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Friday, November 6, 2009

जब भी मैंने जीना चाहा

जब भी मैंने जीना चाहा ,मौत का गम डरा गया
जब भी पाना चाहा साथ तेरा ,जुदाई का गम डरा गया
अब तो ऊब गया हूँ यूँ डर-डर कर जीने से
जी में आया तोड़कर सारे बंधन उड़ जाऊँ नील गगन में।

जागी हैं मन में एक नई आशा
जागा है जीने का नया भरोसा
बनकर पंछी जा बैठूँ उस शान्ति वन में
जहाँ मन में रहे न कोई आशा और अभिलाषा
जब भी कुछ पाना चाहा ,गम का दर्द डराकर चला गया
जब भी मैंने जीना चाहा ,मौत का गम डरा गया।

लगाकर दिल किसी से मन में जागी एक नई उमंग
न जाने क्यों दिल धड़कता है लेकर उनका नाम
अब पाना उनको जीवन का है लक्ष्य मेरा
जब पहुँचे मंज़िल पर तो उनके धोखे ने हिला दिया।
जीवन की राह पर वो छोड़ गए साथ पुराना
जब भी मैंने जीना चाहा ,मौत का गम डरा गया।


लाख भुलाना चाहा उनको लेकिन भुला न पाए
देकर अपनी यादों की आहुती भी उनको भुला न पाए
जब उनको चाहा था अपनाना वो मझधार में छोड़ गए साथ पुराना
जब भी मैंने हँसना चाहा उनका चेहरा रुला गया
जब भी मैंने जीना चाहा मौत का गम डरा गया।

1 comment:

  1. wah ! kya likha ho.ek acche kavi ki yahi pahchaan hain.
    shiva ante jawabhe ledu.
    rama

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