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Tuesday, September 29, 2009

"एक माँ ऐसी भी"

माँ शब्द सुनते ही हमारे सामने एक ममतामयी मूर्ति का रुप उभरकर सामने आ जाता है । ईश्वर ने सृष्टि की रचना की थी तब उसे अहसास हुआ कि मैं अपनी सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के पास नहीं जा सकता , उसकी सहायता नहीं कर सकता इसीलिए उसने माँ को बनाया । जो कार्य ईश्वर नहीं कर पाया उसे माँ करती है । माँ गीले में सोकर अपने बच्चों को सूखे में सुलाती है । स्वयं भूखी रहकर बच्चों का पेट भरती है । माँ की ममता का कर्ज मनुष्य जीवन भर नहीं चुका सकता । माँ को कितने भी बच्चे क्यों न हों वह कभी अपने बच्चों में कोई भेद - भाव नहीं करती । उसके लिए तो सभी बच्चे समान होते हैं। शायद इसीलिए कहा जाता है कि “पूत कपूत हो सकते हैं लेकिन माता कभी कुमाता नहीं हो सकती लेकिन .......।”
मैं घर में बैठा था कि फोन की घंटी बजी। मैंने फोन उठाया –‘हैलो’
‘हैलो -भैया’
‘हाँ , सुमन,कैसी है?
‘हाँ ठीक हूँ’। ‘घर में सब ठीक हैं?’ ये शब्द सुनकर सुमन का गला भर आया । भरे गले से बोली ‘हाँ ,सब ठीक है।
मुझे उसकी आवाज में किसी दुख की दस्तक सुनाई दे रही थी । मैंने उससे फिर पूछा -
‘सुमन, क्या बात है?
‘कुछ नहीं। बस, ऐसे ही आप लोगों से बात करने का मन कर रहा था इसलिए फोन कर लिया।’
उसकी आवाज उसके शब्दों का साथ नहीं दे रही थी । लग रहा था कि अवश्य कोई घटना घटित हुई है जिसे वह बता नहीं रही है।
मैंने फिर पूछा, ‘सुमन आखिर बात क्या है तुम उदास सी क्यों लग रही हो?’
‘नहीं, भैया। ऐसी कोई बात नहीं है।’
‘अरे! ऐसी नहीं तो कैसी बात है ? आखिर बात क्या है ? बात तो बता । सुनकर सुमन रो पड़ी ।
मैंने कहा – ‘अरे पगली बात क्या है तू रो क्यों रही है ?’
‘क्या बताऊँ भैया ? बात ही कुछ ऐसी है।’
‘इधर -उधर की बातें क्यों कर रही है ? साफ-साफ बता आखिर बात क्या है ?’
‘आज शाम दिनेश के पापा (सुमन का पति) और उनके भाईयों में आपस में झगड़ा हो गया ।’
‘किस बात पर ?’ मैंने पूछा
‘बात क्या ! एक तो हमारी चीज़ ले जाते हैं और वापिस लाकर भी नहीं रखते । उनसे माँगो कि भाई फलाँ चीज़ कहाँ है तो कोइ सीधे मुँह जवाब ही नहीं देता ,सीधे लड़ने को आते हैं। कल शाम की ही बात है दिनेश के पापा खेत जोतने जाने वाले थे । ट्रैक्टर की साहिल की कड़ी दिखाई नहीं दे रही थी , उन्होंने अपने भाईयों से पूछा तो उन्होंने उलटा -सीधा जवाब दिया । इसी बीच उनके बीच कहा- सुनी हो गई। कहा-सुनी तक तो ठीक था , लेकिन बात कहा -सुनी से लड़ाई तक आ गई । वे तो तीनो-चारो भाई एक हो गए और हम अकेले । आपस में खूब लड़ाई हुई ,तीनों- चारोंे भाईयों ने मिलकर इन्हें खूब मारा है। सिर में चोट लग गई है । खूब खून बहा है ।’
‘आखिर जरा सी बात के लिए लड़ने की क्या ज़रूरत थी ?’
