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Tuesday, November 3, 2009

हास्य-व्यंग्य : सैद्धांतिक पीठिका

अध्याय - 1
हास्य-व्यंग्य : सैद्धांतिक पीठिका
1. भूमिका
2. हास्य-रस का स्वरूप
3. व्यंग्य : व्युत्पत्ति और अर्थ
4. व्यंग्य का स्वरूप
अ) भारतीय दृष्टिकोण
आ) पाश्चात्य दृष्टिकोण
5. व्यंग्य का प्रयोजन
6. व्यंग्य के प्रकार
7. हास्य, उपहास, परिहास और व्यंग्य (समानता और असमानता)
8. हास्य व्यंग्य के उपकरण
9. व्यंग्य : विधा या शैली
10. निष्कर्ष


हास्य-व्यंग्य : सैद्धांतिक पीठिका
1. भूमिका
आधुनिक साहित्य में व्यंग्य की प्रधानता के कारण इसका स्वतंत्र साहित्यिक विधा के रूप में अध्ययन किया जाने लगा है। इसे एक शैली या आध्यात्मिक प्रणाली के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। व्यंग्य को हिंदी में आधुनिक विधा माना जाता है।

व्यंग्य के संदर्भ में उसके वैशिष्ट्य, तत्व, लक्ष्य, प्रकार और महत्व पर पूर्णतया विधा के रूप में चर्चा या आलोचनात्मक लेखन के अभाव की प्रायः चर्चा की जाती है। कुछ विद्वानों ने व्यंग्य को हास्य के अंतर्गत माना है। जबकि अन्य कुछ ने स्वतंत्र विधा के रूप में व्यंग्य का प्रतिपादन किया है। व्यंग्य को गाली-गलोज से अलग एक सोद्देश्य अभिव्यक्ति माध्यम के रूप में देखा जाना आवश्यक है। कोई रचनाकार किसी शब्द, घटना से, वर्णन या किसी सुभाषित को अनुचित प्रसंग में उद्धृत कर भी व्यंग्य उत्पन्न किया जा सकता है। अतः यहाँ व्यंग्य के अर्थ, स्वरूप और उपकरणों पर विचार अपेक्षित है। ‘‘हास्य, व्यंग्य का अभिन्न अंग है, किंतु हास्य, व्यंग्य तभी बनता है जब उसमें आलोचना जोड़ी जाती है।‘‘( उषा शर्मा, स्वातंत्र्योत्तर हिंदी निबंध साहित्य में व्यंग्य, पृ. 69)

1.2. हास्य-रस का स्वरूप
हास्य अर्थात हँसना। हँसी उत्पन्न करने वाले रस को हास्य-रस कहा जाता है। हास्य को और कई नामों से जाना जाता है। जैसे - मज़ाक, दिल्लगी, हास-परिहास, हँसी-हँसी-ठट्ठा, हँसी-मज़ाक आदि। रस नौ हैं, उन्हीं नौ रसों में से एक हास्य-रस है। हास्य-रस के संदर्भ में भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र‘ में लिखा है -
‘‘विपरीत लङ्कारै विकृता चाराभिधान वेसैश्च
विक्ततैरर्थ विशेषैर्हसतीति रसः स्मृतो हास्य।‘‘
( पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ. सं. 2)
‘‘हास्य-रस मनुष्य तक परिमित है, इसलिए न तो वह श्रंगार के समान व्यापक है और न ही उसमें इतना आस्वादित होता है। इसमें सृजन शक्ति भी होती है। अतएव वह अपूर्ण और गौणभूत है। यदि श्रंगार -रस जीवन है तो यह आनंद, यदि वह प्रसून है तो यह विकास है, जिससे दोनों में आधार-आधेय का संबंध पाया जाता हैं।‘‘ - रस कलश, पृ. 103 से डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ. सं. 5 पर उद्धृत)


अर्थात् हास्य एक प्रीतिपरक भाव है। हास्य मनुष्य के मन के भावों का विकास है। हास्य की उत्पत्ति श्रंगार -रस से मानी गई है। ‘‘हास्य जीवन की वह शैली है, जिससे मनुष्य के मन भावों की सुन्दरता झलक उठती है।‘‘( डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ. सं. 1) हास्य मनुष्य के स्वास्थ्य एवं सौंदर्य को प्रकाश प्रदान करता है। वह व्यक्ति को तनाव से निकलने का सही रास्ता दिखाता है। हास्य से ही मनुष्य के मुख पर मधुरता छा जाती है, कुछ क्षणों के लिए वह अपना दुःख भूल जाता है। हास्य ही पृथ्वी को रहने योग्य बनाता है। हास्य मनुष्य का कवच है, जो उसे दुःख के आघात के वेग को कम कर देता है, एच.एच. ब्राउन के आधार पर - ‘‘हास्य-रस हृदय में आनंद की धारा ही प्रवाहित नहीं करता, दिल की गाँठों को भी खोलता है।‘‘ ( एच.एच. ब्राउन - डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य-विनोद, पृ. सं. 2 )‘हास्य‘ मे उन सभी उदात्त गुणों का समावेश है, जिनके द्वारा मनुष्य सत्य-असत्य का विवेक जागृत कर क्षमाशील तथा उदारचेता बन सकता है।

