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Saturday, September 26, 2009

कहानी "बास "


गरमी की छुट्टियों में हर साल की तरह इस साल भी मैं अपने पूरे परिवार के साथ अपने गाँव गया । इस साल की गरमी ने तो कमाल कर रखा है, गरमी से बड़ा बुरा हाल है,इस साल की गरमी ने तो पिछली कई सालों के रिकार्ड तोड़ दिए । एक तो इतनी गरमी ऊपर से न तो बिजली न पीने का पानी। इन सुविधाओं के अभाव में भी वहाँ मन लगता है। पूरे एक साल के बाद हमारा पूरा परिवार इकट्ठा हुआ था, सभी लोगोंे के आने से घर पूरा हरा -भरा लगने लगता है। गाँव में आए हुए तीन-चार दिन हो गए हैंै, गाँव का वातावरण सचमुच कितना शांत और प्रदूषण रहित होता है। जब गाँव जाता हूँ तो अपनी ननिहाल भी अवश्य जाता हूँ, यदि नानी से मिले बिना वापस आ जाउं और नानी को पता चले कि मैं गाँव आया था और उनसे नहीं मिला तो उन्हें बहुत बुरा लगेगा , सोचकर नानी से मिलने के लिए दूसरे दिन जाने का प्रोगराम बनाया। दूसरे दिन नानी से मिलने के लिए घर से निकला ही था कि फोन की घंटी बजी फोन में देखा कि मामाजी का फोन है।

“हैलो मामा जी नमस्ते ।”
“नमस्ते ,नमस्ते कैसे हो”?
“ जी, मैं ठीक हूँ। आप कैसे हो?”
“हाँ हम भी ठीक है। कब आए?”
“ जी कल आया था ।”
“घर नहीं आया । क्यों ?”
“जी, असल में ट्रेन पलवल स्टेशन पर थोड़ी देर रुकी थी, सो मैं वहीं उतर गया ।”
“अच्छा! वापस कब जा रहे हो ?”
“अगले सप्ताह । मामा जी घर में सब लोग कैसे हैं?”
“सब ठीक हैं।”
“ नानी जी कहां है ? नानी से बात करवाइए ।”
“माँ तो गाँव में है।”
“गाँव में …..?”
“हाँ ! माँ तो पिछले दो तीन महिनोंेें से गाँव में ही रह रही हैं।”
“मगर गाँव में किसके पास ? वहाँ तो कोई रहता ही नही?”
“अरे पगले! गाँव मतलब हमारे गाँव के पास जो दूसरा गाँव है ,जहाँ हमारी मौसी रहती है वहाँ।”
“मगर आप की मौसी जी तो अब जीवित है नहीं ।”
“हाँ मगर उनके बच्चे तो हैं, माँ उन्ही के पास रह रही हैं ।”
“मगर नानी जी दिल्ली छोड़कर वहाँ गाँव में क्यों चली गर्इं ।”
“अब क्या बताऊँ ? माँ का यहाँ मन नहीं लगता । कहती हैं कि मेरा तो यहाँ दम घुटता है। इसलिए एक दिन जिद्द करके गाँव चली गई।”
“अच्छा …..”
“अच्छा वापस जाते समय घर होकर जरूर जाना , ठीक है ।”
“जी अच्छा ।”यह कहकर मैंने फोन रख दिया । नानी का दिल्ली में न रहकर गाँव में रहने की बात ने मेरे मन में खलबली सी मचा दी , नानी अपने बच्चों के पास न रहकर अपनी बहन के बच्चों के पास रह रहीं हैं क्यों? कोई भला अपने भरे -पूरे परिवार को छोड़कर किसी दूसरे के घर में क्यों रहे ? आखिर बात क्या है ? मैं चलता जा रहा था और नानी के बारे में सोचता जा रहा था कि आखिर बात क्या हो सकती है, कही ऐसा तो नही कि मामाजी नानी को अपने पास रखना ही नहीं चाहते ,मुझे कुछ और ही कहानी तो नहीं सुना रहे हैं । वैसे तो मामाजी के पास किसी चीज की कमी है नहीं अच्छा खासा कमाते हैं दिल्ली शहर में दो - दो मकान है , दो - दो दुकाने चल रही है,और छोटे मामा जी भी कुछ ज्यादा ना सही पर कुछ न कुछ कमाते है ही । आखिर नानी वहाँ की सुख -सुविधाओंे को छोड़कर गाँव में क्यों रह रही हैं ? कहां तो नानी अपने पोते -पोतियोंे के बिना एक पल भी नही रह पाती थी और अब तो उन्हें तीन-चार महिने हो गए है। नानी के बारे में सोचता-सोचता बस स्टॉप तक जा पहुँचा । कुछ देर मैं बस स्टॉप पर बैठा रहा , कुछ समय बाद बस आई मैं बस में चढ गया , बस में चढकर खिड़की वाली सीट पर जाकर बैठ गया , बस में बैठा था किन्तु मेरा मन नानी के पास ही था , बार-बार यही सोच रहा था कि नानी दिल्ली छोड़कर गाँव में क्यों रह रही हैं? बस के चलने का समय हो चुका था बस अपने स्टॉप से धीरे-धीरे चल दी बस के चलते ही हवा के झोके आने लगे ,हवा के झोको के स्पर्ष से मुझे नींद आ गई, बस अपनी गति से चली जा रही थी, तभी देखा कि मैं अपनी ननिहाल में हूँ। “नानी जी नमस्ते।”
“अरे कंजर! आ गयो तू ? नानी ने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर उन्हें चूमा और मेरे सिर पर हाथ फेरकर मुझे आशीर्वाद दिया ।”
“और सुना घर पर सब कैसे हैं?”