‘अब क्या बताऊँ भैया जब से हमारा बुड्ढा (ससुर) मरा है ,तब से लेकर अब तक ये लोग सारे खेतों को जोतते - बोते आ रहे हैं । जो खेत हमारे हिस्से में आने थे, उन्हे भी ये ही लोग जोतते -बोते आ रहे हैं । हमारे हिस्से के खेतों को भी हमें नहीं दे रहे हैं । बुड्ढे ने अपने जीते जी जो कुछ सामान था इन सब में बांट दिया था ,हमारे हिस्से में ट्रैक्टर और उसकी मशीनरी हमारे (दिनेश के पापा ) के नाम की थी । जब तक बुड़ढा जिन्दा था सबने इस ट्रैक्टर की खूब ऐसी - तैसी की , बुड्ढेे के मरने के बाद जब ट्रैक्टर खराब हो गया तो सब ने उसे खटारा कहकर बेचने की बात शुरू कर दी दिनेश के पापा ने जब यह सुना तो साफ मना कर दिया ‘मैं ट्रैक्टर नहीं बेचने दूँगा ।’ इस पर उनके भाई कहते हैं – ‘बेचेगा नहीं तो इसे बनाने के लिए तेरे पास पैसे हैं क्या ? आया बड़ा नहीं बेचने वाला । इस खटारा को बेचकर दूसरा नया ट्रैक्टर लेंगे।’ ‘नहीं, मैं इसे नहीं बेचने दूँगा । भले ही आज मेरे पास पैसे हो या न हों ,भले ही यह खटारा बनकर ही क्यों न खड़ा रहे , मैं इसे नहीं बेचने दूँगा ।’
तेरी सास कुछ नहीं कहती ? वह नहीं समझाती उन सब को ? मैंने पूछा।
‘हूं ! सास ? सास ही तो इन सब फसादों की जड़ है। यह सब उसी का किया -कराया तो है । वही तो नहीं चाहती कि हम शांति से जीएं।’
‘क्या बात कर रही हो ?’
‘हाँ भैया ! मैं सच कह रही हूँ । आज - कल वह मझले बेटे के पास रह रही है । उसी ने उसके कान भर रखे हैं । एक तो वे लोग और दूसरी सास ये ही तो नहीं चाहते कि हम सुख-शांति से जीएँ । आजकल सभी हमारे खिलाफ हो रखे हैं ।
‘ये सब तुम लोगों के खिलाफ क्यों हो रखे हैं ?’ मैने पूछा
हम उनके सामने हाथ नहीं फैलाते । उनके सामने छोटी- छोटी चीज़ के लिए नहीं जाते । उन्हें इस बात का ज्यादा मलाल है कि हमने ट्रैक्टर बेचने नहीं दिया। उन्हें दिन-रात इसी की जलन रहती । एक दिन तो खुद मेरी सास ही कह रही थी कि इस ट्रैक्टर को बेच कर दूसरा कोई नया ट्रैक्टर ले लो । दिनेश के पापा ने साफ मना कर दिया कि मैं इसे नहीं बेच रहा । अक्सर इसी ट्रैक्टर के पीछे चारोंे - पांचों भाईयों मे कुछ न कुछ कहा सुनी होती रहती है ।
उस शाम इसी ट्रैक्टर के लिए चारो-पांचों भाइयों में कहा सुनी हो गई , दिनेश के ताऊ कहा सुनी से गाली - गलोज पर उतर आए – “अरे कुत्ते तू तो हमारे खानदान में एक धब्बा है, धब्बा । तू तो किसी अनसूचित जाती का बीज है ।” नालायक को जरा भी शरम हया नहीं है।
‘यह सब सुनकर तेरी सास ने कुछ नहीं कहा ?’ - मैने पूछा
‘नहीं , भैया उस बेशरम को अगर थोड़ी बहुत भी शरम होती तो वह तभी अपने बेटे को रोककर कहती कि आखिर तू कह क्या रहा है, गाली किसे दे रहा है, अपने भाई को या मुझे,मेरे चरित्र को ?’
