट दुर्गति
9. योग्यता अथवा कुशलता और
10. प्रच्छन्न तिरस्कार।‘‘(डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 11)

हास्य के व्यंजनापक्ष पर अधिक बल देनेवाले विद्वानों में विलियम हैजलिट, ड्राइडन, एडीसन, मेरीडिथ और जे.एल. पाट्स प्रमुख माने जाते हैं। इन्होंने हास्य के पूर्वोक्त पाँच भेदों को ही स्वीकार किया है।

स्मित हास्य में आलंबन का वर्णन स्वभावोक्ति से किया जाता है, जबकि वचन-विदग्धता में यह वर्णन कुछ वक्रोक्तिपूर्ण होता है। इसीलिए उपमा और विरोध दर्शन का व्यवहार इसके लिए आवश्यक माना जाता है। इसमें अपनी बातों को, अपनी बुद्धि से तोलकर उसमें छानकर सुनियोजित तरीके से इस प्रकार स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया जाता है कि श्रोता और वक्ता एक दूसरे के कथ्य से परस्पर प्रभावित होते हैं और दोनों का मनोविनोद होता है।
स्मित हास्य के संबंध में ए.निकॉल का कथन प्रस्तुत है - ‘‘स्मित हास्य के लिए समझदारी अत्यावश्यक है। जबकि हँसना बेसमझदारी का हो सकता है। इसके लिए एक विशेष प्रकार के चिंतन की आवश्यकता है, जो रुखा चिंतन ही न हो वरन् मनुष्यत्व पर सहानुभूतिपूर्ण विचार के उपरांत उत्पन्न हुआ हो।‘‘(डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 12)

वाग्वैदग्ध्य को वाक् छल, व्ययुत्पन्नता और बौद्धिक कुशलता कहा जा सकता है। इसमें तर्क के बंधनों से मुक्ति का भाव पाया जाता है। साथ ही इसमें मनोवृत्ति के स्थान पर बालमनोवृत्ति का भी पूर्ण समावेश रहता है। वाग्वैग्ध्य में किसी कथन पर उत्पन्न आश्चर्य महत्वपूर्ण होता है। इसमें सत्य और प्रौढ़ अर्थ का होना भी अत्यावश्यक है। साथ ही इसमें रस और चमत्कार का होना भी आवश्यक है। वाग्वैग्ध्य की एक विशेषता उस की सामाजिकता भी मानी जाती है।

हास्य के भेदों में व्यंग्य का अपना ही अलग एक विशेष महत्व माना जाता है। व्यंग्य (सटायर) को क्रोध की अभिव्यक्ति का एक उपकरण माना जाता है। व्यंग्य की सफलता उसकी अभिव्यक्ति के सौष्ठव पर निर्भर होती है। व्यंग्यकार, व्यंग्यपात्र और आस्वादक - इन तीनों का एक सक्रिय योग व्यंग्य की पूर्णता के लिए उपयुक्त है और उसकी परिणति हास्य में ही होती है।
3. व्यंग्य : व्युत्पत्ति और अर्थ
आचार्य मम्मट ने काव्य के तीन भेद किए हैं - ‘‘1. उत्तम काव्य, 2. मध्यम काव्य और 3. अधम काव्य। यह वर्गीकरण शब्दार्थ के वाचक, लाक्षणिक और व्यंग्य प्रयोगों के आधार पर किया गया है। उत्तम काव्य ही तत्काल में व्यंग्य रहा है।‘‘(डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधाः शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 17) उत्तम काव्य को ध्वनि काव्य के नाम से भी जाना जाता है। ध्वनि काव्य में व्यंग्यार्थ, वाच्यार्थ से अधिक उत्कृष्ट होता है, जिसमें रस-ध्वनि की श्रेष्ठता होती है। इसी प्रकार काव्य में रस का संचार शब्द-शक्तियों से होता है। शब्द-शक्तियाँ तीन हैं - 1. अभिधा, 2. लक्षणा और 3. व्यंजना। इनमें से व्यंजना शब्द-शक्ति का व्यंग्य विधा में महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है।

इस प्रकार व्यंजना शब्द-शक्ति उत्तम काव्य और व्यंग्य विधा दोनों के लिए आवश्यक है। व्यंजना को ही व्यंग्य का जनक माना है। समाज में मानवमूल्यों की स्थापना के लिए व्यंग्य का जन्म हुआ है। व्यंग्य क्रोध की अभिव्यक्ति का एक उपकरण है। इसका लक्ष्य लोकहित माना जाता है। इसकी सफलता उसकी अभिव्यक्ति के सौष्ठव पर आधारित है। व्यंग्य हास्य-रस से इस अर्थ में भिन्न है कि हास्य जहाँ किसी पर तीखा प्रहार नहीं करता, वही व्यंग्य तीखा प्रहार करने से पीछे नहीं हटता। व्यंग्य ‘वि‘ उपसर्ग पूर्वक ‘अज्ज‘ धातु में ‘ण्यन‘ प्रत्यय लगाकर बना शब्द है। इसे ‘वि + अंग = व्यंग्य‘ के रूप में भी देखा जा सकता है। व्यंग्य का उर्दू पर्यायवाची ‘हजो‘ है। ‘‘हजो में हास्यास्पद का मज़ाक उड़ाया जाता है पर यह मज़ाक किसी की निंदा नहीं है। इसके अंतर्गत आलंबन की खिचाई होती है, यहाँ पर आलंबन की तुलना चिढ़ाने योग्य, बदनाम या घृणित वस्तु से की जाती है। जब हास्य में तीखापन आ जाता है, हास्यास्पद के प्रति जब दयालुता शेष नहीं रहती है तथा उनकी उपहासपूर्ण निंदा की जाती है। इससे आलंबन तिलमिला उठता है। तब उसे व्यंग्य की संज्ञा दी जाती है।‘‘(डॉ.गणेश दत्त सारस्वत,हिंदी साहित्य में व्यंग्य-विनोद, पृ.सं. 17 )
आज मनुष्य जीवन विभिन्न प्रकार की विद्रूपताओं और असमानताओ से इस प्रकार घिरा है कि इन की विडंबनाओं में फँसा संवेदनशील लेखक तड़प उठता है। इस प्रकार की तड़प कहीं आक्रोश तो कहीं विद्रोह में अभिव्यक्त होती है। समाज में आज जिस प्रकार विसंगतियाँ, कटुता और कर्कशता व्याप्त हैं। इन विकृतियों के रूप को देखकर जो भावोद्रेक होता है उसी से व्यंग्य की निष्पत्ति होती है।

व्यंग्य विधा में ‘उद्वेग‘ का महत्वपूर्ण स्थान है। भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में विसंगतिपूर्ण वातावरण के कारण व्यक्ति उद्विग्न हो उठता है। उस उद्विग्नता का संबंध कहीं न कहीं व्यक्ति मन से जुड़ा होता है। वातावरण का प्रभाव मनुष्य पर होकर हृदय से उद्वेग बाहर निकलता है। उद्वेग का मूलाधार हृदय को ही माना जाता है, जिससे यह उत्पन्न होता है। उद्विग्नता से कटु होकर जो भावधारा व्यंग्यकार की कलम के द्वारा बाहर निकलती है वही व्यंग्य है। ‘‘सर्वाधिक श्रेष्ठ व्यंग्य वह होता है जिसमें किसी किस्म की जीवन दृष्टि का अभाव हो तथा जिसे पढ़कर यह पता न चले की वह क्यों लिखा गया है और किस पर लिखा गया है।‘‘ (लक्ष्मीकांत वैष्णव, मेरी श्रेष्ठ रचनायें -(लेखक की बात)।

व्यंग्य की प्रक्रिया एक समय में दो शिकार करने के समान है। व्यंग्य का एक शिकार तो कल्पित लक्ष्य होता है और दूसरा असली। व्यंग्यकार का अहं जितना अधिक आहत होता है, वह विसंगतियों पर उतनी ही करारी चोट करता है। इसके द्वारा समाज सुधार तथा व्यक्ति की प्रवृत्ति में बदलाव ला पाना संभव होता है। इसीलिए व्यंग्य विधा एक प्रकार से समाज सुधार का कार्य भी करती है।
4. व्यंग्य का स्वरूप
गद्य साहित्य की अन्य आधुनिक विधाओं की भाँति ‘व्यंग्य‘ भी आधुनिक युग की देन है। परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि व्यंग्य की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। जिस विधा का रूप आधुनिक काल में प्राप्त हो सकता है, साहित्यिक विधाएँ पूर्व निर्धारित आधार पर नहीं बनती हैं। जब कोई रचनाकार लिखता जाता है, लिखने के पश्चात् उसकी रचनाओं के स्वरूप, वैशिष्ट्य और अनुकृति के आधार पर विधा का निर्माण होता है। हिंदी के व्यंग्यकारों ने व्यंग्य के प्रयोजन पर भिन्न-भिन्न रूपों में विचार किया है, तथापि उसका मूल उद्देश्य सुधार ही है।

व्यंग्य की विभिन्न परिभाषाएँ
व्यंग्य के विभिन्न विशेषज्ञों ने ‘व्यंग्य‘ को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है।

(अ) भारतीय दृष्टिकोण
व्यंग्य के संदर्भ में कतिपय भारतीय साहित्यकारों के मत निम्नलिखित हैं-
1. आचार्य वामन
‘‘सादृश्या लक्षणा वक्रोक्तिः में वक्रोक्ति के द्वारा व्यंजना का संकेत किया गया है। आचार्य वामन रीतिवादी परंपरा के जनक रहे हैं, जिन्होंने व्यंग्य का युक्ति-संगत और गंभीर विवेचन किया है।‘‘
(डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा : शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 63)
संस्कृत साहित्य के आचार्यों ने व्यंग्य को ध्वनि के अंतर्गत रखा है क्योंकि इसमें शब्द का प्रत्यक्ष अर्थ ज्ञात होता है, लेकिन उसके साथ प्रयोग में आए शब्द की विशेष दृष्टि से उसके साक्षात् अर्थ से उसके भिन्न अर्थ की भी जानकारी प्राप्त होती है। यह जो दूसरा अर्थ ध्वनित होता है इसी कारण इसे ध्वनि-व्यंग्य कहा जाता है।
2. आचार्य आनंद वर्धन
‘‘काव्यं ध्वनिर्गुणीभूत व्यंग्य चेति द्विधा मतम्।
वाच्यातिशयिति व्यंग्ये ध्वनिस्तत्काव्यमुत्तममं।।‘‘
(आचार्य मम्मट, द्वितीय अध्याय, काव्य मीमांसा -से -डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा: शास्त्र और इतिहास)
अर्थात साहित्य में जो अर्थ अभिव्यंग्य रूप से अवस्थित रहता है, वह इतना सुंदर , इतना चमत्कारजनक प्रतीत होता है कि वाच्यार्थ, उसके सामने व्यर्थ-सा प्रतीत होता है। इस ध्वनित अर्थ का सौंदर्य वाचन करनेवाले की पहुँच से काफ़ी दूर रह जाता है।

3. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यंग्य के संबंध में कहा है कि ‘‘व्यंग्य वह है, जो कहनेवाला अधरोष्ठ में हँस रहा हो और उसे सुननेवाला सुनकर तिलमिला उठता है। फिर भी कहनेवाले को जवाब देना अपने आपको और उपहासास्पद बना लेना हो जाता हो।‘‘(पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग,पृ.सं.6)

4. डॉ. वीरेंद्र मेंहदीरत्ता
‘‘व्यंग्य किसी व्यक्ति, समुदाय, संस्था अथवा समाज की दुर्बलताओं तथा दोषों का उद्घाटन कर उस पर प्रहार करता है। व्यंग्य मानव तथा जगत की मूर्खताओं तथा अनाचारों को प्रकाश में लाकर उनके उपहास्य रूप में आलोचनात्मक प्रहार करने में समर्थ एक साहित्यिक अभिव्यक्ति है।‘‘
( पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 7)
‘‘व्यंग्य एक ऐसी साहित्यिक अभिव्यक्ति या रचना है, जिसमें समाज और व्यक्ति की दुर्बलताओं, कथनी और करनी के अंतरों की समीक्षा अथवा निंदा, भाषा को टेढ़ी भंगिमा देकर अथवा कभी-कभी पूर्णतः स्पष्ट शब्दों में प्रहार करते हुए की जाती है। इसके पश्चात् भी उसमें पूर्णतः अगंभीर होते हुए भी गंभीरता हो सकती है, निर्दय होते हुए भी वह दयालु हो सकती है, अतिशयोक्ति का आभास होने पर भी पूर्णतः सत्य हो सकती है। व्यंग्य के अंतर्गत आक्रमण, क्रोध की उपस्थिति अनिवार्य होती है।‘‘ (पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 6-7)

6. हरिशंकर परसाई
‘‘व्यंग्य मानव चेतना को झकझोर कर रख देता है, विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है, उसकी व्यवस्था की उत्पन्न सड़ांध की ओर स्पष्ट संकेत करता है और उसके परिवर्तन की ओर शुरुआत करता है तो उसे सफल व्यंग्य माना जाता है।‘‘ ((पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 6)