“सब ठीक हैं ।”
नानी ने मेरे बैठने के लिए एक खाट बिछा दी थी , खाट पर बैठ गया और नानी से बाते करने लगा कुछ नानी की सुनी , कुछ अपनी सुनाई बातें करते -करते काफी समय बीत चुका था तभी मैंने पूछा-
“नानी , नानाजी कहाँ हैं ?”
“बेटा वो तो घेर (जहाँ पशुओं को रखा जाता है) पर हैं ।”
“अच्छा मैंें नाना जी से मिलकर आता हूँ ।”
“अरे! पहले कुछ खा-पी तो ले ,आ जाएंगे तेरे नाना।”
“बाद में खा-पी लूँगा पहले नाना जी से मिलकर आता हूँ।”
“बड़ो कंजर है मानेगो ना, अच्छा जा।”
“ठीक है । पहले नाना जी से मिल आऊँ।”
नाना जी से मिलने के लिए घेर की तरफ चल पड़ा । घर से घेर कुछ ही दूरी पर है। वहाँ पहुँचकर देखा कि नाना जी भैंसों को चारा खिलाने में लगे हुए हैं , जैसे ही नाना जी की नजर मुझपर पड़ी तो वे वहाँ से सीधे मेरी तरफ चले आए, मैंने उनके चरण स्पर्ष किए -
“नमस्ते नानाजी ।”
“अरे ! पाजी कब आयो ?”
“थोड़ी दे हो गई”
“घर गयो”
“हाँ घर पर नानी से मिलकर सीधे आपसे मिलने के लिए चला आया ।”
“अच्छा और सुना घर में सब कैसे हैं ?”
“जी, सब ठीक - ठाक हैं।”
“नानाजी से कुछ देर बात करने के पश्चात बोले ।”
“अच्छा तू बैठ, मैं जरा भैसों को और चारा डाल दूँ।”
“जी अच्छा ।”
मैने कमरे से एक खाट निकाली और नीम के पेड़ के नीचे बिछाकर बैठ गया। नाना जी अपने काम में जुट गए, नाना जी की उम्र लगभग सत्तर वर्ष होगी , इस उम्र में भी इतनी फुर्ती से कार्य कर रहे हैंे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। भैसों को चारा डालने के पश्चात नाना जी वापस आकर बोले -
“अच्छा ! बता क्या खाएगा - खरबूज या तरबूज?”
“नहीं नानाजी अभी कुछ खाने का मन नहीं है।”
“खाए तो बता अभी खेती से ताजा तुड़वाकर मंगवाता हूँ।”
“नहीं अभी नहीं।”
अच्छा ! तू यही बैठ मैं ज़रा भैसों को पोखर में पानी पिलाकर लाता हूँ, ये बेचारी भी गरमी से बड़ी परेशान हो रही हैं, थोड़ी देर पानी में लोट लगाएंगी तो इन्हें की आराम मिलेगा। कहकर नानाजी भैसों को पोखर की तरफ ले गए । मैं वहीं नीम के पेड़ के नीचे खाट पर बैठा गाँव का नजारा देख रहा था कोई अपनी भैसों से लगा है तो कोई अपनी भेड़ बकरियों की देखभाल में लगा है , दूसरी तरफ बच्चे रेत में खेलने में लगे हुए है। थोड़ी देर बाद मैं घर की तरफ चला गया । जैसे ही घर में घुसा तो देखा कि नानी ने एक बड़ा तरबूज काटकर रखा है। मुझे देखते ही नानी बोली
“मिल आयो अपने नाना ते ?”