‘यह तो बड़ी शरम की बात है कि तेरी सास यह सब चुपचाप बैठी सुन रही थी । उसे जरा भी अहसास नहीं हुआ कि आखिर ये कह क्या रहा है।’ इससे बड़ी शरम की बात और क्या होगी कि उसी का बेटा, उसी के बेटे को अप्रत्यक्ष रूप से नाजायज ठहरा रहा है और वह बैठी - बैठी चुपचाप सुन रही है- मैने कहा
‘उसे तो दिनेश के पापा से तनिक भी लगाव नहीं है । जब से मैं इस घर में ब्याह कर आई हूँ तब से तो मैं यही देखती आ रही हूँ। मेरी सास को अपने अन्य बेटों से अधिक लगाव है ,वह सदैव उन्हीं का साथ देती है, भले वे गलत ही क्यों न हों । जब से ससुर मरे हैं सब ने अपने - अपने हिस्से के खेत बांट लिए है लेकिन जो हमारे हिस्से में आने वाले हैं वे भी हमें नहीं मिले है, उन्हें भी वे ही लोग जोतते -बोतेे हैं , हमारे हिस्से के खेतों को भी हमें नहीं दे रहे हैं । इतना सब कुछ होने पर भी हमने कभी भी उन लोगों से जाकर अपना हिस्सा नहीं माँगा , कहने को तो इतना बड़ा घर है लेकिन हम एक छोटे से कमरे में अपने बच्चों को लेकर रह रहे हैं । हमने उन लोगों से कभी कोई शिकायत नहीं की ,यही सोचकर संतोश कर लेते हैं कि आप लोग जिस में खुश रहें वैसा ही ठीक है। हम दिन -रात कमर तोड़ मेहनत करके एक -एक पैसा कमाते हैं , वह भी उनकी नजरों में खटकता है। दूसरों की कमाई हजारो - लाखों की है वह किसी को दिखाई नहीं देती । दिखता तो केवल हमारा कमाना है.............. । हमारे भी बच्चे हैं । हमें भी अपने बच्चों के भविष्य को बनाना है उन्हे अच्छी शिक्षा दिलवानी है , उसके लिए हम लोग दिन- रात मेहनत करते हैं । यह सब उनकी आँखों में खटकता है कि इसके बच्चे अच्छे स्कूल में क्यों जा रहे हैं ? क्यों ये लोग हमारे सामने भीख नहीं माँगते ? क्यों नहीं आते हर चीज़ माँगने के लिए ? आखिर इन लोगों के पास इतना पैसा कहाँ से आ रहा है जो ये लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढने भेज रहे हैं ।’
“तो ,उन्हें इन सब बातों से क्या करना ?” मैने पूछा
“करना - करना क्यों नहीं है ? वे चाहते हैं कि हम सदा उनकी जूतियों के नीचे दबे रहें । वे लोग जो कहे, जैसा कहें यदि हम वैसा करते हैं तब तो सब कुछ ठीक है । नहीं तो हम नालायक है , कुत्ते हैं , किसी अनसुचित का बीज हैं ।”
“यह तो कोई बात नहीं हुई कि वे जैसा कहें तुम वैसा ही करो, यह तुम लोगों की निजी ज़िन्दगी है, तुम जैसा चाहो वैसे रहो ,उन्हें तुम लोगों की निजी जिन्दगी में दखल देने का क्या अधिकार ? तुमने कभी अपनी सास से इस बारे में बात नहीं की कि माँ ये लोग हमारे साथ क्यों इस तरह का व्यवहार करते हैं । हम भी तो आप ही के बच्चे हैं । जैसे वे आपके हैं । आप क्यों यह अन्याय होते हुए देख रही हैं?” मैने कहा
“भैया उनसे मैंने कई बार बात की, उन्हें सदा हमारी ही गलती नज़र आती है, वही नहीं चाहती कि हम सुख-शांति से जिएं । बात-बात पर ताने मारती है । हमेशा जली - कटी सुनाती रहती है। उसे न तो हमसे कोई लगाव है न ही हमारे बच्चों से । वह तो हमारे बच्चों तक को कोसती रहती है। हमारे बच्चे तो उसे फूटी आँख नहीं सुहाते । दूसरों के बच्चों को तो दिन-रात लाड़ लड़ाती रहती है और हमारे बच्चों को......................?”