7. डॉ. प्रभाकर माचवे
‘‘व्यंग्य कोई अंदाज़ या पोज़, लटका या बौद्धिक आयाम नहीं, पर एक आवश्यक अस्त्र अवश्य है। गंदगी की सफ़ाई करने के लिए किसी न किसी को अपने हाथ गंदे करने ही होंगे, किसी न किसी को उस बुराई को अपने सिर लेना ही होगा तभी उस कार्य को या उस गंदगी को साफ़ किया जा सकता है।‘‘(पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 7)
8. बरसानेलाल चतुर्वेदी
‘‘वास्तव में जब हास्य विशद, आनंद या रंजन को छोड़ प्रयोजननिष्ठ हो जाता है, वहाँ वह व्यंग्य का मार्ग पकड़ लेता है। आलंबन के प्रति तिरस्कार, उपेक्षा या भर्त्सना की भावना लेकर आगे बढ़नेवाला हास्य ‘व्यंग्य‘ कहलाता है।‘‘ (पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 6)
9. डॉ. रामकुमार वर्मा
‘‘आक्रमण करने की दृष्टि से वस्तुस्थिति को विकृत कर उससे हास्य उत्पन्न करना ही व्यंग्य है।‘‘ (डॉ. रामकुमार वर्मा, रिमझिम, पृ.सं. 13)
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि व्यंग्य में सोच-विचार देने की क्षमता है तथा वह आहत तो करत है लेकिन विचलित नहीं करता।
(आ) पाश्चात्य दृष्टिकोण
व्यंग्य की कतिपय पाश्चात्य विशेषज्ञों द्वारा दी गई परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -
1. ड्रायडन
‘‘व्यंग्य का वास्तविक मूल उद्देश्य है शोधन पद्धति द्वारा सुधार करना।‘‘(वीरेंद्र मेंहदीरत्ता, आधुनिक हिंदी साहित्य में व्यंग्य, पृ.सं. 13 से - डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 32 पर उद्धृत) ड्रायडन का मानना है कि किसी काम को बिगाड़कर मूर्खतापूर्ण व्यवहार करने तथा किसी प्रकार समस्या निर्माण करने वालों को सुधारना ही व्यंग्य का कार्य है।
2. वायरन
"Fool are my theme, let satire be my song "( मूर्ख मेरा आलंबन है) अतः व्यंग्य मेरा काव्य है।‘‘ (वीरेंद्र मेंहदीरत्ता, आधुनिक हिंदी साहित्य में व्यंग्य, पृ.सं. 14 से - डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 33 पर उद्धृत) स्पष्ट है कि बायरन व्यंग्य को मनुष्य समाज की खाल उधेड़नेवाला मानते हैं।

‘‘साहित्यि क दृष्टि से उपहासास्पद अथवा अनुचित वस्तुओं से उत्पन्न हर्ष या घृणा के भाव को समुचित रूप से अभिव्यक्त करने का नाम है व्यंग्य। इसके लिए यह आवश्यक है कि उस अभिव्यक्ति का भाव निश्चित रूप में विद्यमान होना चाहिए तथा उक्ति को साहित्यिक रूप प्राप्त हो। हास्य के अभाव में व्यंग्य का अर्थ पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता है और वह गाली का-सा रूप धारण कर लेता है तथा साहित्यिक विशेषज्ञों के बिना वह विदूषक की ठिठोली मात्र बनकर रह जाता है।‘‘ ( पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 6)

4. जेम्स हने :
"The flashing lighting terrifes the evil do eres, while purifies the air such as satire when great and earnet. (आसमान की बिजली जिस प्रकार कड़ककर अनाचारी को डराती है तथा वायु को शुद्ध भी करती है, उसी प्रकार पूरी ईमानदारी के साथ लिखे गए व्यंग्य साहित्य का स्वरूप है ।‘‘ (सटायर एण्ड सटायरीस्ट, जेम्स हने - से डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 33 पर उद्धृत)
5. कन्साइज़ ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ़ इंग्लिश लिटरेचर
‘‘व्यंग्य ऐसी रचना है जिसमें प्रचलित त्रुटियों और मूर्खताओं को उपहासात्मक रूप से ग्रहण किया जाता है।‘‘ (पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 6)
6. नारमन फ़र्लांग
^^Satire is then rarely a major fantal assault, the satirist plants his blows on most of the weak spots of civilized.^^(इंग्लीश सटायर, नारमन फ़र्लांग, प्रस्तावना। से डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 64-65 पर उद्धृत) व्यंग्य को आम तौर पर एक सीधा आक्रमण करने वाली विधा माना जाता है, जिसके द्वारा व्यंग्यकार शिष्ट समाज के दोषों तथा कमज़ोरियों पर सीधा आघात करता है।

पाश्चात्य साहित्य में व्यंग्य के संबंध में यह धारणा रही है कि ‘‘व्यंग्य सहानुभूतिहीन क्रोध का इंजन है तथा व्यंग्य में खाली विकरात रूप का ही प्रदर्शन होता है।‘‘( इंग्लीश सटायर, नारमन फ़र्लांग, प्रस्तावना। - से डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 64-65 पर उद्धृत )

7. जेम्स सदरलैंड
‘‘एक व्यंग्यकार पीठ पर बैठे न्यायाधीश के समान कानून की व्यवस्था और सभ्य समाज के नियमों की देख-रेख करता है, वह सभी नर-नारियों की परीक्षा बौद्धिक, सामाजिक, नैतिक एवं अन्य मानकों के आधार पर ही करता है।‘‘ ( इंग्लीश सटायर, जेम्स सदरलैंड - से डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 64-65 पर उद्धृत)

संक्षेप में पाश्चात्य साहित्य चिंतकों ने व्यंग्य के विभिन्न आयामों को परिलक्षित किया हैं। उनके लिए व्यंग्य मानव एवं मानवीय दुर्बलताओं को सुधारने हेतु कटु शैली में उपहास है। उसके सभी प्रकार के दूषणों पर प्रहार निहित है तथा समाज सुधार के लिए वह अत्यंत उपयोगी है।
































































Monday, November 2, 2009

सहायक रमेश

दिल्ली में रहने वाला रमेश एक होनहार लड़का है । रमेश जब बहुत छोटा था तभी ईश्वर ने उसके माँ-बाप का साया उसके सिर से छीन लिया उसका अब इस संसार में कोई सहारा नहीं था , कहते है न कि जिसका कोई सहारा नहीं उसकी रक्षा ईश्वर करता है । बचपन से ही अनाथ होने के कारण उसने अपने सभी कार्यों और विचारों में बुद्धिमत्ता विकसित कर ली थी । वैसे तो वह था अनाथ किन्तु उसने कभी भी अपने आप को अनाथों की तरह असहाय नही माना । वह सदैव अपने बल पर , अपनी बुद्धि के बल पर अपने कार्यों को करता था । जैसे - जैसे वह बड़ा होने लगा वैसे -वैसे वह दूसरे बेसहारा और अनाथ लोगों की सहायता करने लगा उसने अपने जीवन का एक लक्ष्य बना लिया था कि जितना उससे हो सकेगा वह गरीब अनाथ और बेसहाराओं की मदद करेगा। धीरे -धीरे समय बीतता गया और रमेश बड़ा होने लगा अब वह एक कुशल टेलर है। रमेश जब भी किसी अनाथ को देखता तो वह उस अनाथ की मदद अवश्य करता था । अब उसकी उम्र विवाह योग्य हो चुकी थी एक दिन उसका विवाह भी हो गया । लड़की के माता-पिता ने रमेश की दूसरों के प्रति सद्व्यवहा और एक एक मेहनती इन्सान को देखकर ही उन्होंने अपनी लड़की का विवाह उसके साथ कर दिया था । रमेश की पत्नी भी काफी समझदार थी उसकी पत्नी भी उसके सभी कार्यों में बराबर सहयोग करती करती थी । रमेश की पत्नी भी सिलाई का कार्य जानती थी वह घर पर ही रहकर औरतों के कपड़ो की सिलाई किया करती थी और रमेश अपनी दुकान पर । वे दोनों अपना जीवन खुशी-खुशी से व्यतीत कर रहे थे। उन दोनो की जितनी भी कमाई होती थी उसमें से अपने खाने -खर्चों को निकालकर वे दोनों बाकी के पैसों को गरीब, बेसहारा अनाथ लोगों की सेवा में लगा देते थे।

एक दिन की बात है जब रमेश अपनी दुकान से घर जा रहा था रास्ते में उसने देखा कि एक बेसहारा बूढा को देखा जो चलने में असमर्थ था उसे चलने में बहुत परेशाना हो रही थी । वैसे तो वहाँ पर बहुत लोग थे किन्तु किसी को इतनी फुरसती ही नहीं कि कोई उस बूढ़ो आदमी की मदद कर दे । जैसे ही रमेश ने देखा कि वह वृद्ध परेशान है वह उनके पास गया और उन्हें सहारा देते हुए उन के घर तक छोड़कर आया । वृद्ध ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा बेटा सदा खुश रहो अगर हर व्यक्ति तुम्हारी तरह दूसरों की सहायता करे तो इस दुनिया से दुखों का ही अंत हो जाएगा लेकिन आजकल तुम्हारे जैसे लोग बहुत कम ही मिलते है जो दूसरो के दुख को अपना समझकर उसे उस दुख से बाहर आने में मदद करते हैं । वृद्ध महोदय को घर छोड़ने के कारण संजय को घर आने में थोड़ी देरी हो चुकी थी जब पत्नी ने इसका कारण पूछा तो संजय ने सारी घटना अपनी पत्नी को बता दी । रमेश के इस कार्य से उसकी पत्नी ने भी उसकी सराहना की और उसे मुँह-हाथ धोकर आने के लिए कहकर खाना बनाने के लिए चली गई । कुछ समय बाद रमेश मुँह- हाथ धोकर आया तब तक उसकी पत्नी ने खाना लगा दिया था । दोनों खाने के लिए बैठे ही थे कि दरवाजे के बाहर से किसी भिखारी की आवाज सुनाइ दी रमेश ने अपनी थाली में से दो रोटी और कुछ चावल ले जाकर उस भिखारी को दे दिए और आकर उसने स्वंय भोजन किया । एक भूखे को भोजन कराकर एक असहय की सहायता करके उसे जो आत्मसंतुष्टि हो रही थी उसे वह व्यक्त नहीं कर सकता था । रमेश की पत्नी भी सदैव उसके कार्यों में उसकी बराबर सहायता करती थी । इस प्रकार संजय और उसकी पत्नी सदैव गरीब ,असहाय बेसहारा लोगों की सहायता करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगे। जीवन का सच्चा सुख तो सदैव दूसरों की सहायता करने में ही मिलता है। जो दूसरों की सहायता करते हैं ईश्वर भी उनकी सहायता करते हैं । मनुष्य को अपने जीवन में कभी भी अहंकार नहीं करना चाहिए क्योंकि जो व्यक्ति अहंकार करता है वह कभी भी सफल नहीं हो सकता । जो दूसरों के सुख-दुख बांटते हैं ईश्वर भी उनके सुख-दुख का ख्याल रखता है । इसीलिए तो कहा गया है कि मानव सेवा ही माधव सेवा है ।जो व्यक्ति मानवों का तिरस्कार करके ईश्वर को प्रशन्न करने का प्रयास करते है ईश्वर ऐसे लोगों से कभी प्रशन्न नहीं होता और न ही ईश्वर ऐसे लोगो को पसंद करता है।