“जी”
“आ ना रहे तेरे नाना ? कहा कर रहे है ?”
“नाना भैंसो को पोखर पर पानी पिलाने ले गए हैं।”
“अच्छा ठीक है - ले तरबूजो खा लै , हबाल ही ताजो मंगवायो है।”
“अरे नानी .........?”
“चल चुप चाप बैठजा और सगरे खा जइयो ।”
“इतना बड़ा तरबूज ? मैं अकेला कैसे खा सकता हूँ। नहीं बाबा मेरे से नहीं खाया जाएगा इतना बड़ा तरबूज।”
“अच्छा ठीक है ! तोपे जितनों खायो जाए उतनो खा लियो भली।”
“तभी नानाजी भी आ गए।”
आते ही नानाजी , नानी से बोले “सुन छोरा के लिए जल्दी खाने कू बना।”
“आलू उसीजने (उबलने ) के लिए रखे हैं। बस थोड़ी देर में बनाए देती हूँ।”
नानाजी भी मेरे साथ तरबूज खाने लगे , हम इधर - उधर की बातें करने लगे , तभी मैंने नाना जी से पूछा
“मामाजी कितने दिनों से गाँव नही आए ?”
“पिछले महीने ही आया था तेरा बड़ा मामा।”
“और छोटे मामा जी क्या वो नहीं आते यहाँ ?”
नाय तो , “वो भी आ जाता है महीने दो महीने एक आद चक्कर लगा जाता है।” कहकर नाना जी चुप हो गए। नाना - नानी को देखकर लग रहा था कि वे दोनों अपने बुढापे में एक दूसरे का साथ पाकर कितने खुश हैं। उन्हें इस बात का भी कोई मलाल नहीं कि बच्चे उनके पास न रहकर दिल्ली शहर में बस चुके हैं। दोनों बुढापे में एक दूसरे का सहारा बने हुए हैं । अपने निजी जीवन में ये दोनों कितने खुश हैं , कहने को तो दोनों बहुत खुश है पर कहीं न कहीं उन्हें बच्चों की याद सताती रहती है ,एक दूसरे से अपने मन की बातें करके अपने मन का गम हलका कर लेते हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी दोनों खेतों में मज़दूरी करके अपने खाने का स्वयं इंतज़ाम कर लेते हैं । जब फसल कटने का समय आता है दोनों मिलकर अपने साल भर के खाने के लिए अनाज का इंतजाम कर लेते हैं इतना ही नहीं भैसों के लिए भी भूसे का इंतजाम कर लेते है । यह घर भी कभी बच्चो से भरा रहता था किन्तु आज ये दोनों प्राणी ही रहकर अपना जीवन बिता रहे हैं, जिस घर को इन्होंने यह सोचकर बनाया था कि भविष्य में हमारे बच्चे इस घर में रहेंगे किन्तु ........?
किसी ने सही कहा है कि समय सदा एक सा नही होता । हाय रे बुढापा ........।

तभी अचानक बस के जोरदार ब्रोक लगे और मेरी आँख खुल गई। मैंने देखा कि मैं तो बस में बैठा हूँ , बस में भीड़ बहुत हो चुकी थी , थोड़ी देर के बाद मेरा बस स्टॉप आ गया , बस से उतरकर नानी के पास जाने के लिए घोड़ा गाड़ी में बैठकर गाँव की तरफ चल दिया । चारो तरफ हरियाली ही हरियाली मानो धरती माता ने हरी चुनरिया ओढ़ रखी हो , कहीं सरसों के पीले फूल महक रहे थे तो कहीं गन्ने की हरियाली तो कहीं धान की फसल की हरियाली । हरियाली देखते -देखते गाँव भी आ गया । तांगेवाले को पैसे देकर घर की तरफ चल दिया । नानी घर के बाहर ही खाट पर बैठी अपनी हुकिया( हुक्का) पी रही थी । नानी के पास जाकर मैंने चरण स्पर्ष किया , मुझे देखकर नानी चौंक पड़ी । “अरे जी! कंजर कहाँ ते आ गयो ? आ आजा बैठ जा।”
“और सुना कहकर नानी ने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर उन्हें चूमा और मेरे सिर पर अपना स्नेह भरा हाथ फेरकर मुझे आशीर्वाद दिया ।”
“बाल-बच्चे सब ठीक - ठाक हैं।”
“हाँ नानी सब ठीक-ठाक हैं । आप कैसी हैं ?”