हास्य वस्तुतः निश्चल मन का संस्कार है। हास्य की पे्ररणाओं में भिन्नता और व्यापकता पाई जाती है। भिन्न-भिन्न पे्ररणाओं के समान ही हास्य वस्तुतः निश्चल मन का संस्कार है। हास्य की पे्ररणाओं में भिन्नता और व्यापकता पाई जाती है। भिन्न-भिन्न पे्ररणाओं के समान ही मनुष्य समान रूप से नहीं हँसता। हास्य देश, काल, परिस्थिति से प्रभावित होता है। प्रत्येक देश का हास्य भी अलग होता है। किसी वस्तु की परिस्थिति को देखकर हम भारतीय हँसेंगे, यह आवश्यक नहीं कि उसी परिस्थिति को देखकर पाश्चात्य या किसी अन्य देश के नागरिक भी हँसे। संभव है कि वे उस परिस्थिति से दुःख का अनुभव करें, जिससे भारतीय हर्ष का अनुभव करते हैं। यही कारण है कि हास्य हमारी जातीय विशेषता का द्योतक भी माना जाता है। हास्य अपनी मूल परिस्थिति और मूल प्रवृत्ति में बहुत ही निश्चय प्रतीत होता है। हास्य कभी किसी का दिल दुःखाए बिना, आलंबन की विचित्रता का चित्रण कर एक प्रकार की खुशी या सुख का अनुभव प्रदान करता है। हास्य कभी भी किसी भी प्राणी को कचोटता नहीं, उसका दिल नहीं दुःखाता। वह सबको बिना किसी भेद-भाव के समान रूप से सुख की अनुभूति कराता है। हास्य के सामने सभी समान है।

‘‘हास्य-रस का स्थाईभाव ‘हास‘ है।‘‘ (नाट्यशास्त्र, अध्याय-5, श्लोक-44 से डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 3 पर उद्धृत ) साहित्य-दर्पण के अनुसार ‘‘वागादिवैकृतैश्चेतोविकासो हास इष्यते‘‘ (डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 3) अर्थात वाणी, वेश-भूषादि की विपरीतता से जो चित्त का विकास होता है, वह हास कहलाता है।

हास्य मनुष्य को आंतरिक सुख की अनुभूति कराता है। हास्य में अनुभूति मानसिक आनंद से उत्पन्न चंचलता के स्पष्ट भाव जब स्थूल रूप में दिखाई देने लगते हैं, तो उसे हास कहते हैं। हास्य भले ही कुछ क्षणों के लिए ही हो मनुष्य के चित्त में सात्विक प्रसन्नता भर देता है।

स्थाई भाव के अनंतर विभाव की पहचान आवश्यक है। वस्तुमात्र में देखी गई किसी भी विकृति अथवा विपरीतता, व्यंग्यदर्शन, परचेष्टानुकरण, असंबद्ध प्रलाप आदि हास्य रस के विभाव (कारण, निमित्त अथवा हेतु) हैं।आकृति, वाणी, वेश तथा चेष्टा आदि की विकृति का इसका उद्दीपन विभाव माना जाता है।

हास्य-रस के अनुभवों के संबंध में आचार्य भरत ने लिखा है ‘‘होठ काटना, नाक और गालों में कंपन्न, आँखों का सिकुडना, पसीना आना, मुख पर लाली का फैलना और बगलों में हाथ डालना आदि हास्य के अनुभव है।‘‘ (डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 3)
(तस्यौष्ठ दंशन नासा कपोल स्पन्दन दृष्टि व्योकोशाकंुचन
स्वेदास्य राग पाश्र्व ग्रहणादि भिरनुभावैरभिनयः प्रयोक्तव्यः
नाट्यशास्त्र, अध्याय - 6, वार्तिक अंश।)

आचार्य विश्वनाथ ने हास्य-रस के अनुभाव को इस प्रकार स्पष्ट किया है - ‘‘अनुभावोऽक्षिसंकोच वदन स्मरे ताद्यः‘‘ (साहित्य दर्पण, श्लोक सं. 216, पृ.सं. 175 से डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में
हास्य-व्यंग्य, पृ.सं. 3 पर उद्धृत) अर्थात नेत्रों का संकुचित होना वदन का विकसित होना इसके अनुभाव हैं।

आचार्य भरत ने हास्य-रस के संचारी भाव - ‘‘निद्रा, आलस्य तथा अवहित्था (भाव गोपन का प्रच्छन्न संकेत) आदि‘‘ (डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में हाव्य-व्यंग्य, पृ.सं. 3) (‘‘व्यभिचारणिश्चास्य आलस्यावहित्थानन्द्रानिद स्वप्न प्रबोधासूर्यादयः
सुप्तनिद्रा वहत्थिंच, हास्ये भावाः प्रकीर्तिताः।।
अर्थात् आलस्य, अवहित्था, औंधाई, नींद, स्वप्न, प्रबोध, असूया (ईष्र्या) आदि को हास्य-रस का संचारी भाव माना जाता है। हास्य-रस में केवल यही एक भाव नहीं बल्कि अन्य भाव भी इसके अंतर्गत आते हैं जो इसी महत्ता को व्यक्त करते हैं। वे हैं - ग्लानि, शंका, श्रम तथा चपलता आदि हास्य-रस के उल्लेखनीय भाव माने जाते हैं, जो हास्य को अपने-अपने आधार से प्रस्तुत करते हैं।)को माना है। हास्य के दो भेद हैं। एक - आत्मस्थ और दूसरा - परस्थ। किसी व्यक्ति का स्वयं अपने आप में हँसना आत्मस्थ हास्य कहलाता है और अन्य किसी व्यक्ति को हँसते हुए देखकर हँसना परस्थ हास्य कहलाता है। हँसना और हँसाना एक प्रकार की कला है जो कि हास्य रस में निहित है। हास्य ही एक ऐसा माध्यम है, जो व्यक्ति के तनावपूर्ण जीवन में कुछ क्षणों के लिए खुशी लाता है। हास्य-रस एक बुझे हुए दीपक में तेल का कार्य करता है। अर्थात जो व्यक्ति अपने तनावों से ग्रस्त होने के कारण मुस्कराना ही भूल जाता है, हास्य उसे एक नई ज्योति प्रदान कर देता है।