Thursday, October 29, 2009

बूढ़ी हड्डियाँ

सरदी का मौसम था। सरदी भी कैसी ; जिससे हमारी आपकी हड्डियाँ भी जम जाएँ। इसी कड़कड़ाती सरदी में मैं अपने कमरे में गरमागरम  कॉफी  का आनंद ले रहा था कि मेरी नज़र खिड़की के बाहर पड़ी। सड़क पर एक वृद्ध चला जा रहा था। सबेरे के साढे़ सात बजे थे। मुझे याद आया, आज स्कूल की बस आठ बजे आने वाली है और मेरा ध्यान उस वृद्ध से हटकर अपने आपको तैयार करने में चला गया। जल्दी-जल्दी उठा और नहा-धोकर स्कूल जाने के लिए निकल पड़ा। सात-पचपन हो चुके थे। मैं जल्दी-जल्दी बस स्टॉप की तरफ लपका। मगर मेरे, बस स्टॉप तक पहुँचते-पहुँचते स्कूल-बस वहाँ से निकल चुकी थी। मैं हताष सा खड़ा रह गया। तभी मेरी नज़र पुनः उस वृद्ध पर पड़ी जो कुछ देर पहले मेरी खिड़की के सामने से आया था। उस वृद्ध को देखकर न जाने क्यों मेरे मन में उसके बारे में जानने की इच्छा हुई। मैं धीरे-धीरे उसके समीप गया ही था कि बस आ गई और वह उस बस में चढ़ गया। वह बस मेरे स्कूल की दिशा में जाने वाली थी, यो मैं भी उसी में चढ़ गया।
बस के भीतर का नज़ारा किसी भी संवेदनशील प्राणी को भौंचक करने के लिए पर्याप्त था। वैसे तो आजकल सरकार भी वृद्धों को बहुत सी सुविधाएँ प्रदान कर रही है, जैसे रेलगाड़ियों के टिकट पर नियायत, बस में अलग से सीट। और भी बहुत सारी बातें हैं जिनके बारे में अभी यहाँ चर्चा करना आवश्यक नहीं है। हाँ तो, हम बस की बात कर रहे थे। वे वृद्ध सज्जन बस में चढ़े और उस भीड़ में अपने लिए सीट खोजने लगे। बस में वैसे तो साफ-साफ बड़े अक्षरों में लिखा ही रहता है कि अमुक सीट महिलाओं के लिए है, अमुक सीट विकलांगों के लिए है, अमुक सीट वृद्धों के लिए है, लेकिन भीड़ उस सबको पढ़कर भी अनपढ़ बनी रहती है। आज की पीढ़ी अपने आपको सुशिक्षित कहती है, मानती है किंतु उस शिक्षा को मात्र किताबों तक ही सीमित रखती है। इस बस में भी एक सीट पर साफ अक्षरों में लिखा था ‘‘वृद्धों के लिए’’। वृद्ध सज्जन ने देखा और मैंने भी देखा कि उस सीट पर दो नवयुवक बैठे आपस में गपशप  कर रहे हैं। एक ने वृद्ध को देख खड़ा होकर सीट देनी चाही किंतु उसके मित्र ने उसे ऐसा करने से रोकते हुए कहा, ‘‘अरे यार, इस बुड्ढ़े को क्या जरूरत थी इतनी सरदी में घर से बाहर आकर बस चढ़ने की? हम तो ऑफिस  जा रहे हैं। इसे इतनी जल्दी कहाँ जाना है जो सुबह-सुबह बस चढ़कर सीट पाने आ गया? अपनी जवानी में यह बहुत सीटों पर बैठ चुका; अब इसे खड़ा ही रहने दो।’’
पहले वाले की सदाशयता इस तर्कपूर्ण उपदेश से पलभर में जाती रही। मुझे यह स्थिति खल रही थी इसलिए मैंने उन युवकों के एक सीट खाली करने को कहा तो वृद्ध ने मुझे टोकते हुए कहा, ‘‘नहीं, रहने दो, बेटा। मैं खड़ा रहकर भी जा सकता हूँ। अभी इन बूढ़ी हड्डियों में बहुत जान है। इतनी जल्दी नहीं टूटेंगी ।’’
कहते हुए वृद्ध की आवाज नम हो आई थी। मैं विचलित हो गया और उन्हें अपनी सीट पर बिठाते हुए कहा, ‘‘बाबा, आप यहाँ बैठ जाइए।’’
पहले तो उन्होंने मना किया - ‘‘रहने दो, बेटा! यों ही ठीक हूँ।’’ जब मैंने उनसे बार-बार कहा और स्वयं उठकर खड़ा हो गया, तब उन्होंने बैठना स्वीकार किया। सीट पाकर उन्होंने एक चैन की सांस ली और बैठकर अपनी टाँगों को अपने हाथों से दबाना शुरू कर दिया जो अब तक खड़े रहने के कारण शायद दुःख रही थीं।
बस अपनी गति से चलती जा रही थी। हर स्टॉप पर नए लोग चढ़ते, कुछ पुराने उतर जाते। इसी भागादौड़ी में मेरा भी स्टॉप आ गया। मैंने देखा कि मेरे पीछे वे वृद्ध सज्जन उसी स्टॉप पर उतर गए।
हम लोग साथ-साथ चल रहे थे। जिज्ञासावश  मैंने  उनसे पूछ ही लिया, ‘‘बाबा, आप इस उम्र में, इतनी सरदी में कहाँ जा रहे हैं?’’
उन्होंने मेरी तरफ स्नेह से देखा और कहा ‘‘बेटा, पेट की आग को शांत करने के लिए कमाने जा रहा हूँ।’’
सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि लगभग पैंसठ वर्ष की आयु पार कर चुके वृद्ध को भी कमाने जाना पड़ रहा है। मैंने उनसे फिर पूछा ‘‘बाबा, आपके परिवार में कितने लोग हैं।’’ उन्होंने बड़ी भाव-भीनी मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया, ‘‘मैं और मेरी पत्नी दो प्राणी हैं।’’
‘‘और आपके बच्चे ?’’
बच्चों का नाम सुनते, वह भावभीनी मुस्कान एक अनजाने दुःख की दास्तान के पीछे छिप सी गई - ‘‘बच्चे? बच्चे हैं न! मेरे दो बेटे हैं। बड़ा विदेश  में  एक सॉफ्टवेर  कंपनी में मैनेजर है और छोटा बैंक में एकाउंटेंट। बड़ा बेटा और उसका परिवार अमेरिका में रहता है, छोटा बेटा इसी शहर में है।’’
‘‘क्या, बाबा, बेटा आपकी देखभाल नहीं करता? बड़ा बेटा आपकी जरूरतों के लिए पैसे नहीं भेजता?’’
ये प्रश्न सुनकर वृद्ध कुछ चुप से हो गए और शांत भाव में चलने लगे। मैंने भी चलते-चलते उनसे पूछ ही लिया, ‘‘छोटे बेटे के बीबी-बच्चे आपकी देखभाल नहीं करते क्या?’’
सुनकर न जाने क्यों उनकी बूढ़ी आँखों से आँसू छलक आए। यह देख मुझसे रहा न गया। आखिर मैंने पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है, बाबा? आपकी आँखों में आँसू?’’
‘‘क्या बताऊँ, बेटा! यह तो जीवन की कहानी है। जिन्हें हम पाल पोसकर बड़ा करते हैं, जिनके सुख-दुःख का दिन-रात ख्याल रखते हैं ; वे ही बुढ़ापे में छोड़कर चले जाते हैं। बेटा! मैंने अपनी जवानी में खूब धन कमाया और बच्चों को उच्च शिक्षा  दिलाई, उनका जीवन स्तर ऊँचा उठाया। बच्चों को सदैव खुश रखने का प्रयास करता था उनकी हर इच्छा पूरी किया करता था। बड़े बेटे को विदेश भेजने के लिए मुझे अपनी सारी जमा पूँजी लगानी पड़ी। फिर भी यह सोचकर संतोश होता था कि इन पैसों से कम से कम मेरे बेटे का सपना तो पूरा हो गया। बुढ़ापे की चिंता नहीं थी। सोचता था, आखिर बेटा जो भी कमाएगा, उसमें से हमारे लिए कुछ-न-कुछ तो भेजेगा ही। और हुआ भी कुछ ऐसा ही। पर जब बड़ा बेटा वहाँ से कुछ पैसे भेजता तो उन पैसों को मैं अपने छोटे बेटे के भविष्य के निर्माण में लगा देता। बड़े बेटे ने कुछ एक या डेढ़ साल पैसे भेजे होंगे, उसके बाद से आज तक एक फूटी कौड़ी तक नहीं आई।‘‘ क्षण भर रुककर धीमी आवाज में बोले, ‘‘उसने वहीं पर शादी भी कर ली और अपना पारिवारिक जीवन ख़ुशी -ख़ुशी  व्यतीत कर रहा है ... और मैं यहाँ ....!’’
        कुछ क्षण फिर चुप्पी रही। फिर जैसे अपने आपसे बात कर रहे हों, इस तरह उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘मेरा तो सब ठीक है किंतु उसकी वृद्धा माँ दिन रात उसे याद करती है। मरने से पहले एक बार उसे देखना चाहती है। मैं उसकी ममता को कैसे समझाऊँ कि जिस लाल का वह दिन रात इंतजार करती है, अब वह नहीं आएगा। अब वह हमारा लाल नहीं, किसी और का पति और किसी का पिता है। अब उसे हमारे साथ की नहीं, अपने आनेवाले कल के साथ की जरूरत है। .... अब वह एक कंपनी का मैनेजर है। उसको अपने भविष्य की चिंता है। उसके लिए जो बीत गया है वह जरूरी नहीं ; और हम दोनों अब उसका बीता हुआ कल हैं। ‘तुम व्यर्थ ही चिंता करती हो? वह ठीक है।’ मैं अक्सर उसे यही कहकर सांत्वना देता रहता हूँ। इन बूढ़ी हड्डियों का क्या भरोसा कब साथ छोड़ दें ? वह बेचारी तो इसी आस पर जी रही है कि उसका बेटा एक-न-एक दिन उसके पास जरूर आएगा।’’
‘‘बाबा, आपके तो दो बेटे हैं न ?’’
‘‘हाँ, बेटा। बेटे तो भगवान ने दो दिए हैं।’’
‘‘तो क्या छोटा बेटा भी आपकी देखभाल नहीं करता? और आपको इस उम्र में कमाने की क्या जरूरत ? आपकी पेंशन  भी तो आती होगी ?’’
‘‘हाँ, बेटा।पेंशन  तो आती है। वह सब घर के खाने-खर्चे में ही लग जाते हैं। घर का किराया और हमारी दवाइयों का खर्च कहाँ से चले ? उसके लिए मुझे कुछ न कुछ तो करना ही होगा। इस उम्र में दो ही रास्ते हैं। या तो खुद कमाऊँ या फिर दूसरों के आगे भीख मांगूँ। भीख मैं माँग नहीं सकता। सारा जीवन स्वाभिमान के साथ जिया है तो अब क्या किसी के सामने हाथ फैलाऊँ ? अब तो भगवान से एक ही प्रार्थना है कि कभी भी किसी के सामने हाथ फैलाने की नौबत न आने दे।’’
‘‘आपने जवानी में इतना कमाया तो क्या आपके पास आपका मकान नहीं है कि किराए पर मकान लेकर रह रहे हैं ?’’
‘‘अरे, बेटा! तुम एक मकान की बात करते हो, कभी मेरे पास दो-दो मंजिले दो मकान हुआ करते थे। पर आज मेरे पास अपना कहने के लिए कुछ नहीं।’’
‘‘तो क्या आपने अपने मकान बेच दिए ?’’
‘‘एक मकान तो बड़े बेटे को विदेश  भिजवाने के लिए बेचना पड़ा ....।’’
‘‘और दूसरा ?’’
‘‘दूसरे मकान में छोटा बेटा रहता है।’’
‘‘तो आप उसके पास क्यों नहीं रहते ? क्या वह आपको नहीं रखना चाहता ? या आप खुद उससे अलग रहना चाहते हैं ?’’
‘‘अरे, बेटा! कौन कम्बख्त ऐसा होगा जो अपने भरे-पूरे परिवार को छोड़कर अकेला रहना चाहे। जब तक छोटे बेटे का ब्याह नहीं हुआ था तब तक सब ठीक चल रहा था। बस जैसे ही बेटे का ब्याह हुआ, कुछ ही सालों में घर में कलह शुरू हो गई। रोज़-रोज़ की चिख-चिख से तंग आकर मैंने अपने आपको अलग करने का फैसला कर ही लिया। रोज़-रोज़ बहू का यह कहकर ताने देना कि मैं किसी काम का नहीं हूँ, घर पर बैठा-बैठा रोटी तोड़ता रहता हूँ - मुझसे सहा नहीं गया।’’ एक बार फिर उनकी आँखें और आवाज नम हो आई थीं।
‘‘बेटे ने आपको रोका नहीं ?’’
‘‘बेटा तो चाहता था कि हम उसके साथ रहें किंतु.... ?’’
मुझे लगा जैसे वे अपने छोटे बेटे का बचाव कर रहे थे, ‘‘बेटा, घर में बच्चे खुश  रहें, इसी में हमारी खुशी  है। जब जवानी हँस कर काटी है तो बुढ़ापे के लिए क्या रोना। एक न एक दिन बुढ़ापा सभी को आना है। जबसे मैं रिटायर हुआ हूँ और जबसे ये सब परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं, तबसे तो मैं भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे इस जहान से उठाले तो अच्छा हो। जब तक हाथ पैर चल रहे हैं, तब तक ठीक है। बस घिसट-घिसट कर न जीना पड़े। अब तक शान से जिया हूँ, चाहता हूँ शान से ही मरूँ।’’
वृद्ध की बातें सुनकर मेरा मन उन युवकों के प्रति घृणा से भर गया जो बुढ़ापे में माँ-बाप को बोझ समझते हैं। बातें करते-करते मेरा स्कूल भी आ गया। वे आगे चले गए और मैं स्कूल में उस दिन कक्षाओं में मन नहीं लगा। वृद्ध की कहानी मेरे दिमाग में चलती रही और मन बार-बार पूछता रहा , क्या इसी दिन के लिए माँ-बाप संतान चाहते हैं .............।

माँ






माँ तुझे सलाम तेरे जज्बे को सलाम
देकर अपनी साँसें तूने मुझको जीवन दिया  है
तेरी आँखों से ही तो मैने देखी दुनिया सारी
देकर जीवन की साँसे तूने हम पर किया उपकार
माँ तुझे सलाम तेरे जज्बे को सलाम।





    अगर न होती तुम तो मुझको संसार में लाता कौन
    अगर न होती तुम तो मुझको जीवन देता कौन
    अगर न होती तुम तो संसार को बसाता कौन
    ईश्व पहुँच नहीं सकता हर जगह इसलिए उसने बनाया तुमको
 