“ठीक हूँ ।” तभी नानी ने बाहर बैठे-बैठे ही आवाज लगाई “अरी लाली पानी लइयो , देखियो भैया आयो है।” नानी की आवाज सुनकर मामी जी पानी से भरा लोटा और एक गिलास लेकर आ गर्इं । मामीजी को देखकर मैंने उनसे नमस्कार किया –
मामी जी ने मेरा हाल चाल पूछा और घर की राजी-खुशी पूछकर वे अंदर चली गर्इं। नानी ने अपने लिए नई चिलम लगा ली थी, मैं नानी जी के साथ ही बाहर खाट पर बैठा था , नानी जो हुकिया पी रही थी उसका धुआँ मेरी तरफ आ रहा था , यह देखकर नानी ने मेरे लिए एक अलग से खाट बिछवा दी और मैं उस पर जाकर बैठ गया । यात्रा की थकावट को दूर करने के लिए थोड़ी देर लेट गया । शाम का समय था सभी लोग अपने -अपने कामों में लगे हुए थे। घर के अंदर मामीजी खाना बनाने की तैयारी में लगी थी । घर के अंदर दो भैंसे बंधी थी वहीं दूसरी तरफ बच्चे खेल रहे थे , घर ज्यादा बड़ा नहीं था किन्तु घर में रहने वाले सभी प्राणियों का दिल बहुत बड़ा है। वहाँ बैठे-बैठे मेरे मन में बार-बार एक ही प्रश्न उठ रहा था कि आखिर नानी अपने बच्चों को छोड़कर यहाँ गाँव में क्यों रह रहीं हैं ? तभी मामाजी भी वहाँ आ गए । मुझे देखकर मामा जी का चेहरा खिल उठा , मैने उनसे नमस्कार किया उन्होंने मेरा हाल-चाल पूछा और आपस में बातें करने लगे तभी मामाजी ने घर के भीतर आवाज लगाई ।
“अरे! सुनो ।”
मामाजी की आवाज सुनकर मामाजी की बड़ी लड़की बाहर आई ।
“क्या बात है?”
“अरे लाली ! भैया के लिए कुछ चाय नाश्ता तैयार किया कि नही?”
“हाँ माँ चाय बना रही है। बस दो मिनट में लेकर आती हूँ” कहकर लाली घर के भीतर चली गई। थोड़ी देर के बाद तीन कपों में चाय ,नमकीन,बिसकिट हमारे सामने लाकर रख दिये। नमकीन ,बिसकिटों को देखकर मैंने कहा कि “नमकीन ,बिसकिटों की क्या ज़रुरत थी चाय ही काफी थी।
“अरे! खा, खा तू कौन सा रोज - रोज आने वाला है?”

हम तीनों ने चाय पी और आपसी बातें करने में लग गए । मामा जी की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नही है अगर यह कहा जाय कि मामा जी की आर्थिक खराब है तो कुछ गलत नहीं होगा। आर्थिक स्थिति भले खराब हो किन्तु इनका दिल ,स्वभाव बहुत अच्छा है। भला इस जमाने में अपने बूढे माँ -बाप की सेवा से जी चुराने वालों की कमी नहीं वहीं एक गरीब व्यक्ति जिसके पास गरीबी चारो तरफ हाथ पसारे बैठी है, उसे अपनी बूढी मौंसी की सेवा करने में कोई आपत्ती नहीं है। यहां पर नानी जी घर के कामों में मामी जी का हाथ बटाती है, घर के कामों में ही नहीं बल्कि खेतों में मज़दूरी के कामों में भी इनका बराबर हाथ बटाती हैं। तभी मामाजी को किसी ने बाहर से आवाज दी , मामाजी उस आदमी के साथ चले गए शायद कोई ज़रुरी काम होगा । मामाजी के जाने के बाद मैंने नानी की तरफ देखा तो उनके हँसतेे चेहरे के पीछे किसी दुख की परछाई साफ नजर आ रही थी। नानी की चिलम भी ठंडी हो चुकी थी अब नानी शांत मुद्रा में बैठी कुछ सोच रही थी । मैने उन्हे आवाज़ दी -
“नानी , नानी मेरी आवाज सुनकर नानी अपनी शांत मुद्रा से जागती हुई बोली क्या बात है ?”
“नानी क्या सोच रही हो ?”
“कुछ नही बेटा ।”
मुझे उनके जवाब से संतुष्टि नहीं हुई , मैने फिर पूछा “क्या बात है ? नानी आप क्या सोच रही हो?”