हास्य के संचारी भावों का वर्गीकरण निम्नवत् किया जा सकता है -
1. स्नेहन: स्नेहन में करुणा संचारी होकर आलंबन के प्रति हास्य को सुगम एवं सरस बनाने के साथ-साथ उसे जन-जन में स्वीकार्य भी बनाती है। जिससे इसका महत्व प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँच सके।

2. उपहासक :जहाँ स्नेहन में करुणा संचारी होकर उसे आलंबन के प्रति स्वीकार्य बनाती है वही उपहासक में संचारी आकर हास्य आलंबन को तिरस्कार्य भी बना देती है।

3. विभाव संक्रमिति : विभाव संक्रमिति संचारी आश्रय को भी स्वतंत्र आलंबन बना देता है। माता-पिता के अधिक लाड़-प्यार के कारण बिगड़ा हुआ बालक अपने पिता की दाढ़ी-मूँछ उखाड़ता है। पिता का ऐसे बेटे के प्रति इस प्रकार का स्नेह आना उसे (पिता को) आश्रय से आलंबन बना देता है।

4. परिहास : किसी संगीत की महफ़िल में बैठे व्यक्तियों का संगीतकार के संगीत की खर-खर ध्वनि को सुनकर या गायन को सुनकर धीरे-धीरे सो जाना, अरुचि से उत्पन्न यह निद्रा संगीत की मधुरता पर एक प्रकार का व्यंग्य है। यह वर्णन परिहास के अंतर्गत आएगा।

5. रेचक : रेचक हास में किसी भी व्यक्ति विशेष की विशेषताओं का उल्लेख किया जाता है। जैसे - लक्ष्मण की उग्रता तथा रोष से परशुराम हास्यास्पद हो जाते हैं; हास्यास्पद के साथ-साथ उनके प्रति प्रतिशोध की भावना का भी रेचन होता चलता है।
6. ऊहामूलक : ऊहामूलक हास में वितर्क, प्रहेलिका, विमूढ़ता आदि को सम्मिलित किया जाता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है हास्य श्रंगार से उत्पन्न होता है। हास्य से व्यक्ति के मन का विकास होता है, जो कि प्रीति (स्नेह) का एक विशेष रूप माना जाता है। प्रायः हास्य के विस्तृत सीमा क्षेत्र की ओर ध्यान देने से ज्ञात होगा कि हास्य केवल श्रंगार में ही सीमित नहीं है और न ही हास्य को श्रंगार के क्षेत्र तक सीमित किया जा सकता है। हास्य के विभावों के मूल कारणों में औचित्य ही एक प्रकार कारण बन जाता है और वही कारण प्रायः सभी प्रकार के रसों के विभाव आदि में पाया जा सकता है। हास्य का संबंध श्रंगार से अधिक मानने का कारण यह है कि यह प्रिय चित्तानुरंजक होता है। (श्रंगार-रसभूयिष्ठः प्रियचित्तानुरंजः। रस सुधाकरः। से- डॉ.गणेश दत्त सारस्वत,हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद,पृ.सं.6 पर उद्धृत)

श्रंगार-रस द्वारा हास्य का जन्म होता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि हास्य-रस की व्यापकता मात्र श्रंगार-रस तक ही सीमित है। हास्य-रस की व्यापकता तो श्रंगार-रस से भी अधिक है। हास्य-रस श्रंगार रस का व्यापक अंग तो होता ही है, अन्य अनेक रसों के परिपाक में इसकी उपयोगिता भी महत्वपूर्ण मानी जाती है।

हास्य के भेद
आचार्य भरत मुनि द्वारा विवेचित हास्य के भेदों आत्मस्थ और परस्थ का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है - ‘‘पात्र जब स्वयं हँसता है तो यह आत्मस्थ हास्य कहलाता है और जब दूसरों को हँसता हुआ देखकर हँसता है तो इसे परस्थ हास्य कहते हैं।‘‘ (‘द्विविधश्चायम् आत्मस्थः परस्थश्च। यदा स्वयं हसति तदाऽऽत्मस्थः यदा तु परं हासयति
तदा परस्थः। - नाट्यशास्त्र, 6/47 से आगे गद्य तथा 6/49 ,61:8/19 से - डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 6 पर उद्धृत ) परस्थ कभी भी स्वयं उत्पन्न नहीं होता। परस्थ और आत्मस्थ में यह अंतर है कि जहाँ आत्मस्थ स्वयं उत्पन्न होता है वहीं अन्य व्यक्तियों को देखकर उत्पन्न हुए हास्य को परस्थ कहते हैं अर्थात यह दूसरों के कारण उत्पन्न होता है।