        माँ तुझे सलाम तेरे जज्बे कोसलाम।                                                                 
खुद भूखी रहकर मेरा पेट सदा ही भरती हो
खुद धूप में नंगे पाँव चलकर मुझे गोद में उठा ले जाती हो
आए कोई संकट मुझपर तुम मेरी ढाल बन जाती हो
मेरी रक्षा की खतिर तुम बडे-बड़ों से लड़ने से भी नहीं घबराती हो
माँ तुझे सलाम तेरे जज्बे को सलाम।





मेरी खुशियों की खातिर तुमने अपनी खुशियों का दिया है बलिदान
माँ तू ममता की है मूरत तुझमें ही बसता है भगवान
तेरे बिना इस जग में जीना नही तुझ बिन जीवन की कोई आस नहीं
हे माँ तुझे सलाम तेरे जज्बे को सलाम ।


Tuesday, October 27, 2009

आत्मविश्वास ही सफलता की प्रथम सीढी है

 आत्मविश्वास ही सफलता की प्रथम सीढी है ।यह इस आधार पर कहा जा सकता है कि जिस व्यक्ति का आत्मविश्वास कमजोर होता है वह अपने जीवन में कभी भी सफलता प्राप्त नहीं कर पाता । सफलता एवं उन्नती के शिखर पर केवल वहीं पहुँच सकता है जिसका मनोबल , आत्मविश्वास सुदृढ़ होगा। आत्मविश्वास का जन्म मन में होता है । मनुष्य का मन समस्त इन्द्रियों का स्वामी और गतिविधियों का केन्द्र माना जाता है । मन के संकेत पर ही एवं उसकी प्रेरणा से ही शरीर का संचालन सुचारु रुप से होता है । यदि मन न होता तो मनुष्य शरीर अपने आप में बड़ा लाचार होता , क्योकि मनुष्य का मन जो कहता है वह वही करता है किन्तु मनुष्य की कुछ सीमाएं भी हैं उन्हें वह पार नहीं कर सकता । मनुष्य का शरीर आग में जल जाता है , पानी में गल जाता है ,वायु-धूप में वह सूख जाता है , शीत धाम वर्षा सभी इसे विचलित कर देती हैं । यह तन थक जाता है , टूट जाता है और हिम्मत हार बैठता है । इस बेचारे शरीर से मनुष्य वह सब कुछ नहीं कर सकता था जो आज उसने कर दिखाया है मात्र शरीर से यह सब संभव नही हो सकता उसके लिए उसे अपने आप को आत्मविश्वासी बनाना होगा तभी वह अपने आप को ऊँचाइयों के शिखर पर पहुँचा सकता है।

    आज वैज्ञानिक,सास्कृतिक और कलात्मक उपलब्धियाँ मनुष्य के शरीर के कारण नहीं अपितु उसके आत्मविश्वास के कारण ही प्राप्त हो सकी हैं । आत्मविश्वास वह है जिसे न तो कोई तोड़ सकता है , न उसे हिला सकता है यदि वह आत्मविश्वास द्रढ़ है तो । मनुष्य का मन भी उस की सफलता में कहीं न कहीं भागीदार अवश्य होता है क्योंकि मन के अंदर ही किसी कार्य को करने की इच्छा का जन्म होता है । मन शरीर का एक ऐसा यंत्र है जिससे शरीर का संचालन सुचारु रुप से होता है। इस लिए हम कह सकते हैं कि जो व्यक्ति अपने मन से हार मान बैठता है उसे संसार की को भी ताकत नहीं जिता सकती और जो व्यक्ति अपने मन से नही हारा है उसे संसार की कोई भी ताकत हरा नहीं सकती । जो व्यक्ति अपने मन मे दृढ संकल्प के साथ कार्य आरंभ करता है वह कभी भी जीवन में हारता नहीं । मन न हारने का अर्थ है हिम्मत न हारना , अपना हौसला बनाए रखना । जब तक मनुष्य में यह हौसला बना रहता है वह शांत नहीं बैठता वह कोई न कोई नए कार्य को करने में निरंतर लगा ही रहता है । जिस व्यक्ति का आत्मविश्वास दृढ है वह बार-बार  असफल होकर भी सफलता की राह पर सदा गतिशील रहता है । सफलता भी उसी के कदम चूमती है जो अपने आप को सफलता पर ले जाना चाहता है । जीवन एक संघर्ष है और जो इस संघर्ष में सफल होता है वही सही अर्थों में मनुष्य है और जो इस संघर्ष से घबराकर विचलित हो जाते हैं उनका जीवन व्यर्थ है । जीना है तो सदैव आत्मविश्वास के साथ ।आत्मविश्वासी व्यक्ति तो  पहाड़ों को भी काटकर नदियाँ बना सकता है, बस जरुरता है दृढ़ संकल्प की  । जीवन एक संघर्ष है इसके लिए अंग्रेजी में एक कहावत है कि - "किसी भी लड़ाई में तब तक हार नहीं माननी चाहिए जब तक कि जीत न ली जाए।" वास्तव में कोई भी संघर्ष या लड़ाई मनुष्य  अपने आत्मबल  ( आत्मविश्वास ) के भरोसे पर ही जीत सकता है। मनुष्य शरीर तो एक साधन मात्र रहता है।
    हमें इतिहास में अनेक ऐसे व्यक्तियो के  उदाहरण मिल जाएंगे जिन्होंने अपने आत्मबल के भरोसे से दुनिया को झुका दिया असंभव को भी संभव कर दिखाया । हमें हमारे इतिहास में अनेक व्यक्तियों के जीवन चरित्र पढ़ने को मिलते हैं जो आजीवन कठिनाइयाँ झेलते रहे किन्तु अन्त में सफल हुए। आज उन व्यक्तियों को असाधारण महापुरुषों की श्रेणी में रखते हैं । इसका क्या कारण है?  इसका कारण यही है कि इन लोगों ने विषम परिस्थितियों के आगे अपने घुटने नहीं टेके और उसका डटकर मुकाबला किया और उन विषम परिस्थितियों पर विजय प्राप्त की इसी कारण आज हम उन्हें असाधारण मनुष्य मानते हैं । जैसा  कि हम उदाहरण  राष्ट्रपिता महात्मागाँधी जी का ले सकते हैं जिन्होने अपने जीवन में अपने आत्मविश्वास के बल पर ब्रिटिश साम्राज्य की नीव हिला कर रख दी थी । ब्रिटिश सरकार उन्हें तोड़ न सकी क्यों ? क्योंकि उनका आत्मविश्वास सुदृढ़ था । यदि उनका मनोबल कमजोर पड़ जाता तो शायद आज हम आजादी की हवा में सांस न ले रहे होते बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के शासकों के अत्याचारों का शिकार हो रहे होते । इस लिए हम कह सकते हैं कि  जिस व्यक्ति का आत्मविश्वास दृढ़ होता है उसे बड़ी से बड़ी बाधा भी नही हरा सकती । यह बात जरूर है कि जो व्यक्ति सच्चाई की राह पर चलता है उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है किन्तु सफलता भी उसी व्यक्ति के कदम चूमती है जो सच्चाई और आत्मविश्वास के साथ अपने लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करता है ।
 दूसरा उदाहरण हम स्वामी विवेकानंद का ले सकते हैं जिन्होंने अपनी विदेश यात्रा के दौरान जब अमेरिका में भाषणों के दौरान उन्हें भाषण देने की अनुमति न मिलने  पर वे निराश नहीं हुए ,बल्कि उन्होंने किसी न किसी तरह भाषण देने की अनुमति प्राप्त कर ही ली  उन्होंने अपना आत्मविश्वास नहीं खोया उन्हें केवल कुछ समय की ही अनुमति मिली थी किन्तु जैसे ही उन्होंने अपना भाषण आरंभ किया वहाँ पर बैठे सभी लोग उनके भाषण सुनकर मंत्र मुग्ध हो गए और उन्होंने पाँच मिनट के स्थान पर बीस मिनट का भाषण दिया और अपने देश का नाम उज्ज्वल किया । यह सब कार्य उन्होंने अपने आत्मविश्वास के बल पर ही किया । उन्होंने आशा का दामन नहीं छोड़ा और आज एक महान पुरुष के रुप में याद किए जाते हैं । जो व्यक्ति आत्मविश्वास के साथ अपना कार्य करता उसे सफलता अवश्य मिलती है।

जालिम दुनिया

ये जालिम दुनिया हमें चाहे या न चाहे
हम तो चाहेंगे तुम्हें  हर दिन हर पल
ये दुनिया बड़ी जालिम है दिल तोड़कर हँसती है
मतलब पड़े तो दिल जोड़ लेते हैं लोग
मतलब निकल गया तो साथ छोड़ देते हैं लोग
दिल को एक खिलौना बनाकर खेल लेते हैं लोग।
      दिल की हर धड़कन तेरे लिए धड़कती है
      जीवन के हर मोड़ पर साथ तेरा ढूँढती है
      जब भी तुम दिल से मुझे पुकारोगे,पास सदा मुझे पाओगे
      जीवन की हर राह पर याद मैं तुम्हें आऊँगा
         ये जालिम दुनिया हमें चाहे न चाहे
         हम तो चाहेंगे तुम्हें हर दिन हर पल     ।
तडप उठोगे जब याद हमारी आएगी
ढूँढोगे तुम हमें जब हम दूर चले जाएंगे
तन से भले ही दूर हो जाएं पल दिल तो तुम्हारे पास ही होगा
तेरे दिल की धड़कनों मे बसकर साथ तेरा हम पाएंगे
जब कभी भी ये हाथ दुआ को उठेंगे
तेरी सलामती ,तेरी खुशी के लिए सदा दुआ करेंगे
 ये जालिम दुनिया हमें चाहे न चाहे
 हम तो चाहेंगे तुम्हें हर दिन हर पल।

कर्मवीर बन

कर्मवीर बन ए इन्सान
कर्मभीरु न बन ए इन्सान।

    जो कर्मवीर है वही भाग्यवान है
    जो कर्महीन है वह भाग्यहीन है।

कर्म ही भाग्य का निर्माता है
कर्म के बल से तू पहाड़ों को भी झुका दे
सच्चाई की राह पर तू चलता जा ।

    लाख बाधाएँ आए राह में
    तू अपना लक्ष्य साधे चल
    देख बाधाओं को तू अपना लक्ष्य छोड़ न देना
    सच्चाई की राह तो तू छोड़ न देना।

मंजिल उसे ही मिलती है जो अपनी राह बनाता है
न सोच कि राह में क्या मिलेगा तुझे
मन में अपने मंजिल पाने की ललक जगाले तू
कर्मवीर बनकर अपनी मंजिल को पा ले तू।।

Wednesday, October 21, 2009

तेरा साथ

तुझसे मिलने का मैं हर पल ढूँढू रोज नया बहाना।
हर शाम तेरे साथ गुजारने का मैं नित ढूँढूं नया बहाना।
पास अपने रोकने का मैं नित ढूँढू नया बहाना।
जो शाम मेरी तुझसे मिले बिना गुजर जाए उस रात मुझे नींद भला कैसे आए।
तेरे आने की नित राह यूँ निहारु जैसे प्यासा मयूर बदरा को।
काँटों भरी राह पर भी मैं ढूँढू तुझसे मिलने का नया बहाना
दुनिया को दिखाने को अब मैं हँसने का बहाना ढूँढता हूँ।
तेरी याद भुलाने के लिए अब मैं ढूँढू कोई नया बहाना।।

बेरहम दुनियाँ में अब मैं जीने का सहारा ढूँढता हूँ
अब तो तेरी याद भुलाने को मैं मरने का बहाना ढूँढता हूँ
मरकर भी किसी मोड़ पर अगर तू मिल जाए
तुझे देखकर मैं खुशी-खुशी इस जहान से विदा हो जाऊँ।।

Monday, October 19, 2009

तुम निर्बल हो नहीं

लाज का पर्दा छोड़ दो शर्म का घुंघट छोड़ दो
अपने भाग्य को कर्म पथ पर मोड़ दो
दिखा दो समाज को कि तुम किसी से कम नहीं।
रानी लक्ष्मीबाई की तरह तुम भी अपनी उन्नती की जंग का ऐलान कर दो
समाज में अपना मुकाम अभी भी तुम्हें है पाना ।

लाज शर्म को छोड़ दो चार दिवारी के बंधन को तोड़ दो,
दिखा दो कि तुम निर्बल हो नहीं ।
नारी तेरी महानता इस जग ने है जानी
तुझमें ही है दुर्गा है तुझ में ही काली
तेरे आंचल की छांव में है पलती दुनिया सारी।

Thursday, October 8, 2009

कहानी "जाबो"

गाँव की सुंदरता हर किसी के मन को  अपनी ओर आकर्षित करती है। गाँव की मिट्टी की भीनी -भीनी खुशबू का मजा ही कुछ और है। वहाँ नल का  पानी पीकर  थकान  दूर हो जाती है । शहरों की भीड़-भाड़ भरी ज़िन्दगी ,वहाँ की वयस्तता से परे गाँव का वातावरण बिल्कुल अलग चारो ओर शांति ही शांति। गाँव के लोगों में जो अपनेपन की भावना होती है वह शहरी सभ्याता में बहुत कम देखने को मिलती है। शहरों में लोग पैसा तो खूब कमाते हैं पर अपनापन का भाव न जाने कहाँ छूट जाता है। गाँव के भोले-भाले किसान सादा जीवन उच्च विचार, मधुर व्यवहार ,बड़ा अच्छा लगता है गाँव के वातावरण में।