“कुछ नही बेटा , कोई बात नहीं है।”
बातों ही बातों में नानी से पूछा कि “नानी आप दिल्ली से यहाँ क्यों चली आर्इं ?”
“यूँ ही वहाँ मेरा मन नहीं लगता । उन बंद घरों में मेरा तो दम घुटता है खुली हवा का तो वहा नामोंनिशान तक नहीं और फिर घर में बैठे -बैठे मेरा दम घुटता है, या मारे गाम कू चली आई यहाँ कम ते कम खुला माहौल तो है, शुद्ध हवा तो मिलती है।”

नानी कह कुछ रहीं थी, किन्तु उनके चेहरे के हाव-भाव कुछ और नजर आ रहे थे ऐसा लग रहा था कि नानी मुझसे कुछ छिपा रही हैं ।
“नानी आखिर बात क्या है? वहाँ आप का मन नहीं लगता या कोई और बात है। यह सुनकर उन बूढ़ी आँखों में आँसू भर आए । नानी की आँखों में आँसू देखकर, मैं अपनी खाट के उठकर उनके पास जाकर बैठ गया ,उन्हें अपनी बाहों में भरकर पूछा आखिर बात क्या है? आप रोने क्यों लगी?”
“कुछ ना बस यो ही आँखन ते आँसू निकल आए गि तो खुशी के आँसू हैं।”
“नहीं नानी कुछ न कुछ तो है जो आप मुझे बता नहीं रहीं हैं।”
“कुछ ना बेटा आँसुन को कहा है गि तो यों ही आँखन में आ जामें ।”
“नहीं ,नहीं कोई न कोई बात तो जरूर है , आखिर बात क्या है ? आप रोने क्यों लगी आप दिल्ली से यहाँ गाँव में क्यों आ गई ? वहाँ पर तो आप को किसी चीज की कमी नहीं , दोनों मामा अच्छा खासा कमाते हैं । आप वहीं बच्चों के पास क्यों नहीं रहती ?” यह सुनकर नानी की आँखों से आँसू जोर-जोर से गिरने लगे , वह फफक फफककर रोने लगी । मैने उन्हें अपने सीने से लगाकर चुप कराया , जब नानी चुप हो गई तब पूछा अब बताओ “आप रो क्यों रही हो ?”
“भैया जब बच्चे शादी शुदा हो जाते हैं तब उन्हें बूढ़े माँ-बाप बोझ लगने लगते हैं , और जब बच्चे अच्छा खासा कमाने लगें तो उन्हें बूढ़े माँ-बाप मखमल की चादर में टाट का सा पैबंद लगने लगते हैं ,उनकी खुशियों में रुकावट से महशूस होने लगते हैं ।”
“आखिर बात क्या है …….?”
“बेटा जब से तेरे नाना का स्वर्गवास हुआ है तब से इस बुढ़िया की तो यही हालत है। कभी दिल्ली बच्चों के पास चली जाती हूँ तो कभी यहाँ चली आती हूँ। जब तक तेरे नाना जीवित थे तब तक दोनों प्राणी अपना जीवन एक दूसरे के सहारे काट रहे थे , शायद ई·ार को हमारा सम्मानजनक जीवन जीना रास नहीं आया । तेरे नाना मुझे यहाँ अकेला छोड़कर खुद तो चले गए । मुझे दर -दर भटकने, किडर-किडर कर जीने के लिए छोड़ गए। इससे अच्छा होता कि रामजी मुझे भी उठा लेता कम से कम यह सब तो न देखना पड़ता । भरे पूरे परिवार के होते हुए भी मैं अभागिन इधर -उधर मारी -मारी फिरती हूँ । कभी यहाँ तो कभी कहीं और वाह रे राम जी........ तेरी माया…?”
“नानी,मामाजी आप को अपने पास रखना नहीं चाहते या फिर आप उनके पास नहीं रहना चाहती?”