परस्थ हास्य उत्तम, मध्यम एवं अधम तीनों प्रकार के व्यक्तियों में अद्भुत होता है। इसके मुख्यतः छह भेद हैं। 1. स्मित, 2. हसित, 3. विहसित, 4. उपहसित, 5. अपहसित और 6. अतिहसित। वास्तव में ये भावभेद न होकर हास्य-क्रिया के भेद हैं।

1.मन की खुशी या आँखों की खुशी (मुस्कुराहट) प्रकट होना। आँखों की खुशी के साथ नीचे के होठ का कुछ हल्का-सा हिलना, साथ ही साथ बिना दाँत दिखाए चेहरे पर एक प्रकार की मधुरता छा जाना इसे ‘स्मित‘ हास्य कहते हैं।

2.व्यक्ति का कुछ इस प्रकार हँसना कि उसके गालों का हल्का-सा विकास हो जाए और गालों के साथ ही साथ उसके मुख और नयनों में चंचलता के साथ उसके दाँतों की कुछ पंक्तियाँ दीख पड़े ‘हसित‘ हास्य कहलाता है।

3.कुछ व्यक्ति इस प्रकार हँसते हैं कि पता ही नहीं चलता कि वे हँस रहे हैं या हँसने के सा-साथ बात कर रहे हैं। हँसते समय कुछ शब्दों का उच्चारण करना, हँसने की क्रिया का शब्दयुक्त होना इसे ‘विहसित‘ कहते हैं।

4.हँसते-हँसते लोट-पोट होना, हँसते समय नाक के नथुनों का फूल जाना, हँसते समय सिर और कंधों का सिकुड़-सा जाना ‘उपहसित‘ कहलाता है।
5.हँसते-हँसते आँखों में आँसू आ जाना, हँसते-हँसते कंधों और सिर में कुछ हल्का-सा कंपन उत्पन्न होना ऐसी हँसी को ‘अपहसित‘ कहा जाता है।

6.हँसते-हँसते आँखों से आँसू टपकना, आँसू टपकाते हुए ताली मारकर ठहाका मारकर हँसना, खुलकर हँसना ही ‘अतिहसित‘ कहलाता है।

लौकिक व्यवहार एवं बोलचाल में हास्य के कई अन्य भेद भी पाए जाते हैं। जैसे -बनावटी हँसी, नेत्रों की हँसी और सूखी हँसी इत्यादि। इन सभी प्रकार की हँसियों का साहित्यकारों ने भरपूर प्रयोग किया है। आचार्य केशवदास ने रसिक प्रिया में हास्य को चार भागों में विभक्त किया है - मंदहास, कलहास, अतिहास और परिहास इत्यादि।

‘‘1.मंदहास में नयन और कपोल विकसित होने लगते हैं तथा मंदहास में व्यक्ति के दाँत पूर्ण रूप से दिखाई देने लगते हैं।

2.कलहास वह है जिसे सुनकर, सुननेवाले का तन-मन पुलकित हो उठता है इसकी कोमल ध्वनि को सुनकर सुननेवाले का तन-मन खिल उठता है।

3.अतिहास में व्यक्ति अत्यंत सुख-भार का अनुभव कर निश्शंक होकर हँसता जाता है और हँसते-हँसते कुछ आधे-अधूरे अक्षर अथवा उच्चारण मात्र से हास्य फिर फूट पड़ता है। अर्थात व्यक्ति हँसता-हँसता लोट-पोट हो जाता है।
4.परिहास में परिवार के सभी सदस्य अपने कुल की मर्यादाओं के बंधन से मुक्त होकर दिल खोलकर हँस पड़ते हैं। उनकी हँसी निर्बाध तथा निर्बंध होती है।‘‘ (डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 8-9 )
डॉ. रामकुमार वर्मा ने हास्य के दोनों प्रकारों तथा छह भेदों का सम्मिश्रण करते हुए लिखा है - ‘‘वस्तुतः अपने प्रभाव के आधार पर हास्य तीन प्रकार के माने गए हैं - उत्तम, मध्यम और अधम। इन तीनों प्रकारों में प्रत्येक के दो-दो भेद हैं। जो इस प्रकार हैं - उत्तम के भेद हैं - स्मित और हसित, मध्यम के भेद हैं - विहसित और उपहसित तथा अधम के भेद हैं - अपहसित और अतिहसित।‘‘ (आलोचना, जनवरी 1955, दृश्य काव्य में हास्य तत्व, पृ.सं. 64 से डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 8 पर उद्धृत) ये प्रत्येक भेद आत्मस्थ और परस्थ हो सकते हैं। इस प्रकार हँसने की क्रिया बारह प्रकार से हो सकती है।