“यह तो बड़ी अजीब बात है कि कोई माँ अपने बच्चों में इतना फर्क कर सकती है। अब तक तो सुना था कि माँ अपने बच्चों में कोई फर्क नहीं करती । भले ही वह किसी बच्चे को ज्यादा लाड़ लड़ाती है लेकिन यदि कोई उसके बच्चों को मारे -पीटे तो वह शेरनी के समान उसका मुकाबला करने लग जाती है । लेकिन तुम्हारे घर की तो अजब कहानी है। ठीक है भाई-भाई में नहीं बनती ; यह कोई नई बात तो है नही यह तो सदा से ही होता आया है । लेकिन एक माँ को ऐसा करना कदापि शोभा नहीं देता ।”
“जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं लेकिन उसकी अकड़ इतनी कि नाक पर मक्खी तक नहीं बैठने देती । रस्सी जल गई पर बल नहीं गए । आज भी उसकी अकड़ वैसी ही है । जिस उम्र में उसे ईश्वर का भजन -ध्यान करना चाहिए , उस उम्र में वह ज़मीन जायदाद का हिसाब लगाने में लगी हुई है..... दिनेश के ताऊओं ने उसे उलटी सीधी पट्टी पढा रखी है , वे लोग ही हमारे खिलाफ उसके कान भरते रहते हैं । वे लोग चाहते हैं कि किसी न किसी तरह इसके हिस्से की ज़मीन जायदाद भी हमें ही मिल जाए। पता नहीं यह दुनिया और कितने इम्तहान लेगी । सुख का एक निवाला मिलता नहीं कि दुख पहले से ही तैयार खड़ा रहता है । मैं यहाँ किस तरह दिन काट रही हूँ यह मुझे ही पता है, दिन -रात यही कलेस लगा रहता है, एक तो हम अपनी परेशानी से परेशान रहते है ऊपर से ये लोग हमें चैन से जीने भी नहीं देते । पिछली महीने जब इन चारों - पाँचों भाईयों में लड़ाई हुई थी , उस लड़ाई में दिनेश के पापा के सिर में गहरी चोट लगी थी , खूब खून बहा था । जब हम पुलिस में शिकायत करने गए तो पहले तो पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की जब हम लोगों ने कुछ कठोरता दिखाई तब जाकर पुलिस आई और उन्हें गिरफ्तार करके तो ले गई । दूसरे दिन वे लोग वहाँ से छूटकर लौट आए । तभी से वे लोग इस का बदला लेने के मौके की तलाश में बैठे है कि कब मौका मिले और हम अपने अपमान का बदला लें । वे लोग अपनी चीज का इस्तमाल तो करते नहीं हैं, हमारी चीजों के पीछे पड़े हैं उन्हें तोड़ते रहते हैं । इसके लिए उनसे कुछ कहो तो हमें ही उलटी सीधी सुनाने लगते हैं , और हम कुछ कह दे तो फिर वही खून खराब हो ।” हम तो......
“यह तो बड़ी शर्म की बात है कि भाई - भाई के मुँह का निवाला छीनने को तैयार बैठा है। यह सब देखकर तेरी सास ने कुछ नहीं जब दिनेश के पापा के सिर में चोट लगी थी , उसने उन लोगों को ऐसा करने रोका नहीं ।” मैने कहा
मेरी सास ? हुम वह तो आराम से खाट पर बैठी यह सब तमाशा देख रही थी । उसकी बला से ! हम कल की बजाय आज ही मर जाएँ । उसे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता । हम मरे या हमारे बच्चे मरे उसे इस सब से कोई फर्क नहीं पड़ता । उसे हमसे या हमारे बच्चों से कोई मोह नहीं । उसके लिए तो हम मरे समान ही हैं।
यह सुनकर मेरे मन में उस माँ के प्रति घृणा का भाव भर गया । मैं थोड़ी देर सोचने लगा कि इन्सान कितना स्वार्थी है । इससे तो जानवर भी अच्छे हैं । कम से कम वे अपनी संतानों में फर्क तो नहीं करते । तभी दूसरी तरफ से आवाज आई “हैलो - भैया , क्या हुआ ? क्या सोचने लगे?”
“कुछ नहीं , बस तेरी सास के बारे में सोच रहा था कि क्या कोई माँ ऐसी भी हो सकती है ।”
“भैया उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता, फर्क उन्हें पड़ता है जिन्हें अपने बच्चों से मोह होता है, जब उसे हमसे कोई मोह ही नहीं है तब उसे हमारे जीने या मरने से क्या फर्क पड़ता है। अच्छा अब मैं फोन रखती हूँ ।”
अच्छा ठीक है ।
फोन रखने के बाद मैं बार-बार यही सोच रहा था कि क्या माँ ऐसी भी हो सकती है। हाँ भाई भाई के बारे में तो अक्सर सुना था लेकिन माँ अपने बच्चों में इतना फर्क कर सकती है, यह बात मेरे लिए चौकानेवाली थी । मैं सारी रात यही सोचता रहा......................?
एक सप्ताह के बाद फिर फोन की घंटी बजी। इत्फाक से फोन मैंने ही उठाया ।
“हैला”े “हैलो”
“कौन ? सुमन; कैसी है ? सब कैसे हैं ?”
“भैया .............................?”
“क्या हुआ ? रोने की आवाज सुनाई देने लगी ?
“सुमन क्या हुआ ? तू रो क्यों रही है ?”
“बात क्या है ? तू रो क्यों रही है ?”
“भैया मेरी सास ने ..........”
“अब क्या हुआ तेरी सास को ?”
“मेरी सास ने हमें अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया है।”
क्या …? क्या कहा?