“अरे भैया! इसमें तेरे मामा का कोई दोश नहीं , मेरी किस्मत ही फूटी है। आज मेरे पास कोई धन -दौलत नहीं है ? न कोई ज़मीन - जायदाद ? न कोई जमा पूंजी ? मैं बुढ़िया उन लोगों के लिए किस काम की । उनकी पत्नियों को मुझ बुढ़िया से बास आती है। अब तू ही बता बेटा जब मेरा शरीर नहाने के लिए पानी मांगता ही नहीं तो मैं कैसे रोज-रोज नहा लू और अगर मैं नहा भी लेती हूँ तो मेरे जोड़ों में दर्द शुरु हो जाता है । सारे शरीर में दर्द होने लगता है । जोड़ों के दर्द की पीड़ा से अकेली कमरे में पड़ी कराहती रहती हूँ, वहाँ यह पूछने वाला भी नही कि माँ क्या हुआ ?आप क्यों कराह रही हो? जब शाम को तेरा मामा दुकान से आता है मुझे बैठक वाले कमरे में न पाकर सीधा मेरे पास आएगा मेरा हालचाल मालुम करके दवा गोली दे देता है। बाकी तो वहाँ मैं एक अछूत के समान पड़ी रहती हूँ । कोई बात करने वाला नही,कोई पूछनेवाला नहीं । अकेली छत पर इधर से उधर भटती रहती हूँ।”
“अच्छा ! तो बच्चे भी आपके पास नहीं आते? क्या उन्हें भी आप से कोई लगाव नहीं ?”
“अरे ! बेटा बच्चे भी तो अपने माँ-बाप से ही सीखते हैं । बहु तो बहु बच्चों के पास भी समय नही कि वे मेरा हाल चाल पूछ सके अब तुझे तो पता है कि मुझे हुकिया पीने की आदत है मेरे हुकिया पीने से उनके घर में बास फैलती है। वहां उन लोगो को मेरा हुकिया पीना ही खटकता है । मैं बिना हुकिया के नही रह सकती यह बात उन्हें भली भांति पता है फिर भी ................? अकेली छत पर पड़ी रहती हूँ। सुबह तेरा मामा चाय के लिए बुला लेता है तो मैं नीचे चली जाती हूँ । एक गिलास चाय पीकर मैं फिर वापस छत पर आ जाती हूँ क्योंकि मेरे नीचे जाते ही बहु का चेहरा बदल जाता है यह देखकर मुझसे वहाँ नहीं रहा जाता । तेरा मामा तो दुकान पर चला जाता है । मैं बेसहाराओंें की तरह छत पर इधर से उधर भटकती रहती हूँ । कोई यह तक कहने वाला नही कि माँ आप अकेली छत पर क्यों घूम रही हो आकर नीचे कमरे में बैठ जाओ, मैं अपनी मरजी से चली जाउँ तो ठीक है नहीं तो कोई पूछने वाला तक नही । मेरे हुक्का पीने से उन लोगों को मुझसे बास आती है ।”

“ठीक है बड़े मामा के यहाँ आपका मन नहीं लगता ,छोटे मामा भी तो हैं वहां पर आप उनके पास क्यों नहीं रहती ? वो तो आपसे बहुत प्यार करते हैं बच्चे भी आपकी इज्जत करते है,फिर आप वही बच्चों के साथ क्यों नही रह लेती ?” “अरे ! बेटा केवल बेटे के चाहने से क्या होता है। बेटा तो चाहता है कि मैं उसके साथ रहूँ किन्तु उसकी महारानी (पत्नी ) है ना वह भी कुछ कम नहीं है। वैसे भी छोटे का अक्सर हाथ तंग रहता है । इस महगाई के जमाने में चार बच्चों को पालना कोई मामूली बात नही , उसकी इतनी आमंदनी नहीं कि इतना बोझ उठा सके पर फिर भी वह तो चाहता है कि मैं उसके पास ही रहूँ।”
“ठीक है छोटे की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है किन्तु बड़े तो ई·ार की कृपा से अच्छा खासा कमाते हैं । उन्हें तो किसी चीज की कमी नहीं उनकी तो दो-दो दुकाने है साथ ही साथ दो घर भी है उन दोनों घरो में आपके लिए एक कमरा तक नहीं है उनके पास…?”
“बेटा जब उन्हें मेरी जरूरत ही नही तो फिर रहने या न रहने का सवाल ही नहीं उठता। जब उन्हें माँ की जरुरत ही नहीं और होगी भी कैसे जब उनके सास ,ससुर और साला जो है उनके आगे मेरी क्या जरुरत ? वैसे भी बहुओ को कितना भी बेटियों की तरह प्यार करो बहु कभी बेटी नहीं बनती उनके लिए तो सास हमेशा सास ही रहती है वह कभी माँ नहीं बनती। और फिर जब उनके अपने माँ-बाप साथ में है तो मेरी हैसियत ही क्या मैं आखिर सास जो हूँ। सास तो सदा से बहुओं की आँखों में खटकती रही है।”
“वह सब तो ठीक है जब वे लोग इतने लोगों को अपने साथ रख सकते है तो क्या आप के रहने के लिए एक कमरा , तीन वक्त की रोटी तक नही है उनके पास ।”
“उन्हें मेरे दो वक्त की रोटी नहीं मेरा वहाँ रहना खटकता है, यूँ तो उनके सास-ससुर के लिए रोज सुबह -शाम बादाम का दूध पिलाया जाता है ,खूब काजू किश्मिश का भोग लगता है फिर मेरे दो वक्त की रोटी का सवाल कैसे आए। अब भैया तू ही बता कि मैं कैसे वहाँ घुट- घुट कर जीऊँ............ ?”