हास्य

उत्तम मध्यम अधम


स्मित हसित विहसित उपहसित अपहसित अतिहसित


आत्मस्थ परस्थ आत्मस्थ परस्थ आत्मस्थ परस्थ


आत्मस्थ परस्थ आत्मस्थ परस्थ आत्मस्थ परस्थ


इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय आचार्यों ने हास्य के विभिन्न पक्षों, प्रत्यक्ष एवं स्थूल कारणों पर अपनी दृष्टि केंद्रित कर रखी है, उन्होंने हास्य के संबंध में सूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक कारणों की विवेचना पूर्ण रूप से नहीं की।
पाश्चात्य विद्वानों ने हास्य का विशद रूप में विवेचन करते हुए उसके पाँच प्रमुख भेद माने हैं - 1. स्मित हास्य (ह्यूमर), 2. वाग्वैग्ध्य (विट), 3. व्यंग्य (सटायर), 4. वक्रोक्ति (आइरनी) और 5. प्रहसन (फार्स)।

इसके अलावा ‘‘डी.एच. मोरनों ने हास्य को दस रूपों में व्यक्त किया है। यथा -
1. सामान्य घटनाक्रम का अतिक्रमण
2. सामान्य घटानाक्रम का कोई निषिद्ध अतिक्रमण
3. अश्लीलता
4. अप्रत्याशित स्थिति उत्पन्न करना
5. अप्रत्याशित मूक प्रदर्शन
6. शब्द क्रीड़ा
7. प्रलाप तथा झक
8. छुटपुट दुर्गति
9. योग्यता अथवा कुशलता और
10. प्रच्छन्न तिरस्कार।‘‘(डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 11)

हास्य के व्यंजनापक्ष पर अधिक बल देनेवाले विद्वानों में विलियम हैजलिट, ड्राइडन, एडीसन, मेरीडिथ और जे.एल. पाट्स प्रमुख माने जाते हैं। इन्होंने हास्य के पूर्वोक्त पाँच भेदों को ही स्वीकार किया है।

स्मित हास्य में आलंबन का वर्णन स्वभावोक्ति से किया जाता है, जबकि वचन-विदग्धता में यह वर्णन कुछ वक्रोक्तिपूर्ण होता है। इसीलिए उपमा और विरोध दर्शन का व्यवहार इसके लिए आवश्यक माना जाता है। इसमें अपनी बातों को, अपनी बुद्धि से तोलकर उसमें छानकर सुनियोजित तरीके से इस प्रकार स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया जाता है कि श्रोता और वक्ता एक दूसरे के कथ्य से परस्पर प्रभावित होते हैं और दोनों का मनोविनोद होता है।
स्मित हास्य के संबंध में ए.निकॉल का कथन प्रस्तुत है - ‘‘स्मित हास्य के लिए समझदारी अत्यावश्यक है। जबकि हँसना बेसमझदारी का हो सकता है। इसके लिए एक विशेष प्रकार के चिंतन की आवश्यकता है, जो रुखा चिंतन ही न हो वरन् मनुष्यत्व पर सहानुभूतिपूर्ण विचार के उपरांत उत्पन्न हुआ हो।‘‘(डॉ. गणेश दत्त सारस्वत, हिंदी साहित्य में व्यंग्य विनोद, पृ.सं. 12)

वाग्वैदग्ध्य को वाक् छल, व्ययुत्पन्नता और बौद्धिक कुशलता कहा जा सकता है। इसमें तर्क के बंधनों से मुक्ति का भाव पाया जाता है। साथ ही इसमें मनोवृत्ति के स्थान पर बालमनोवृत्ति का भी पूर्ण समावेश रहता है। वाग्वैग्ध्य में किसी कथन पर उत्पन्न आश्चर्य महत्वपूर्ण होता है। इसमें सत्य और प्रौढ़ अर्थ का होना भी अत्यावश्यक है। साथ ही इसमें रस और चमत्कार का होना भी आवश्यक है। वाग्वैग्ध्य की एक विशेषता उस की सामाजिकता भी मानी जाती है।

हास्य के भेदों में व्यंग्य का अपना ही अलग एक विशेष महत्व माना जाता है। व्यंग्य (सटायर) को क्रोध की अभिव्यक्ति का एक उपकरण माना जाता है। व्यंग्य की सफलता उसकी अभिव्यक्ति के सौष्ठव पर निर्भर होती है। व्यंग्यकार, व्यंग्यपात्र और आस्वादक - इन तीनों का एक सक्रिय योग व्यंग्य की पूर्णता के लिए उपयुक्त है और उसकी परिणति हास्य में ही होती है।
3. व्यंग्य : व्युत्पत्ति और अर्थ
आचार्य मम्मट ने काव्य के तीन भेद किए हैं - ‘‘1. उत्तम काव्य, 2. मध्यम काव्य और 3. अधम काव्य। यह वर्गीकरण शब्दार्थ के वाचक, लाक्षणिक और व्यंग्य प्रयोगों के आधार पर किया गया है। उत्तम काव्य ही तत्काल में व्यंग्य रहा है।‘‘(डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधाः शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 17) उत्तम काव्य को ध्वनि काव्य के नाम से भी जाना जाता है। ध्वनि काव्य में व्यंग्यार्थ, वाच्यार्थ से अधिक उत्कृष्ट होता है, जिसमें रस-ध्वनि की श्रेष्ठता होती है। इसी प्रकार काव्य में रस का संचार शब्द-शक्तियों से होता है। शब्द-शक्तियाँ तीन हैं - 1. अभिधा, 2. लक्षणा और 3. व्यंजना। इनमें से व्यंजना शब्द-शक्ति का व्यंग्य विधा में महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है।