“हाँ भैया ।”
कल अखबार में दिया था कि “मैं अपने पुत्र रमेश को उसके व्यवहार और चाल-चलन ठीक न होने के कारण अपनी जमीन जायदाद से बेदखल करती हूँँ।”
“ऐसा कैसे कर सकती है वह ?” मैने कहा
“कर नहीं सकती , उसने कर दिया है । यह सब किया कराया उसका नहीं बल्कि उसके बड़े बेटों का है ,भला बुढिया पढ़ नहीं सकती , लिख नहीं सकती उसे इस बात की क्या जानकारी कि अखबार में किस प्रकार इश्तहार दिया जाता है। उन कमीनों ने ही यह सब करवाया है ,उन्होंने ही हमारे पेट पर लात मारी है, वे लोग यही तो चाहते थे कि हमारे हिस्से की जमीन जायदाद उन्हे मिल जाए ।”
यह कहते -कहते वह रोने लगी ।
“अरे पगली, तू रोती क्यों है ? अभी तेरा भाई,तेरे पापा जीवित हैं । हमारे रहते तुझे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं । ज़मीन जायदाद से ही बेदखल किया है? तुम्हारी किस्मत से तो नहीं इंसान को कभी भी जीवन में निराश नहीं होना चाहिए। तू चिंता मत कर । तू रो मत। तू क्यों चिंता कर रही है जरा सोच जिन लोगों के पास जमीन नहीं होती क्या वे लोग नहीं जीते । तू अपने आप पर भरोसा रख । जो लोग दूसरों को दुख देकर अपने आप को सुखी बनाने की सोचते हैं , वे कभी सफल नहीं हो पाते । उन्हें अपने कीए का फल इसी संसार में मिल जाता है । तू भगवान पर भरोसा रख । दूसरों की बददुआ लेकर वे कभी सुखी नहीं रह सकते ।” मैने कहा
“भैया इन्होंने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा । कहकर वह फफक-फफकर रोने लगी ।”
“अरे पगली तू रोती क्यों है ? तू चिंता मत कर हम हैं न ? जब हम तेरी तरफ से मुँह मोड़ ले , तब तुझे चिंता करने की जरूरत है । बस अब तू चुप हो जा । सब ठीक हो जाएगा ।”
मैं उसे देर तक समझाता रहा , दिलासा देता रहा अंत में कहा “अच्छा ठीक है ....अब फोन रख । देख ..रोना नहीं तू तो मेरी बहादुर बहन है ना । जीवन में सुख - दुख तो आते ही रहते हैं । जीवन में कभी भी हार नहीं माननी चाहिए।.........और फिर हम हैं न...ठीक है ।”
“अच्छा ठीक है ....मगर .............?”
“मगर - वगर कुछ नहीं ? खाना बना लिया या नहीं ?”
“नहीं , अभी नहीं बनाया ?”
“तो क्या बच्चे अभी तक भूखे हैं ?”
“नहीं बस अभी बना लेती हूँ ।”
“अच्छा चल पहले खाना पका और बच्चों को खिला । तुम लोग भी खा लो । ठीक है । चिंता नहीं करना .... सब ठीक हो जाएगा ।”
यह कहकर मैंने फोन रख दिया । बार-बार मेरे मन में एक ही सवाल उठ रहा था कि क्या माँ ऐसी भी होती है ?.....और सारी रात यही सोचता रहा , आखिर उसने ऐसा क्यों किया केवल जायदाद के लिए या फिर किसी और .... पता नहीं बार-बार दिल में यही सवाल उठता है कि यह कलियुग है, और इस कलियुग में शायद यह सब संभव हो सकता है। जो माँ अपने बेटे का खून देखकर भी विचलित न हो , उसे क्या कहेंगे ? यही मेरी समझ में नहीं आ रहा । इसे मैं माँ की बेटे के प्रति घृणा कहूँ या कुछ और ............?

2 comments:

  1. "आखिर उसने ऐसा क्यों किया केवल जायदाद के लिए या फिर किसी और ..."
    इसके कई कारण हो सकते है.. इस बेटे की मां के प्रति उदासीनता, बहू का मां को असम्मान से देखना[बुड्डा...बुढी इस ओर संकेत देते हैं] या फिर अन्य बेटे-बहुओं का अच्छा स्वभाव... ये सभी तो कारण हो सकते है। एक चिंतनीय कथा के लिए बधाई॥

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  2. prayaas achchha laga aapka .
    likhte rahen

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