    एक दिन की बात है मैं गाँव के पीछे खेतों की सैर करने के लिए निकला, बाहर आकर बहुत अच्छा लगा चारों तरफ सरसों के  पीले-पीले फूल खिले हए दिखाई दे रहे थे। कितना सुंदर नज़ारा था ? ऐसा लग रहा था मानो धरती ने पीले रंग के वस्त्र धारण कर रखे हो। प्रकृति के इस नजारे को निहारते हुए मैं अपनी धुन में चला जा रहा था कि  कि अचानक मेरी नज़र एक स्त्री पर पड़ी पुरानी सी,गंदी सी  साड़ी पहने सड़क के किनारे बैठी ज़मीन में कुछ खोज रही थी । दूर से देखने पर लग रहा था कि वह मिट्टी में से कुछ खोज रही है किन्तु पास जाकर देखा तो एक पचास-पचपन साल की वृद्ध स्त्री  अरहर की तूड़ी से एक -एक अरहर का दाना चुन-चुन कर एक तरफ इकट्ठा कर रही थी । अपने कार्य में वह इस प्रकार मग्न थी कि मेरे द्वारा यह पूछे जाने पर कि आप यह क्या कर रही हो ? उसने कोई जवाब नहीं दिया । मैंने भी एक -दो बार से ज्यादा उससे नहीं पूछा और मैं अपने कार्य के लिए आगे निकल गया । जैसे -जैसे मैं आगे बढ़ रहा था वैसे-वैसे दिन ढल रहा था प्रकृति की सुंदरता में और निखार आ रहा था । मैं अपनी सैर पर आगे तो जा रहा था किन्तु मेरा मन बार -बार यही देखना चाह रहा था कि जिस स्त्री को अभी-अभी पीछे छोड़कर आया हूँ आखिर वह वहाँ है या नही ? इसी लिए बार-बार पीछे मुड़कर देख लेता था वह स्त्री किसी  मूर्ती के समान बैठी अपने कार्य में मग्न थी । मैं कुछ और दूर तक गया फिर वापस घर की तरफ हो लिया । रास्ते में फिर वही स्त्री सिर नीचा किए तूड़ी से अरहर के दाने चुनने में लगी हुई थी । इस बार मैंने उससे कुछ नही पूछा सीधा घर आ गया ।

   मेरा मन बार-बार यही सोच रहा था कि आखिर वह स्त्री है कौन ? जो इस प्रकार डूड़ी से अरहर के एक -एक दाने चुन रही है। मुझे कुछ सोचता हुआ देखकर मेरी दादी ने मुझसे पूछ ही लिया कि “क्या बात है ? क्या सोच रहा है ?”
मैने कहा कि “पीछे खेतों के पास सड़क पर एक औरत अरहर की तूड़ी से एक-एक अरहर के दाने इकट्ठे कर रही है , मैंने उससे पूछा भी कि वह क्या कर रही है ? लेकिन उसने मेरी तरफ देखा और बिना कोई जवाब दिए वह फिर अपने काम में लग गई कौन है वह ? क्या वह पागल है? या फिर  भिखारिन, जो एक-एक दाना चुनकर इकट्ठा कर रही है ।

 “बेटा न तो वह पागल है न ही भिखारिन । वह औरत बेचारी अपनी किस्मत की मारी और दुनिया की सताई हुई है। इसी गाँव की लड़की है, उसका नाम जाबो है। अपने पड़ौस में ही तो रहती है ,शायद तुझे याद नही । बेटा जब किसी का बुरा वक्त आता है तो ऐसा ही होता है  बेचारी...............।”  दादी ने कहा

“क्या हुआ उसे ?” --मैंने दादी से पूछा

   अब क्या बताऊँ बेटा  उसके बारे में उस बेचारी का एकाद दुख तकलीफ हो तो बताऊँ । बड़ी अभागिन है जब से जन्म लिया है और अब तक बेचारी दुख ही दुख झेलती आ रही है। सुख के चार दिन नसीब होते नही कि फिर से दुखों का पहाड़ बेचारी पर आ पड़ता है। भगवान ने भी तो इसकी तरफ से आँखे फेर रखी हैं । उसे भी तो इस बेचारी पर दया नहीं आती , कितनी ही बार यह मौत के मुँह से बच-बचकर आ गई किन्तु इसे मौत नहीं आई। एक बार जब यह बहुत छोटी थी कुएँ में गिर गई , कम्बख्त कुएँ में गिरी तो थी लेकिन डूबी नही । संजोग से एक आदमी उस कुएँ से पानी भरने के लिए गया तो उसने देखा और शोर मचाया कि एक बच्चा कुएँ में गिरा पड़ा है । उस समय हम लोग अपने खेतों पर ही काम कर रहे थे हम सब लोग उस कुएँ की तरफ भागे वहाँ जाकर देखा तो यही लड़की जिसे तूने अभी सड़क पर अरहर बीनते हुए देखा था,  सीधे पड़ी पानी में तैर रही थी। खेत के आस-पास काम करनेवाले किसानों ने इसे कुंएँ से बाहर निकाला। उस समय सही सलामत बाहर निकल आई।  एक बार यही लड़की नहर में जा गिरी उसमें डूबकर भी यह नहीं मरी नहर में तो कम्बख्त दो दिन तक रेत में दबी रही थी जब गाँव वालों ने नहर का पानी रोका तो देखा कि पुल के ठीक सामने रेत में दबी हुई पड़ी थी फिर भी नहीं मरी । ईश्वर की लीला ईश्वर ही जाने । बता कोई दो दिन तक रेती में दबा रहे और फिर भी जीवित बच जाए? ईश्वर की माया वो ही जाने । ईश्वर अगर इसे तभी उठा लेता तो बेचारी को ये दिन तो न देखने पड़ते । पता नही क्या लिखाकर लाई है कम्बख्त अपने भाग में ….....?

    जब शादी के लायक हो गई तो माँ-बाप ने इसकी शादी कर दी । शादी के बाद लगा कि चलो अब तो बेचारी का घर बस गया अपने घर में सुखी रहेगी किन्तु ऐसा हुआ नहीं । शादी के कुछ साल बाद से ही इस बेचारी पर फिर से मुसीबतों का कहर शुरु हो गया । इसके दो बच्चे हैं एक लड़का और एक लड़की । असल में इसे दौरे पड़ते है । जब इसे दौरे पड़ते है उस समय इसकी हालत बिल्कुल पागलों की सी हो जाती है , बाद में फिर से सामान्य हो जाती है। कुछ दिनों तक इसके ससुरालवालो ने इसे घर में रखा किन्तु बाद  में वे लोग इसे यहाँ इसके माँ-बाप के पास छोड़ गए। तब से यह बेचारी यही रह रही है। पहले तो इसका पति और बच्चे कभी-कभी इससे मिलने आ जाते थे किन्तु अब तो बच्चों ने और पति ने इसकी तरफ से  मुँह मोड़ लिया है। सुना है इसके पति ने दूसरी शादी कर ली है अब वह अपनी नई दुनिया में खुश है । बस दुख तो भगवान ने इस बेचारी के नसीब में ही लिख दिए हैं। बच्चे … हे ! भगवान बच्चों ने भी अपनी माँ से मुँह फेर लिया । एक तो इसके दौरे पड़ने की बीमरी दूसरा अपने पति -बच्चों की इस बेरुखी ने इसे सचमुच पागल जैसा बना दिया है । अकसर यहाँ घर पर आ जाती है खूब ठीक-ठाक बात चीत करती है सबका हालचाल पूछती है । उसे भी अपने बच्चों से मिलने का मन करता है पर क्या करें .......... । जब यहाँ आई थी तब इसके बच्चे छोटे - छोटे थे तभी एक दो बार इसका पति  बच्चों को इससे मिलाने लाया था। उसके बाद कभी नही आया । तबसे बेचारी इसी तरह जी रही है ।

    जब तक इसके माँ-बाप जीवित थे तब तक तो सब ठीक था किन्तु माँ-बाप के गुजर जाने के बाद तो इसकी हालत और खराब हो गई । एक दिन इसके पिता जी साइकिल से जंगल जा रहे थे एक ट्रकवाले ने उन्हें पीछे से टक्कर मारी बेचारे की मौके पर ही  मौत हो गई , इसकी  माँ की मौत भी बड़ी दर्दनाक हुई थी । शर्दियों के दिन थे सभी लोग अपने -अपने घरों में थे जाबो और उसकी माँ जिस घर में रहती थीं उसकी छत घास -फूंस के बनी थी , घर के अंदर शरदी से बचने के लिए इन लोगों ने अलाप जला रखा था अलाप में से एक चिंगारी उस छप्पर में जा लगी , छप्पर था सूखी घास फूंस का जल्दी ही आग पकड़ गया । आग लगने से कुछ समय पहले ही जाबो पानी लेने के लिए नल के पास गई थी जैसे ही वह पानी लेकर वापस आने लगी तो उसने घर में आग को देखा और चिल्लाई  बेचारी..........। घर के अंदर केवल उसकी बूढ़ी माँ थी । जब तक गाँव वालों ने उन्हें बाहर निकाला तब तक वे काफी जल चुकी थी । उनका इलाज भी करवाया किन्तु वे बेचारी ज्यादा दिन तक न जी सकी और जाबो को इस संसार में अकेले जीने के लिए छोड़ गई। वैसेे तो चार-पाँच भाई हैं इसके लेकिन ............ कोई इसे अपने पास रखना  ही नहीं  चाहता अब यह बेचारी कहाँ जाए इसी लिए बेशर्मों की तरह कभी किसी के घर तो कभी किसी के घर में जा रहती है । पहले तो यह जिसके घर में रहती थी उन लोगों का काम भी खूब करती थी , घर का  हो या जंगल का सब के साथ बराबर काम करवाती थी तो इसके भाई भी इसका ख्याल रखते थे  किन्तु आज -कल यह  ठीक तरह से नहीं  रहती घर में कलेश मचाती है। एक दूसरे से तू -तू मैं -मैं मचाती है किसी काम की कहो तो नहीं करती । अब बेटा बिना काम करे तो कोई भी घर में खाली बिठाकर खिलाएगा नहीं? अपने इसी रवैये के कारण यह किसी भी एक भाई के घर में नहीं टिकती । अब तो स्थिति यह है कि कभी एक के घर में रहती है तो कभी दूसरे के घर । जो कुछ मिल जाता है खा लेती है । जिस के घर रहती है उसी का थोड़ा बहुत काम कर देती है । अगर इसका मन है तो वरना यों ही बाहर भटकती रहेगी। जब इसे दौरे आते है तब तो इस की हालत बिलकुल पागलों की सी हो जाती है ,वैसी ही हरकते करने लगती है।

    हम लोग जाबो की बातें ही कर रहे थे कि मेरी नजर दरवाजे पर गई तो देखा कि जाबो घर के मुख्य द्वार पर आती हुई दिखाई दी । उसे घर में आता देखकर मेरे मन में उससे बात करने की लालसा जगी वैसे वह रिश्ते में वह मेरी बुआ लगती हैं। जैसे ही वह हमारे पास आई दादी ने उसे बैठने के लिए स्थान दे दिया और वह वहाँ पर बैठ गई । दादी ने पूछा कि कहाँ से आ रही हो? तो उसने बताया कि वह अभी बाहर घूमने गई थी सो वहीं से आ रही है । उसने मेरी तरफ देखते हुए दादी से धीरे से  पूछा कि “ गि कौन हैं ?” दादी ने उसे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई का बड़ा लड़का । यह सुनकर उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा कि “अरी ! भाभी मेरी तो पेहचान में ही ना आयो” .........यह कहकर उसने मेरा हाल चाल पूछा । मैने भी उन्हें सभी सवालों का जवाब दे दिया । तभी मेरी नज़र उनके पैर पर पड़ी , उनका एक पैर बहुत जला हुआ था । मैने पूछा कि “आपका पैर कैसे जल गया ?

     “अरे! भइया एक दिन गरम -गरम चाय पैर पर गिर गई उसी से जल गया था ।”  उस घाव को देखने से लग रहा था कि वह बहुत  पुराना है। घाव पर मक्खियाँ भी भिनक रही थी । देखने से ही लग रहा था कि उस घाव का उपचार नहीं किया गया है और न ही  किसी भी प्रकार की दवाई ली गई है । पूछने पर पता चला कि उसके पास पैसे न होने के कारण वह डॉ. के पास नहीं जा सकी और न ही कोई दवा ली है । केवल घरेलू उपचार की कर रही है , इसी घाव के कारण वह लंड़ाकर चलती है पर करे क्या ................? वाह ! रे ज़िन्दगी ?