इस प्रकार व्यंजना शब्द-शक्ति उत्तम काव्य और व्यंग्य विधा दोनों के लिए आवश्यक है। व्यंजना को ही व्यंग्य का जनक माना है। समाज में मानवमूल्यों की स्थापना के लिए व्यंग्य का जन्म हुआ है। व्यंग्य क्रोध की अभिव्यक्ति का एक उपकरण है। इसका लक्ष्य लोकहित माना जाता है। इसकी सफलता उसकी अभिव्यक्ति के सौष्ठव पर आधारित है। व्यंग्य हास्य-रस से इस अर्थ में भिन्न है कि हास्य जहाँ किसी पर तीखा प्रहार नहीं करता, वही व्यंग्य तीखा प्रहार करने से पीछे नहीं हटता। व्यंग्य ‘वि‘ उपसर्ग पूर्वक ‘अज्ज‘ धातु में ‘ण्यन‘ प्रत्यय लगाकर बना शब्द है। इसे ‘वि + अंग = व्यंग्य‘ के रूप में भी देखा जा सकता है। व्यंग्य का उर्दू पर्यायवाची ‘हजो‘ है। ‘‘हजो में हास्यास्पद का मज़ाक उड़ाया जाता है पर यह मज़ाक किसी की निंदा नहीं है। इसके अंतर्गत आलंबन की खिचाई होती है, यहाँ पर आलंबन की तुलना चिढ़ाने योग्य, बदनाम या घृणित वस्तु से की जाती है। जब हास्य में तीखापन आ जाता है, हास्यास्पद के प्रति जब दयालुता शेष नहीं रहती है तथा उनकी उपहासपूर्ण निंदा की जाती है। इससे आलंबन तिलमिला उठता है। तब उसे व्यंग्य की संज्ञा दी जाती है।‘‘(डॉ.गणेश दत्त सारस्वत,हिंदी साहित्य में व्यंग्य-विनोद, पृ.सं. 17 )
आज मनुष्य जीवन विभिन्न प्रकार की विद्रूपताओं और असमानताओ से इस प्रकार घिरा है कि इन की विडंबनाओं में फँसा संवेदनशील लेखक तड़प उठता है। इस प्रकार की तड़प कहीं आक्रोश तो कहीं विद्रोह में अभिव्यक्त होती है। समाज में आज जिस प्रकार विसंगतियाँ, कटुता और कर्कशता व्याप्त हैं। इन विकृतियों के रूप को देखकर जो भावोद्रेक होता है उसी से व्यंग्य की निष्पत्ति होती है।

व्यंग्य विधा में ‘उद्वेग‘ का महत्वपूर्ण स्थान है। भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में विसंगतिपूर्ण वातावरण के कारण व्यक्ति उद्विग्न हो उठता है। उस उद्विग्नता का संबंध कहीं न कहीं व्यक्ति मन से जुड़ा होता है। वातावरण का प्रभाव मनुष्य पर होकर हृदय से उद्वेग बाहर निकलता है। उद्वेग का मूलाधार हृदय को ही माना जाता है, जिससे यह उत्पन्न होता है। उद्विग्नता से कटु होकर जो भावधारा व्यंग्यकार की कलम के द्वारा बाहर निकलती है वही व्यंग्य है। ‘‘सर्वाधिक श्रेष्ठ व्यंग्य वह होता है जिसमें किसी किस्म की जीवन दृष्टि का अभाव हो तथा जिसे पढ़कर यह पता न चले की वह क्यों लिखा गया है और किस पर लिखा गया है।‘‘ (लक्ष्मीकांत वैष्णव, मेरी श्रेष्ठ रचनायें -(लेखक की बात)।

व्यंग्य की प्रक्रिया एक समय में दो शिकार करने के समान है। व्यंग्य का एक शिकार तो कल्पित लक्ष्य होता है और दूसरा असली। व्यंग्यकार का अहं जितना अधिक आहत होता है, वह विसंगतियों पर उतनी ही करारी चोट करता है। इसके द्वारा समाज सुधार तथा व्यक्ति की प्रवृत्ति में बदलाव ला पाना संभव होता है। इसीलिए व्यंग्य विधा एक प्रकार से समाज सुधार का कार्य भी करती है।
4. व्यंग्य का स्वरूप
गद्य साहित्य की अन्य आधुनिक विधाओं की भाँति ‘व्यंग्य‘ भी आधुनिक युग की देन है। परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि व्यंग्य की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। जिस विधा का रूप आधुनिक काल में प्राप्त हो सकता है, साहित्यिक विधाएँ पूर्व निर्धारित आधार पर नहीं बनती हैं। जब कोई रचनाकार लिखता जाता है, लिखने के पश्चात् उसकी रचनाओं के स्वरूप, वैशिष्ट्य और अनुकृति के आधार पर विधा का निर्माण होता है। हिंदी के व्यंग्यकारों ने व्यंग्य के प्रयोजन पर भिन्न-भिन्न रूपों में विचार किया है, तथापि उसका मूल उद्देश्य सुधार ही है।

व्यंग्य की विभिन्न परिभाषाएँ
व्यंग्य के विभिन्न विशेषज्ञों ने ‘व्यंग्य‘ को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है।