“मामा जी कुछ नहीं कहते?”
“भैया अब मामा भी कितना कहे जब ज्यादा कुछ कह देता है तो फिर घर में कलह शुरु हो जाता है। अब मेरी वजह से घर में कलह हो यह मुझसे नहीं देखा जाता। एक-दो दिन की बात हो तो ठीक है रोज-रोज मेरी वजह से घर में कलह हो यह भी तो अच्छी बात नहीं । अब मेरा क्या है मैं तो जीवन के अंतिम पड़ाव पर हूँ। मेरी वजह से घर में बच्चों को परेशानी हो यह मुझसे नहीं देखा जाता । मैं तो अपने बचे कुचे जीवन को जैसे तैसे काट लुँगी ,भगवान उन्हें सदा खुश रखे , वो सदा फले- फूले दिन- रात उन्नती करें मेरा क्या .............? मैं वहाँ से ज्यादा खुश तो यहाँ गाँव में ही हूँ यहाँ कम से कम खुली हवा और सम्मान की रोटी तो मिलती है ।”
“ यहाँ पर मुझे किसी प्रकार का कोई कस्ट नहीं है ,और फिर ये भी तो अपने ही बच्चे हैं । बहन का बेटा भी तो अपना बेटा ही हुआ। भले ही मैने इसे अपनी कोख से जन्म नहीं दिया तो क्या जिन्हें अपनी कोख से जना है उन्हेंे तो मेरी कोई जरूरत ही नहीं । यह बेचारा गरीब है लेकिन है दिलवाला भले ही इसके पास धन-दौलत न हो लेकिन प्यार, अपनापन खूब है इसकी गरीब कुटिया में। मुझे अपनी माँ की तरह ही रखता है कभी भी मुझे किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने देता । इसका पूरा परिवार मेरी खूब सेवा करता है पति पत्नी बच्चे सभी मेरी खूब सेवा करते हैं।यहाँ मैं कम से कम खुली हवा में चैन की सांस तो ले सकती हूँ, अपना दुख दर्द बाटने के लिए आसपास के लोगों से बात तो कर सकती हूँ ,वहाँ तो मैं अकेली छत पर भटकती रहती थी । इसे भी तो मैने ही पाला पोसा है जब यह छोटा था तभी इसकी माँ इसे छोड़कर चल बसी थी , तब से मैंने ही इसे पाला-पोसा था । जब मैंने इसे पाला पोसा था अब यह बेचारा मुझ बुढ़िया को पाल पोस रहा है।”
“अब तू ही बता कि मैं कहा रहूँ वहाँ जहा मेरी कोई जरूरत ही नही या वहाँ जहाँ प्यार है, अपनापन है । और फिर मैं वहाँ क्यों जाऊँ जहाँ मेरी जरूरत ही नहीं ? वहाँ जाकर क्यों मैं उनकी खुशहाल ज़िन्दगी में दुख भरूं मेरे वहां जाते ही घर में कलह शुरू हो जाएगी इससे तो मैं यही ठीक हूँ। कम से कम यहाँ शांति से तो जी रही हूँ।”
“अच्छा ठीक है । कम से कम मामा जी आप को आपके खर्चे पानी के लिए पैसा भैजते है या वह भी नहीं ? यह सुनकर नानी चुप हो गई । क्या हुआ नानी आप चुप क्यों हो गई ? क्या दोनों में से कोई भी आप को पैसे नहीं भेजते।” “अरे ! भैया उन्हें क्या जरूरत है मुझे पैसे वैसे भेजने की । कोई एक फूटी कौड़ी भी नहीं भेजता और मुझे उनके पैसे चाहिए भी नहीं अभी तो ई·ार की कृपा से हाथ-पाँव चल रहे हैं । अपना इंतजाम खुद कर लेती हूँ । तेरा यह मामा है ना इसके सहारे जीवन कट रहा है । अब ये बेचारे भी कितना करेंगे फिर भी अपनी श्रद्धा से बेचारे मेरे लिए कुछ न कुछ करते ही रहते है मुझे कुछ काम करने ही नहीं देते कहते है कि आप चुपचाप खाट पर बैठी रहा करो हम हैं न काम करने के लिए आप को काम करने की कोई जरूरत नहीं है।”