         वह घर पर बैठी अपनी आप बीती बता रही थी , उसकी आप बीती सुनकर मेरी  भी आँखों में आँसू भर आए । वह बता रही थी कि यह जमाना कितना बेरहम है , यहाँ न तो कोई किसी का भाई है ,न ही  कोई किसी का  बेटा सब के सब मतलब के रिश्ते नाते हैं । जब तक तुम ठीक हो तब तक ही सभी रिश्ते नाते होते है यदि तुम्हें किसी की सहायता चाहिए तो इस जमानें में वह आसानी से नहीं मिलती । उसका भी कभी कोई अपना परिवार हुआ करता था , सभी तो थे उस परिवार में पति -पत्नी , दो बच्चे , सास - ससुर  आदि किन्तु आज सभी लोगों के होते हुए भी वह कितनी  अकेली है। जिन बच्चों को जन्म दिया उन्होंने भी उसकी तरफ से मुँह फेर लिया, जिस पति ने अग्नि के सामने सात फेरे लेते समय सात जन्मों तक साथ निभाने का वादा किया था वह भी अपने वादों से इसी जन्म में ही मुकर गया। अपनी नई दुनिया बसाकर खुशी से जी रहा है। अपने बच्चों की याद में यह कितनी ही रातों को जागकर रोती है , रोती है अपनी बेबसी पर , कोसती है अपनी किस्मत को हाय ! भगवान तूने क्यों मुझे ऐसी ज़िन्दगी दी? ऐसी ज़िन्दी से तो तू मुझे मुक्ति क्यों नहीं दे देता । इन लोगों को भी मुझ जैसे बोझ से मुक्ति मिल जाएगी। मुझे मुक्ति मिलते ही इन सभी लोगों को चैन की नींद आएगी ।  हर औरत का सपना होता है कि वह अपने परिवार में रहे , परिवार की मालकिन बनकर उसका अपना हँसता खेलता परिवार हो  लेकिन मैं अभागन परिवार और बच्चों के बारे में भी नहीं सोच सकती । बस दिल के  एक कोने में छोटी सी आस जगाए बैठी है कि एक न एक दिन तो इसके बच्चे इससे मिलने ज़रुर आएंगे । वहा ! रे माँ  की ममता , जिन बच्चों को माँ की फिकर नही उनके लिए भी यह माँ दिन- रात इन्तज़ार करती है। राह पर आने वाले राहगीरों में से अपने बच्चों को खोजती है । एक -एक दिन इसी इंतज़ार में कटता है कि आज न सही  एक न एक दिन तो वो लोग मुझसे मिलने आएंगे । किसी ने सही कहा है कि “जो सम्मान अपने घर में होता है वह बाहर नहीं मिल सकता।” यह दुनिया बड़ी मतलबी है।

    वह एक माँ होते हुए भी अपने बच्चों को देख नहीं सकती ,एक सुहागन है फिर भी अपने पति से मिल नहीं सकती । यह कैसी ज़िदगी है……हे! भगवान अपनो के होते हुए दूसरों  का सहारा ढूंढना पड़ रहा है । एक रोटी के लिए सौ बार अपमान सहना पड़ रहा है। फिर भी ज़िदा है ........? जीवन की एक आस है।  चेहरे पर दिखावे की खुशी ज्यादा देर तक नहीं रहती । शायद वर्षों बीत जाने के बाद भी उसे अपनों के आने का इंतजार है। उसे इंतजार है उनका जिन्होंने उसे मुशीबतों में अकेले दर-दर भटकने, मरने  के लिए छोड़ दिया था । आज भी उसकी ममता इंतजार करती है अपने लाल के दीदार का , आखिर है तो वह भी एक माँ न ........ वाह माँ ! वाह । अपनों के इंतजार में न जाने कितनी ही बार वह छिप-छिपकर रोइ होगी? किस तरह उसने अपने आप को संभाला होगा ? यह तो वो ही जाने पर उसकी सूनी आँखों मे अपनों के आने का इंतजार आज भी साफ-साफ देखा जा सकता है। 

          जाबो की कहानी सुनते -सुनते शाम हो चुकी थी । ऐसा लग रहा था मानो सूरज भी उस दुखिया के दुख से दुखी होकर आसमान के किसी कोने में छिप जाना चाह रहा हो। पक्षी अपने- अपने घरों को लौट रहे थे । जैसे -जैसे शाम हो रही थी जाबो के मन में एक द्वंद्व चल रहा था कि आज  किसके घर जाकर खाना खाए....। सूरज पूरी तरह आसमान की गोद में समा चुका था । अंधेरे होते ही जाबो एक ठंडी सांस लेते हुए उठी और चल दी । ऐसा लग रहा था मानो वह खुश है यह सोचकर कि चलो और एक दिन ज़िन्दगी का कट गया । रात का अंधेरा धीरे-धीरे बढ़ता गया जैसे- जैसे अंधेरा बढ़ रहा था वैसे-वैसे गाँव में सन्नाटा भी बढ़ रहा था । जाबो जा चुकी थी लेकिन उसकी बातें और कभी न  खत्म होने वाला इंतजार जारी है................... वहा ! रे ज़िदगी ।

Wednesday, October 7, 2009

IB Profiles (रूपरेखा) For IB Students and Teachers

                                Profiles/रूपरेखा

1. जिज्ञासु :( Inquirer) विद्यार्थी में अज्ञात विषय जानने ,समझने तथा पढ़ने की उत्कंठा का
होना आवश्यक है। जिन विद्यार्थियों मे अज्ञात विषय को जानने की
लालसा होती है वे ही उस विषय को सीख पाते हैं।

2. सुविज्ञ :(Knowledgeable)  विद्यार्थी में भाषा सीखने और उसे अपने व्यवहार में लाने की उत्सुकता
का होना अतिआवश्यक है।सीखे हुए ज्ञान को अपने व्यवहारिक जीवन में
लाने से ही विषय का ज्ञान बढ़ता है।


3. विचारक :(Thinkers) विद्यार्थी को यदि भाषा सीखनी है तो उसे दूसरों पर निर्भर न रहकर
स्वयं को स्वावलंबी बनाना होगा। स्वावलंबी विद्यार्थी ही भाषा की
बारीकियों को सीख सकता है।

4. संचारक: (Communicators) भाषा शिक्षण में विचारों के आदान-प्रदान हेतु संप्रेषण कौशल का होना
अनिवार्य है।


5. सिद्धान्तवादी :( Principled) विद्यार्थियों को यदि भाषा सीखनी है तो उन्हें भाषा - शिक्षण
सिद्धान्तों का पालन करना होगा। भाषा शिक्षण के सिद्धान्तों के पालन
से भाषा शिक्षण और निखरता है।

6. उदार ह्रदयी बनें : (Open minded)विद्यार्थियों को यदि भाषा सीखना है तो उन्हें समय -समय पर
एक दूसरे के साथ बिना किसी संकोच के एक दूसरे के साथ
विचार विमर्श करते रहना चाहिए ।


7. स्नेह्रदयी बनें :( Caring)  भाषा सीखने वालों को सदा प्रोत्साहित करें उन की त्रुटियों पर व्यंग
न करें बल्कि उन्हें सुधारने का प्रयास करते रहें । स्नेह और
प्रोत्साहन से कोई भी कठिन से कठिन भाषा भी सीखी जा सकती
है।

8. संकट -संघर्ष : (Risk -Taker)विद्यार्थी को भाषा अध्ययन में आए संकटों का सामना करने पर ही
भाषा का उचित ज्ञान प्राप्त होगा।

9. सुसंतुलित : ( Balanced )विद्यार्थी को भाषा शिक्षण में समस्त कौशलों का संतुलन बनाए रखना
अत्यावश्यक है। सभी प्रकार के कौशलों के प्रयोग से भाषा शिक्षण
निखरता है।

10. आत्मनिरीक्षण : ( Reflective )विद्यार्थियों को समय-समय पर स्वयं ही निष्पक्ष रूप से अपने
ज्ञान का निरीक्षण करते रहना चाहिए। स्वयं निरीक्षण से विद्यार्थी
अपना भाषा कौशल सुधार सकते हैं।

Tuesday, October 6, 2009

"सब मिलकर पेड़ लगाएँ"

आओ साथी सब मिलकर पेड़ लगाएँ, बड़े प्यार से पेड़ लगाएँ

पेड़ों की हरियाली से इस जग को नहलाएँ
आओ साथी सब मिलकर पेड़ लगाएँ।।


पेड़ों की इस हरियाली से प्रदूषण को दूर भगाएंगे

प्रदूषण को दूर भगाकर नया संसार हम बनाएंगे

हरियाली की शोभा चारों दिशाओं में फैलाएंगे

भारत की इस पावन भूमि को हम स्वर्ग बनाएंगे

आओ साथी सब मिलकर पेड़ लगाएँ, बड़े प्यार से पेड़ लगाएँ।।


आनेवाली नई पीढी को तुम हरा -भरा संसार देते जाना

अगर न होंगे पेड़ और पौधे तो सोचो क्या होगा इस धरती का

अगर न होंगे पेड़ इस धरती पर तो हो जाएगी यह शमशान

शमशान न होने देंगे इस धरती को , रहते अपनी जान के

आओ साथी सब मिलकर पेड़ लगाएँ, बड़े प्यार से पेड़ लगाएँ।।


यदि लगाओगे तुम एक-एक पौधा तो धरती पर बढ़जाएगी हरियाली

पेड़ लगाकर ला सकते हैं हम प्रकृति संतुलन को वापस

वैसे तो एक पेड़ भी हरता है प्रकृति का प्रदूषण सारा

लेकिन हिलमिल कर रहने से और भी बढ़ जाएगी हरियाली

आओ हम सब मिलकर यह प्रण ले कि जीवन के इस आधार को मिटने न देंगे।

हरी -भरी धरती पर ही होंगी खुशहाली चारो ओर

कण-कण देगा तुम आशीश ,जीवन की खुशहाली में

पेड़ों की हरियाली से ही जीवन की खुशहाली होगी

आओ हम सब मिलकर यह प्रण ले कि जीवन के इस आधार को मिटने न देंगे।

Monday, October 5, 2009

IB Students Attitudes विद्यार्थी रवैया / (For IB Students and Teachers)

                                                     Attidudes   रवैया


1. आत्मविश्वास: ( Confidence) विद्यार्थियों को सदैव अपने कार्य के प्रति आत्मविश्वासी होना चाहिए। आत्मविश्वास ही सफलता की पहचान है। आत्मविश्वासी विद्यार्थी ही जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर पाता है।



2. सहायक :( Cooperative) विद्यार्थियों को सदैव बिना किसी भेद-भाव के एक दूसरे का सहायक होना चाहिए। एक दूसरे की सहायता से विद्यार्थी कठिन से कठिन कार्य को भी सरल बना सकते हैं ।



3. सम्मान :(Respect)  विद्यार्थियों को सदैव दूसरों का सम्मान करते हुए ज्ञानार्जन करना चाहिए। जो विद्यार्थी सदैव दूसरों का सम्मान करते हैं ,दूसरे भी उनका उतना ही सम्मान करते हैं।



4. सहनशीलता :(Tolerance) विद्यार्थियों को सदैव अपने अंदर सहनशीलता का विकास करना चाहिए। कठिन परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए। किसी भी प्रकार की असफलता से निराश न होते हुए अपने आपको मजबूत और सहनशील बनाना चाहिए।



5. स्वतंत्र :(Independence) विद्यार्थियों को सदैव अपने ज्ञान का आदान प्रदान स्वतंत्र रूप से एक -दूसरे के साथ करते रहना चाहिए। स्वतंत्र रूप से ज्ञान के आदान-प्रदान से ज्ञान में वृद्धि होती है।



6. ईमानदारी :(Integrity) एक आदर्श विद्यार्थी को सदैव ईमानदारी के साथ अपना कार्य करना चाहिए। एक ईमानदार विद्यार्थी ही अपने ज्ञान का सही उपयोग कर सकता है। विद्यार्थियों को सदैव अपने और अपने ज्ञान के प्रति ईमानदार होना चाहिए। जीवन में सदैव सत्यता के मार्ग पर चलते हुए ज्ञानार्जन करना चाहिए।



7. सहानुभूति :(Empathy) विद्यार्थियों में सहानुभूति का गुण होना बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि सहानुभूतिपूर्ण विद्यार्थी सदैव अपनी समस्याओं का समाधान एक -दूसरे के सहयोग से पा लेता है।



8. उत्सुकता :(Enthusiasm) विद्यार्थियों में सदैव नए विषय को जानने की उत्सुकता होनी चाहिए। उत्साही विद्यार्थी ही अपने ज्ञान में वृद्धि करता है।



9. रचनात्मकता : (Creativity)विद्यार्थियों को ज्ञान प्राप्ति के लिए नए-नए रचनात्मक तरीकों को निरंतर अपनाते रहना चाहिए और इस प्राप्त ज्ञान कोे रचनात्मकता के आधार पर दूसरों के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिए।



10. जिज्ञासा :(Curiosity) विद्यार्थियों में सदैव अज्ञात विषय को जानने की जिज्ञासा होनी चाहिए। अज्ञात विषय को ज्ञात करने से ही ज्ञान में वृद्धि होती है। विद्यार्थी को सदैव जिज्ञासु बने रहना चाहिए।





11. सराहना : (Appreciation)विद्यार्थियों को सदैव एक - दूसरे के कार्यों को समय -समय पर सराहते रहना चाहिए। सराहना से ही विद्यार्थियों में कार्य करने की क्षमता का विकास होता है, और उनके मनोबल में भी वृद्धि होती है।