(अ) भारतीय दृष्टिकोण
व्यंग्य के संदर्भ में कतिपय भारतीय साहित्यकारों के मत निम्नलिखित हैं-
1. आचार्य वामन
‘‘सादृश्या लक्षणा वक्रोक्तिः में वक्रोक्ति के द्वारा व्यंजना का संकेत किया गया है। आचार्य वामन रीतिवादी परंपरा के जनक रहे हैं, जिन्होंने व्यंग्य का युक्ति-संगत और गंभीर विवेचन किया है।‘‘
(डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा : शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 63)
संस्कृत साहित्य के आचार्यों ने व्यंग्य को ध्वनि के अंतर्गत रखा है क्योंकि इसमें शब्द का प्रत्यक्ष अर्थ ज्ञात होता है, लेकिन उसके साथ प्रयोग में आए शब्द की विशेष दृष्टि से उसके साक्षात् अर्थ से उसके भिन्न अर्थ की भी जानकारी प्राप्त होती है। यह जो दूसरा अर्थ ध्वनित होता है इसी कारण इसे ध्वनि-व्यंग्य कहा जाता है।
2. आचार्य आनंद वर्धन
‘‘काव्यं ध्वनिर्गुणीभूत व्यंग्य चेति द्विधा मतम्।
वाच्यातिशयिति व्यंग्ये ध्वनिस्तत्काव्यमुत्तममं।।‘‘
(आचार्य मम्मट, द्वितीय अध्याय, काव्य मीमांसा -से -डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा: शास्त्र और इतिहास)
अर्थात साहित्य में जो अर्थ अभिव्यंग्य रूप से अवस्थित रहता है, वह इतना सुंदर , इतना चमत्कारजनक प्रतीत होता है कि वाच्यार्थ, उसके सामने व्यर्थ-सा प्रतीत होता है। इस ध्वनित अर्थ का सौंदर्य वाचन करनेवाले की पहुँच से काफ़ी दूर रह जाता है।

3. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यंग्य के संबंध में कहा है कि ‘‘व्यंग्य वह है, जो कहनेवाला अधरोष्ठ में हँस रहा हो और उसे सुननेवाला सुनकर तिलमिला उठता है। फिर भी कहनेवाले को जवाब देना अपने आपको और उपहासास्पद बना लेना हो जाता हो।‘‘(पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग,पृ.सं.6)

4. डॉ. वीरेंद्र मेंहदीरत्ता
‘‘व्यंग्य किसी व्यक्ति, समुदाय, संस्था अथवा समाज की दुर्बलताओं तथा दोषों का उद्घाटन कर उस पर प्रहार करता है। व्यंग्य मानव तथा जगत की मूर्खताओं तथा अनाचारों को प्रकाश में लाकर उनके उपहास्य रूप में आलोचनात्मक प्रहार करने में समर्थ एक साहित्यिक अभिव्यक्ति है।‘‘
( पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 7)
‘‘व्यंग्य एक ऐसी साहित्यिक अभिव्यक्ति या रचना है, जिसमें समाज और व्यक्ति की दुर्बलताओं, कथनी और करनी के अंतरों की समीक्षा अथवा निंदा, भाषा को टेढ़ी भंगिमा देकर अथवा कभी-कभी पूर्णतः स्पष्ट शब्दों में प्रहार करते हुए की जाती है। इसके पश्चात् भी उसमें पूर्णतः अगंभीर होते हुए भी गंभीरता हो सकती है, निर्दय होते हुए भी वह दयालु हो सकती है, अतिशयोक्ति का आभास होने पर भी पूर्णतः सत्य हो सकती है। व्यंग्य के अंतर्गत आक्रमण, क्रोध की उपस्थिति अनिवार्य होती है।‘‘ (पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 6-7)

6. हरिशंकर परसाई
‘‘व्यंग्य मानव चेतना को झकझोर कर रख देता है, विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है, उसकी व्यवस्था की उत्पन्न सड़ांध की ओर स्पष्ट संकेत करता है और उसके परिवर्तन की ओर शुरुआत करता है तो उसे सफल व्यंग्य माना जाता है।‘‘ ((पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 6)