“बेटा मैं घर पर ही रहकर घर के कामों में हाथ बटाती रहती हूँ । मेरा घर पर काम करना भी तेरे मामा को अच्छा नही लगता कहता है मौसी आप आराम से खाट पर बैठी रहा करो काम करने के लिए बच्चे हैं ना फिर आप क्यो काम करती हो,आप बस खाट पर बैठी रहा करोे और आराम किया करो किसी चीज की जरूरत है तो बच्चों से कह दिया करो । अब बेटा जिन्हें मेरी जरूरत नही वहाँ जाकर क्यों मैं अपनी दुरगति करवाऊँ। यहाँ रहकर अपना वक्त काट रही हूँ अब जीवन का क्या है बस रामजी से प्रार्थना करती हूँ कि हे! रामजी हाथ पाँव के चलते में ही तू मुझे उठा लेना ।” “वहाँ पर बच्चों के पास धन-दौलत है किन्तु बूढ़े माँ-बाप को रखने के लिए जगह नहीं है। यह बेचारा गरीब धन दौलत से सही लेकिन दिल का बहुत अमीर है इसके मुकाबले में कोई टिकता ही नहीं -भगवान इसे सदा खुश रखे । वाह रे रामजी तेरी माया क्या तुझसे मांगा और क्या पाया...........?”
नानी की सारी कहानी सुनकर मेरे मन में एक व्यथा सी उत्पन्न हो गई । आखिर जीवन है क्या.....? धन-दौलत इकट्ठी करना , बच्चों को पालना , खाना -पीना ऐश करना क्या यही जीवन है ? आखिर क्यों मानव अपने बीते कल सेे मुँह मोड़ता है? क्या माँ-बाप का ही फर्ज है बच्चों को पाल पोसकर बड़ा करना उन्हे अच्छी शिक्षा दिलाकर उनके जीवन की नीव को मजबूत करना । बच्चों की अपने माँ-बाप के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं । जिन्हें माँ-बाप ने बड़ी मिन्नतो से माँगा था वही बच्चे बड़े होकर बूढ़े माँ-बाप का तिरस्कार करते है सोचो उन के दिल पर क्या बीतती होगी जिनकी एक खुशी के लिए उन्होंने हर कुर्बानी दी अपनी इच्छाओं को दबाकर उन्हें खुशी दी उनकी हर इच्छा को पूरा किया । जब वही बच्चे बुढ़ापे में माँ-बाप से गैरों सा व्यवहार करते है तो सोचो उन माँ-बाप के दिल पर क्या बीतती होगी, उस माँ के कलेज पर क्या बीतती होगी जिसे उसने अपनी कोख में नौ मास रखकर पालन -पौषण किया था। खुद दुख सहकर सदा अपनी संतान के सुख की सोचने वाली माँ जब असहाय हो जाती है तो बच्चे क्यों उसका तिरस्कार करते है वैसे तो देवी माँ का दिन रात जागरण करवाते है ,लेकिन जिस माँ ने देवी माँ से बड़ी मिन्नते करके उस लाल को मांगा था आज उस लाल को यह तक नही पता कि उसकी जननी किस हाल में जी रही है । जरा सोचो उस माँ का दिल कितना रोता होगा जिसके लालों को उसकी हालत की जानकारी ही नहीं ,जो अपने भरे - पूरे परिवार को छोड़कर दर -दर भटकती फिर रही है अपने लिए आश्रय मांगती फिर रही हो।यदि हमारे समाज में यही चलता रहा तो एक दिन ऐसा आएगा जब माँ-बाप संतान की चाह ही नहीं करेंगे । आखिल आज की पीढी को भी सोचना होगा कि आज जो वे अपने बूढ़े माँ-बाप के साथ कर रहे है कल बूढ़े होने का समय उनका है ,उन्हे भी बूढ़ा होना है...........आज जो वे अपने बूढ़े माँ-बाप के साथ कर रहे हैं कल उन्हें भी वहीं मिलेगा......तब उन्हें अहसास होगा माँ-बाप के दिल का दर्द । यह तो सच ही है जैसा बोओगे कल वैसी ही फसल तैयार होगी , वही आगे चलकर ब्याज के साथ मिलेगा।


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