12. वचनबद्धता :( Commitment) विद्यार्थियों को सदैव अपने कार्य एवं जिम्मेदारियों के प्रति वचनबद्ध रहना चाहिए। वचनबद्ध विद्यार्थी सदैव अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है।

हिंद देश के निवासियो

हिंद देश के निवासियो सुनो ज़रा


क्या कह रही है माँ वसुंधरा पुकार कर।

देश है बांटा , जात है बांटी

बांट लिया धर्म और ईमान को

मत बांटो अपने आप को धरम और ईमान के नाम पर

कहता नहीं धर्म कोई भी कि बांटो तुम इन्सानों को

सभी धर्मों का एक की सार,मानव का हो मानव से प्यार

मत बांटो इन्सानों को धर्म और ईमान के नाम पर।।


                न रोको जीवन की इस पावन धारा को

                मानव सेवा ही है माधव सेवा समझो इस बात को

                सरिता करती कभी न भेद अपना जल देने में

               सूरज करता कभी न भेद अपनी रोशनी देने में

                न किया कभी चाँद ने भेद चाँदनी देने में

                फिर क्यों करते हो तुम भेद इन्सानों में

               मत बांटो इन्सानों को धर्म और ईमान के नाम पर।।


न रंगो माँ वसुंधरा के तन को उसी के सपूतों के लहु से

बेटे चाहे कितने भी हो सब होते हैं माँ को प्यारे

करती कभी न भेद माता अपने बच्चों में

फिर क्यों करते हो तुम भेद इन्सानों में

मत बांटो इन्सानों को धर्म और ईमान के नाम पर।।


              हिन्दु, हो या मुस्लिम, हो या हो सिख, ईसाई

              लहु-लहु में कोई भेद नहीं सब के सब है भारतवासी

             भारतीयता हो हमारी पहचान भारत माता है हमारी शान

             हिंद देश के निवासियो सुनों जरा

             क्या कह रही है माँ वसुंधरा पुकार कर।।

Thursday, October 1, 2009

भारत देश हमारा

सबका प्यारा सबसे न्यारा भारत देश हमारा
मस्तक हिमराज विराजे इसकी शान निराली है।
कण-कण में है सोना , खेतों में हरियाली है
भारत देश है सबका प्यारा ,इसकी शान निराली है।।
हरा भरा है आँगन इसका,घर-घर में खुशहाली है
जन्में इसकी मिट्टी में गाँधी ,नेहरू और सुभाष हैं।
जन्मी इसी मिट्टी में लक्ष्मीबाई महान हैं
देकर अपनी जान की बाजी , दी हमको आजादी महान है।
सबका प्यारा सबसे न्यारा भारत देश हमारा।।
भिन्न -भिन्न है भाषा इसकी , भिन्न- भिन्न हैं बोली
भिन्न -भिन्न है जाति धरम पर सबकी एक ही अभिलाषा है
भिन्नता में एकता ही जिसकी पहचान है
एक ही माटी एक ही गुलशन क्यारी जुदा -जुदा है
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान महान है,हम इसकी संतान हैं।।
जन्म लिया है इस मिट्टी में ,पले बड़े हुए हैं इसकी गोद में
आंच न आने देंगे इसकी शान पर,रहते अपनी जान के
जान भले ही चली जाए, पर जाने न देंगे इसकी शान को
ऊँच-नीच और जात -पांत का भेद मिटाकर रखेंगे इसकी शान को
सबका प्यारा सबसे न्यारा भारत देश हमारा।।

Wednesday, September 30, 2009

वक्त

कहते हैं हर मर्ज की दवा कर देता है वक्त
एक बार गए लोगों को भुला देता है वक्त ।
जब दोस्ती की कोई भूली दास्तान सुनाएगा वक्त
हमें भी कोई अपना शक्श याद आएगा उस वक्त
जीवन के हर गम को हम भूल जाएंगे
जब दिल को याद तुम्हारी आएगी
वक्त से हाल तुम्हारा जान लेंगे।
दिल की यादों में तुम्हें बसाकर रखा है
जब -जब याद तुम्हारी आएगी
छूकर तुम्हें आई हवा से हाल तुम्हारा जान लेंगे
पाकर स्पर्श उस हवा का
तुम्हारे पास हेने को महसूस करेंगे।
जब साथ गुजारे पल जब याद आएं
तो आँखे अपनी बंद कर याद मुझे कर लेना
हर सांस बनकर साथ तुम्हारे हो लुंगा
अगर इतना भी न कर सको तो
अपने होठों पर एक मुस्कान ला देना ।
तुम्हारी एक मुस्कराहट बनकर साथ तुम्हारे हो लुँगा।
मत सोचो कि साथ है कितने दिन का
साथ नहीं जीवन भर का ,न सही
जीवन साथ न गुजार सके तो क्या
इस पल को तो तुम्हारे साथ जी लेने दो।
अगर दे सकूं कोई मुस्कराहट तुम्हें जीवन में
जीवन का क्या भरोसा , आज यहाँ तो कल कहाँ
कल की बात को तुम कल में ही रहने दो
आज के वक्त को तो साथ जी लेने दो
कल न जाने ये वक्त कहाँ ले जाए
आज तो हँसकर जी लेने दो।

Tuesday, September 29, 2009

"एक माँ ऐसी भी"