7. डॉ. प्रभाकर माचवे
‘‘व्यंग्य कोई अंदाज़ या पोज़, लटका या बौद्धिक आयाम नहीं, पर एक आवश्यक अस्त्र अवश्य है। गंदगी की सफ़ाई करने के लिए किसी न किसी को अपने हाथ गंदे करने ही होंगे, किसी न किसी को उस बुराई को अपने सिर लेना ही होगा तभी उस कार्य को या उस गंदगी को साफ़ किया जा सकता है।‘‘(पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 7)
8. बरसानेलाल चतुर्वेदी
‘‘वास्तव में जब हास्य विशद, आनंद या रंजन को छोड़ प्रयोजननिष्ठ हो जाता है, वहाँ वह व्यंग्य का मार्ग पकड़ लेता है। आलंबन के प्रति तिरस्कार, उपेक्षा या भर्त्सना की भावना लेकर आगे बढ़नेवाला हास्य ‘व्यंग्य‘ कहलाता है।‘‘ (पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 6)
9. डॉ. रामकुमार वर्मा
‘‘आक्रमण करने की दृष्टि से वस्तुस्थिति को विकृत कर उससे हास्य उत्पन्न करना ही व्यंग्य है।‘‘ (डॉ. रामकुमार वर्मा, रिमझिम, पृ.सं. 13)
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि व्यंग्य में सोच-विचार देने की क्षमता है तथा वह आहत तो करत है लेकिन विचलित नहीं करता।
(आ) पाश्चात्य दृष्टिकोण
व्यंग्य की कतिपय पाश्चात्य विशेषज्ञों द्वारा दी गई परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं -
1. ड्रायडन
‘‘व्यंग्य का वास्तविक मूल उद्देश्य है शोधन पद्धति द्वारा सुधार करना।‘‘(वीरेंद्र मेंहदीरत्ता, आधुनिक हिंदी साहित्य में व्यंग्य, पृ.सं. 13 से - डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 32 पर उद्धृत) ड्रायडन का मानना है कि किसी काम को बिगाड़कर मूर्खतापूर्ण व्यवहार करने तथा किसी प्रकार समस्या निर्माण करने वालों को सुधारना ही व्यंग्य का कार्य है।
2. वायरन
"Fool are my theme, let satire be my song "( मूर्ख मेरा आलंबन है) अतः व्यंग्य मेरा काव्य है।‘‘ (वीरेंद्र मेंहदीरत्ता, आधुनिक हिंदी साहित्य में व्यंग्य, पृ.सं. 14 से - डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 33 पर उद्धृत) स्पष्ट है कि बायरन व्यंग्य को मनुष्य समाज की खाल उधेड़नेवाला मानते हैं।

‘‘साहित्यि क दृष्टि से उपहासास्पद अथवा अनुचित वस्तुओं से उत्पन्न हर्ष या घृणा के भाव को समुचित रूप से अभिव्यक्त करने का नाम है व्यंग्य। इसके लिए यह आवश्यक है कि उस अभिव्यक्ति का भाव निश्चित रूप में विद्यमान होना चाहिए तथा उक्ति को साहित्यिक रूप प्राप्त हो। हास्य के अभाव में व्यंग्य का अर्थ पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता है और वह गाली का-सा रूप धारण कर लेता है तथा साहित्यिक विशेषज्ञों के बिना वह विदूषक की ठिठोली मात्र बनकर रह जाता है।‘‘ ( पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 6)

4. जेम्स हने :
"The flashing lighting terrifes the evil do eres, while purifies the air such as satire when great and earnet. (आसमान की बिजली जिस प्रकार कड़ककर अनाचारी को डराती है तथा वायु को शुद्ध भी करती है, उसी प्रकार पूरी ईमानदारी के साथ लिखे गए व्यंग्य साहित्य का स्वरूप है ।‘‘ (सटायर एण्ड सटायरीस्ट, जेम्स हने - से डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 33 पर उद्धृत)
5. कन्साइज़ ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ़ इंग्लिश लिटरेचर
‘‘व्यंग्य ऐसी रचना है जिसमें प्रचलित त्रुटियों और मूर्खताओं को उपहासात्मक रूप से ग्रहण किया जाता है।‘‘ (पवन चैधरी मनमौजी, व्यंग्य के रंग, पृ.सं. 6)
6. नारमन फ़र्लांग
^^Satire is then rarely a major fantal assault, the satirist plants his blows on most of the weak spots of civilized.^^(इंग्लीश सटायर, नारमन फ़र्लांग, प्रस्तावना। से डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 64-65 पर उद्धृत) व्यंग्य को आम तौर पर एक सीधा आक्रमण करने वाली विधा माना जाता है, जिसके द्वारा व्यंग्यकार शिष्ट समाज के दोषों तथा कमज़ोरियों पर सीधा आघात करता है।

पाश्चात्य साहित्य में व्यंग्य के संबंध में यह धारणा रही है कि ‘‘व्यंग्य सहानुभूतिहीन क्रोध का इंजन है तथा व्यंग्य में खाली विकरात रूप का ही प्रदर्शन होता है।‘‘( इंग्लीश सटायर, नारमन फ़र्लांग, प्रस्तावना। - से डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 64-65 पर उद्धृत )

7. जेम्स सदरलैंड
‘‘एक व्यंग्यकार पीठ पर बैठे न्यायाधीश के समान कानून की व्यवस्था और सभ्य समाज के नियमों की देख-रेख करता है, वह सभी नर-नारियों की परीक्षा बौद्धिक, सामाजिक, नैतिक एवं अन्य मानकों के आधार पर ही करता है।‘‘ ( इंग्लीश सटायर, जेम्स सदरलैंड - से डॉ. बापूराव धोडू देसाई, हिंदी व्यंग्य विधा शास्त्र और इतिहास, पृ.सं. 64-65 पर उद्धृत)

संक्षेप में पाश्चात्य साहित्य चिंतकों ने व्यंग्य के विभिन्न आयामों को परिलक्षित किया हैं। उनके लिए व्यंग्य मानव एवं मानवीय दुर्बलताओं को सुधारने हेतु कटु शैली में उपहास है। उसके सभी प्रकार के दूषणों पर प्रहार निहित है तथा समाज सुधार के लिए वह अत्यंत उपयोगी है।
































































2 comments:

  1. yah aapne achchha kiya.

    dheere dheere pooree thesis upload kar sakate hain aap.

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