माँ शब्द सुनते ही हमारे सामने एक ममतामयी मूर्ति का रुप उभरकर सामने आ जाता है । ईश्वर ने सृष्टि की रचना की थी तब उसे अहसास हुआ कि मैं अपनी सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के पास नहीं जा सकता , उसकी सहायता नहीं कर सकता इसीलिए उसने माँ को बनाया । जो कार्य ईश्वर नहीं कर पाया उसे माँ करती है । माँ गीले में सोकर अपने बच्चों को सूखे में सुलाती है । स्वयं भूखी रहकर बच्चों का पेट भरती है । माँ की ममता का कर्ज मनुष्य जीवन भर नहीं चुका सकता । माँ को कितने भी बच्चे क्यों न हों वह कभी अपने बच्चों में कोई भेद - भाव नहीं करती । उसके लिए तो सभी बच्चे समान होते हैं। शायद इसीलिए कहा जाता है कि “पूत कपूत हो सकते हैं लेकिन माता कभी कुमाता नहीं हो सकती लेकिन .......।”
मैं घर में बैठा था कि फोन की घंटी बजी। मैंने फोन उठाया –‘हैलो’
‘हैलो -भैया’
‘हाँ , सुमन,कैसी है?
‘हाँ ठीक हूँ’। ‘घर में सब ठीक हैं?’ ये शब्द सुनकर सुमन का गला भर आया । भरे गले से बोली ‘हाँ ,सब ठीक है।
मुझे उसकी आवाज में किसी दुख की दस्तक सुनाई दे रही थी । मैंने उससे फिर पूछा -
‘सुमन, क्या बात है?
‘कुछ नहीं। बस, ऐसे ही आप लोगों से बात करने का मन कर रहा था इसलिए फोन कर लिया।’
उसकी आवाज उसके शब्दों का साथ नहीं दे रही थी । लग रहा था कि अवश्य कोई घटना घटित हुई है जिसे वह बता नहीं रही है।
मैंने फिर पूछा, ‘सुमन आखिर बात क्या है तुम उदास सी क्यों लग रही हो?’
‘नहीं, भैया। ऐसी कोई बात नहीं है।’
‘अरे! ऐसी नहीं तो कैसी बात है ? आखिर बात क्या है ? बात तो बता । सुनकर सुमन रो पड़ी ।
मैंने कहा – ‘अरे पगली बात क्या है तू रो क्यों रही है ?’
‘क्या बताऊँ भैया ? बात ही कुछ ऐसी है।’
‘इधर -उधर की बातें क्यों कर रही है ? साफ-साफ बता आखिर बात क्या है ?’
‘आज शाम दिनेश के पापा (सुमन का पति) और उनके भाईयों में आपस में झगड़ा हो गया ।’
‘किस बात पर ?’ मैंने पूछा
‘बात क्या ! एक तो हमारी चीज़ ले जाते हैं और वापिस लाकर भी नहीं रखते । उनसे माँगो कि भाई फलाँ चीज़ कहाँ है तो कोइ सीधे मुँह जवाब ही नहीं देता ,सीधे लड़ने को आते हैं। कल शाम की ही बात है दिनेश के पापा खेत जोतने जाने वाले थे । ट्रैक्टर की साहिल की कड़ी दिखाई नहीं दे रही थी , उन्होंने अपने भाईयों से पूछा तो उन्होंने उलटा -सीधा जवाब दिया । इसी बीच उनके बीच कहा- सुनी हो गई। कहा-सुनी तक तो ठीक था , लेकिन बात कहा -सुनी से लड़ाई तक आ गई । वे तो तीनो-चारो भाई एक हो गए और हम अकेले । आपस में खूब लड़ाई हुई ,तीनों- चारोंे भाईयों ने मिलकर इन्हें खूब मारा है। सिर में चोट लग गई है । खूब खून बहा है ।’
‘आखिर जरा सी बात के लिए लड़ने की क्या ज़रूरत थी ?’
‘अब क्या बताऊँ भैया जब से हमारा बुड्ढा (ससुर) मरा है ,तब से लेकर अब तक ये लोग सारे खेतों को जोतते - बोते आ रहे हैं । जो खेत हमारे हिस्से में आने थे, उन्हे भी ये ही लोग जोतते -बोते आ रहे हैं । हमारे हिस्से के खेतों को भी हमें नहीं दे रहे हैं । बुड्ढे ने अपने जीते जी जो कुछ सामान था इन सब में बांट दिया था ,हमारे हिस्से में ट्रैक्टर और उसकी मशीनरी हमारे (दिनेश के पापा ) के नाम की थी । जब तक बुड़ढा जिन्दा था सबने इस ट्रैक्टर की खूब ऐसी - तैसी की , बुड्ढेे के मरने के बाद जब ट्रैक्टर खराब हो गया तो सब ने उसे खटारा कहकर बेचने की बात शुरू कर दी दिनेश के पापा ने जब यह सुना तो साफ मना कर दिया ‘मैं ट्रैक्टर नहीं बेचने दूँगा ।’ इस पर उनके भाई कहते हैं – ‘बेचेगा नहीं तो इसे बनाने के लिए तेरे पास पैसे हैं क्या ? आया बड़ा नहीं बेचने वाला । इस खटारा को बेचकर दूसरा नया ट्रैक्टर लेंगे।’ ‘नहीं, मैं इसे नहीं बेचने दूँगा । भले ही आज मेरे पास पैसे हो या न हों ,भले ही यह खटारा बनकर ही क्यों न खड़ा रहे , मैं इसे नहीं बेचने दूँगा ।’
तेरी सास कुछ नहीं कहती ? वह नहीं समझाती उन सब को ? मैंने पूछा।
‘हूं ! सास ? सास ही तो इन सब फसादों की जड़ है। यह सब उसी का किया -कराया तो है । वही तो नहीं चाहती कि हम शांति से जीएं।’
‘क्या बात कर रही हो ?’
‘हाँ भैया ! मैं सच कह रही हूँ । आज - कल वह मझले बेटे के पास रह रही है । उसी ने उसके कान भर रखे हैं । एक तो वे लोग और दूसरी सास ये ही तो नहीं चाहते कि हम सुख-शांति से जीएँ । आजकल सभी हमारे खिलाफ हो रखे हैं ।
‘ये सब तुम लोगों के खिलाफ क्यों हो रखे हैं ?’ मैने पूछा
हम उनके सामने हाथ नहीं फैलाते । उनके सामने छोटी- छोटी चीज़ के लिए नहीं जाते । उन्हें इस बात का ज्यादा मलाल है कि हमने ट्रैक्टर बेचने नहीं दिया। उन्हें दिन-रात इसी की जलन रहती । एक दिन तो खुद मेरी सास ही कह रही थी कि इस ट्रैक्टर को बेच कर दूसरा कोई नया ट्रैक्टर ले लो । दिनेश के पापा ने साफ मना कर दिया कि मैं इसे नहीं बेच रहा । अक्सर इसी ट्रैक्टर के पीछे चारोंे - पांचों भाईयों मे कुछ न कुछ कहा सुनी होती रहती है ।
उस शाम इसी ट्रैक्टर के लिए चारो-पांचों भाइयों में कहा सुनी हो गई , दिनेश के ताऊ कहा सुनी से गाली - गलोज पर उतर आए – “अरे कुत्ते तू तो हमारे खानदान में एक धब्बा है, धब्बा । तू तो किसी अनसूचित जाती का बीज है ।” नालायक को जरा भी शरम हया नहीं है।
‘यह सब सुनकर तेरी सास ने कुछ नहीं कहा ?’ - मैने पूछा
‘नहीं , भैया उस बेशरम को अगर थोड़ी बहुत भी शरम होती तो वह तभी अपने बेटे को रोककर कहती कि आखिर तू कह क्या रहा है, गाली किसे दे रहा है, अपने भाई को या मुझे,मेरे चरित्र को ?’
‘यह तो बड़ी शरम की बात है कि तेरी सास यह सब चुपचाप बैठी सुन रही थी । उसे जरा भी अहसास नहीं हुआ कि आखिर ये कह क्या रहा है।’ इससे बड़ी शरम की बात और क्या होगी कि उसी का बेटा, उसी के बेटे को अप्रत्यक्ष रूप से नाजायज ठहरा रहा है और वह बैठी - बैठी चुपचाप सुन रही है- मैने कहा
‘उसे तो दिनेश के पापा से तनिक भी लगाव नहीं है । जब से मैं इस घर में ब्याह कर आई हूँ तब से तो मैं यही देखती आ रही हूँ। मेरी सास को अपने अन्य बेटों से अधिक लगाव है ,वह सदैव उन्हीं का साथ देती है, भले वे गलत ही क्यों न हों । जब से ससुर मरे हैं सब ने अपने - अपने हिस्से के खेत बांट लिए है लेकिन जो हमारे हिस्से में आने वाले हैं वे भी हमें नहीं मिले है, उन्हें भी वे ही लोग जोतते -बोतेे हैं , हमारे हिस्से के खेतों को भी हमें नहीं दे रहे हैं । इतना सब कुछ होने पर भी हमने कभी भी उन लोगों से जाकर अपना हिस्सा नहीं माँगा , कहने को तो इतना बड़ा घर है लेकिन हम एक छोटे से कमरे में अपने बच्चों को लेकर रह रहे हैं । हमने उन लोगों से कभी कोई शिकायत नहीं की ,यही सोचकर संतोश कर लेते हैं कि आप लोग जिस में खुश रहें वैसा ही ठीक है। हम दिन -रात कमर तोड़ मेहनत करके एक -एक पैसा कमाते हैं , वह भी उनकी नजरों में खटकता है। दूसरों की कमाई हजारो - लाखों की है वह किसी को दिखाई नहीं देती । दिखता तो केवल हमारा कमाना है.............. । हमारे भी बच्चे हैं । हमें भी अपने बच्चों के भविष्य को बनाना है उन्हे अच्छी शिक्षा दिलवानी है , उसके लिए हम लोग दिन- रात मेहनत करते हैं । यह सब उनकी आँखों में खटकता है कि इसके बच्चे अच्छे स्कूल में क्यों जा रहे हैं ? क्यों ये लोग हमारे सामने भीख नहीं माँगते ? क्यों नहीं आते हर चीज़ माँगने के लिए ? आखिर इन लोगों के पास इतना पैसा कहाँ से आ रहा है जो ये लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढने भेज रहे हैं ।’
“तो ,उन्हें इन सब बातों से क्या करना ?” मैने पूछा
“करना - करना क्यों नहीं है ? वे चाहते हैं कि हम सदा उनकी जूतियों के नीचे दबे रहें । वे लोग जो कहे, जैसा कहें यदि हम वैसा करते हैं तब तो सब कुछ ठीक है । नहीं तो हम नालायक है , कुत्ते हैं , किसी अनसुचित का बीज हैं ।”
“यह तो कोई बात नहीं हुई कि वे जैसा कहें तुम वैसा ही करो, यह तुम लोगों की निजी ज़िन्दगी है, तुम जैसा चाहो वैसे रहो ,उन्हें तुम लोगों की निजी जिन्दगी में दखल देने का क्या अधिकार ? तुमने कभी अपनी सास से इस बारे में बात नहीं की कि माँ ये लोग हमारे साथ क्यों इस तरह का व्यवहार करते हैं । हम भी तो आप ही के बच्चे हैं । जैसे वे आपके हैं । आप क्यों यह अन्याय होते हुए देख रही हैं?” मैने कहा
“भैया उनसे मैंने कई बार बात की, उन्हें सदा हमारी ही गलती नज़र आती है, वही नहीं चाहती कि हम सुख-शांति से जिएं । बात-बात पर ताने मारती है । हमेशा जली - कटी सुनाती रहती है। उसे न तो हमसे कोई लगाव है न ही हमारे बच्चों से । वह तो हमारे बच्चों तक को कोसती रहती है। हमारे बच्चे तो उसे फूटी आँख नहीं सुहाते । दूसरों के बच्चों को तो दिन-रात लाड़ लड़ाती रहती है और हमारे बच्चों को......................?”
“यह तो बड़ी अजीब बात है कि कोई माँ अपने बच्चों में इतना फर्क कर सकती है। अब तक तो सुना था कि माँ अपने बच्चों में कोई फर्क नहीं करती । भले ही वह किसी बच्चे को ज्यादा लाड़ लड़ाती है लेकिन यदि कोई उसके बच्चों को मारे -पीटे तो वह शेरनी के समान उसका मुकाबला करने लग जाती है । लेकिन तुम्हारे घर की तो अजब कहानी है। ठीक है भाई-भाई में नहीं बनती ; यह कोई नई बात तो है नही यह तो सदा से ही होता आया है । लेकिन एक माँ को ऐसा करना कदापि शोभा नहीं देता ।”
“जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं लेकिन उसकी अकड़ इतनी कि नाक पर मक्खी तक नहीं बैठने देती । रस्सी जल गई पर बल नहीं गए । आज भी उसकी अकड़ वैसी ही है । जिस उम्र में उसे ईश्वर का भजन -ध्यान करना चाहिए , उस उम्र में वह ज़मीन जायदाद का हिसाब लगाने में लगी हुई है..... दिनेश के ताऊओं ने उसे उलटी सीधी पट्टी पढा रखी है , वे लोग ही हमारे खिलाफ उसके कान भरते रहते हैं । वे लोग चाहते हैं कि किसी न किसी तरह इसके हिस्से की ज़मीन जायदाद भी हमें ही मिल जाए। पता नहीं यह दुनिया और कितने इम्तहान लेगी । सुख का एक निवाला मिलता नहीं कि दुख पहले से ही तैयार खड़ा रहता है । मैं यहाँ किस तरह दिन काट रही हूँ यह मुझे ही पता है, दिन -रात यही कलेस लगा रहता है, एक तो हम अपनी परेशानी से परेशान रहते है ऊपर से ये लोग हमें चैन से जीने भी नहीं देते । पिछली महीने जब इन चारों - पाँचों भाईयों में लड़ाई हुई थी , उस लड़ाई में दिनेश के पापा के सिर में गहरी चोट लगी थी , खूब खून बहा था । जब हम पुलिस में शिकायत करने गए तो पहले तो पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की जब हम लोगों ने कुछ कठोरता दिखाई तब जाकर पुलिस आई और उन्हें गिरफ्तार करके तो ले गई । दूसरे दिन वे लोग वहाँ से छूटकर लौट आए । तभी से वे लोग इस का बदला लेने के मौके की तलाश में बैठे है कि कब मौका मिले और हम अपने अपमान का बदला लें । वे लोग अपनी चीज का इस्तमाल तो करते नहीं हैं, हमारी चीजों के पीछे पड़े हैं उन्हें तोड़ते रहते हैं । इसके लिए उनसे कुछ कहो तो हमें ही उलटी सीधी सुनाने लगते हैं , और हम कुछ कह दे तो फिर वही खून खराब हो ।” हम तो......
“यह तो बड़ी शर्म की बात है कि भाई - भाई के मुँह का निवाला छीनने को तैयार बैठा है। यह सब देखकर तेरी सास ने कुछ नहीं जब दिनेश के पापा के सिर में चोट लगी थी , उसने उन लोगों को ऐसा करने रोका नहीं ।” मैने कहा
मेरी सास ? हुम वह तो आराम से खाट पर बैठी यह सब तमाशा देख रही थी । उसकी बला से ! हम कल की बजाय आज ही मर जाएँ । उसे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता । हम मरे या हमारे बच्चे मरे उसे इस सब से कोई फर्क नहीं पड़ता । उसे हमसे या हमारे बच्चों से कोई मोह नहीं । उसके लिए तो हम मरे समान ही हैं।
यह सुनकर मेरे मन में उस माँ के प्रति घृणा का भाव भर गया । मैं थोड़ी देर सोचने लगा कि इन्सान कितना स्वार्थी है । इससे तो जानवर भी अच्छे हैं । कम से कम वे अपनी संतानों में फर्क तो नहीं करते । तभी दूसरी तरफ से आवाज आई “हैलो - भैया , क्या हुआ ? क्या सोचने लगे?”
“कुछ नहीं , बस तेरी सास के बारे में सोच रहा था कि क्या कोई माँ ऐसी भी हो सकती है ।”
“भैया उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता, फर्क उन्हें पड़ता है जिन्हें अपने बच्चों से मोह होता है, जब उसे हमसे कोई मोह ही नहीं है तब उसे हमारे जीने या मरने से क्या फर्क पड़ता है। अच्छा अब मैं फोन रखती हूँ ।”
अच्छा ठीक है ।
फोन रखने के बाद मैं बार-बार यही सोच रहा था कि क्या माँ ऐसी भी हो सकती है। हाँ भाई भाई के बारे में तो अक्सर सुना था लेकिन माँ अपने बच्चों में इतना फर्क कर सकती है, यह बात मेरे लिए चौकानेवाली थी । मैं सारी रात यही सोचता रहा......................?
एक सप्ताह के बाद फिर फोन की घंटी बजी। इत्फाक से फोन मैंने ही उठाया ।
“हैला”े “हैलो”
“कौन ? सुमन; कैसी है ? सब कैसे हैं ?”
“भैया .............................?”
“क्या हुआ ? रोने की आवाज सुनाई देने लगी ?
“सुमन क्या हुआ ? तू रो क्यों रही है ?”
“बात क्या है ? तू रो क्यों रही है ?”
“भैया मेरी सास ने ..........”
“अब क्या हुआ तेरी सास को ?”
“मेरी सास ने हमें अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया है।”
क्या …? क्या कहा?
“हाँ भैया ।”
कल अखबार में दिया था कि “मैं अपने पुत्र रमेश को उसके व्यवहार और चाल-चलन ठीक न होने के कारण अपनी जमीन जायदाद से बेदखल करती हूँँ।”
“ऐसा कैसे कर सकती है वह ?” मैने कहा
“कर नहीं सकती , उसने कर दिया है । यह सब किया कराया उसका नहीं बल्कि उसके बड़े बेटों का है ,भला बुढिया पढ़ नहीं सकती , लिख नहीं सकती उसे इस बात की क्या जानकारी कि अखबार में किस प्रकार इश्तहार दिया जाता है। उन कमीनों ने ही यह सब करवाया है ,उन्होंने ही हमारे पेट पर लात मारी है, वे लोग यही तो चाहते थे कि हमारे हिस्से की जमीन जायदाद उन्हे मिल जाए ।”
यह कहते -कहते वह रोने लगी ।
“अरे पगली, तू रोती क्यों है ? अभी तेरा भाई,तेरे पापा जीवित हैं । हमारे रहते तुझे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं । ज़मीन जायदाद से ही बेदखल किया है? तुम्हारी किस्मत से तो नहीं इंसान को कभी भी जीवन में निराश नहीं होना चाहिए। तू चिंता मत कर । तू रो मत। तू क्यों चिंता कर रही है जरा सोच जिन लोगों के पास जमीन नहीं होती क्या वे लोग नहीं जीते । तू अपने आप पर भरोसा रख । जो लोग दूसरों को दुख देकर अपने आप को सुखी बनाने की सोचते हैं , वे कभी सफल नहीं हो पाते । उन्हें अपने कीए का फल इसी संसार में मिल जाता है । तू भगवान पर भरोसा रख । दूसरों की बददुआ लेकर वे कभी सुखी नहीं रह सकते ।” मैने कहा
“भैया इन्होंने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा । कहकर वह फफक-फफकर रोने लगी ।”
“अरे पगली तू रोती क्यों है ? तू चिंता मत कर हम हैं न ? जब हम तेरी तरफ से मुँह मोड़ ले , तब तुझे चिंता करने की जरूरत है । बस अब तू चुप हो जा । सब ठीक हो जाएगा ।”
मैं उसे देर तक समझाता रहा , दिलासा देता रहा अंत में कहा “अच्छा ठीक है ....अब फोन रख । देख ..रोना नहीं तू तो मेरी बहादुर बहन है ना । जीवन में सुख - दुख तो आते ही रहते हैं । जीवन में कभी भी हार नहीं माननी चाहिए।.........और फिर हम हैं न...ठीक है ।”
“अच्छा ठीक है ....मगर .............?”
“मगर - वगर कुछ नहीं ? खाना बना लिया या नहीं ?”
“नहीं , अभी नहीं बनाया ?”
“तो क्या बच्चे अभी तक भूखे हैं ?”
“नहीं बस अभी बना लेती हूँ ।”
“अच्छा चल पहले खाना पका और बच्चों को खिला । तुम लोग भी खा लो । ठीक है । चिंता नहीं करना .... सब ठीक हो जाएगा ।”
यह कहकर मैंने फोन रख दिया । बार-बार मेरे मन में एक ही सवाल उठ रहा था कि क्या माँ ऐसी भी होती है ?.....और सारी रात यही सोचता रहा , आखिर उसने ऐसा क्यों किया केवल जायदाद के लिए या फिर किसी और .... पता नहीं बार-बार दिल में यही सवाल उठता है कि यह कलियुग है, और इस कलियुग में शायद यह सब संभव हो सकता है। जो माँ अपने बेटे का खून देखकर भी विचलित न हो , उसे क्या कहेंगे ? यही मेरी समझ में नहीं आ रहा । इसे मैं माँ की बेटे के प्रति घृणा कहूँ या कुछ और ............?