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Wednesday, March 28, 2012

पुलिया



जब भी मैं गाँव की उस पुलिया से गुजरता तो मेरी नजरे उस स्त्री पर जाकर अटक जाती  जो वर्षों से इसी पुलिया के पास अपना बसेरा बनाकर रह  रही है | एक झोपड़ी और उस झोपड़ी के बहार चार –पाँच घड़ों की कतार | सुबह से शाम तक जितने भी वाहन उस सड़क से गुजरते वह स्त्री उन सभी यात्रियों को पानी पिलाती और फिर अपने झोपड़ी में जाकर बैठ जाती| ऐसी कोई  बस न होगी जो वहाँ ना रुकती हो जब भी बस आकार रुकती वह अपने एक बड़े से जग में पानी भर कर पानी पिलाने को तैयार रहती, जो भी मुसाफिर बस से उतरता वह उन्हें मातृत्व भाव से पानी पिलाती और अपने आप को तृप्त सा अनुभव करती | ऐसा नहीं था कि वह पानी पिलाने का काम किसी कमाई के लिए या किसी अन्य स्वार्थ के लिए करती थी | वह तो इस काम को निस्स्वार्थ भाव से करती थी | उसकी इस निस्स्वार्थ भाव सेवा को देखकर मेरे मन में उसके विषय में जानने की इच्छा हुई |
उस पुलिया के पास एक विशाल पीपल के पेड़ के नीचे एक चाय वाले की छोटी सी दुकान थी | अपनी जिज्ञासा को शांत करने और अपने मन में उठे सवालों के जवाबों के लिए  मैं उस दुकान पर चला गया | बातों ही बातों में मैंने चायवाले से उस स्त्री के विषय में बात छेड़ी पहले तो वह समझ ही नहीं पाया कि मैं किस स्त्री के विषय में बात कर रहा हूँ जब मैंने उसे पानी पिलाती स्त्री की तरफ इशारा करके पूछा तब उसकी समझ में आया |
ओ......... आप सावित्री बहन के बारे में पूछ रहे हैं ...
हाँ ...
भैया - एक समय था जब उसका एक हँसता –खेलता सुखी परिवार था | आज वह इस संसार में एक दम अकेली है | एक दिन की बात है जब उसका पति और बेटा फसल से लदी हुई बुग्गी(बैल गाड़ी) एक खेत से दूसरे खेत आर ले जा रहे थे कि इसी पुलिया पर एक तेज रफ़्तार से आते हुए ट्रक ने बुग्गी को पीछे से ऐसी टक्कर मारी कि बुग्गी सीधे  सड़क से नीचे खड्डों में जा गिरी दोनों बाप –बेटे उस फसल से लदी बुग्गी के नीचे जा दबे | आस –पास खेतों में काम कर रहे कुछ किसानों ने इस घटना को देखा देखते ही वे लोग अपना –अपना काम छोडकर भागे और सभी लोगों ने मिलकर उस बुग्गी  को सीधा किया और नीचे दबे दोनों बाप –बेटे को बाहर निकाला | बाप ने तो घटना स्थल पर ही दम तोड़ दिया लेकिन बेटे की साँसे अभी तक चल रही थीं | दुर्घटना की खबर पाकर सावित्री  भी वहाँ पहुँची पति की लाश और बेटे की टूटती साँसे देखकर वह हताश हो गई | इधर गाँव के लोगों ने उसके बेटे और पति को एक पेड़ की छाँव में लाकर लिटा दिया था | बेटे की टूटी साँसों को देखकर वह बदहवास सी फफकर रोती जाती और आसपास खड़े लोगों से उसके बेटे को बचाने  की गुहार करती जाती | किसी भी  गाँव वाले के पास ऐसा कोई साधन ही नहीं था कि जल्द से जल्द उसके बेटे को पास ही के कस्बे के अस्पताल पहुँचाया जा सके | इसी बीच बेटे के मुँह से माँ... शब्द सुनकर वह उसे अपनी गोद में लेकर बैठ गई ......अपनी टूटती साँसों को जानकर बेटा भी माँ की गोद में तड़प रहा था | अपने जवान बेटे को इस प्रकार तडपते देखकर वह बार –बार ईश्वर से विनती करती जाती कि उसकी गोद को सूनी ना करे मांग तो उसने सूनी कर दी कम से काम उसकी गोद तो सूनी ना करे ........ तभी बेटे के  मुँह से माँ ....प ..पानी ......पानी सुनकर वह इधर उधर देखने लगी .... बेटे के लिए पानी लेने के लिए वह इधर –उधर दौड़ी लेकिन वहाँ आस पास पानी का नामोनिशान तक न था .. वह बदहवास  माँ अपने लाल को बचाने के लिए वहाँ खड़े हर एक व्यक्ति से फरियाद कर रही थी | कुछ लोग पानी लेने के लिए दौड़े .. लेकिन जब तक वे लोग पानी ला पाते उसके बेटे की साँसों ने उसका साथ छोड़ दिया | एक तरफ पति की लाश दूसरी तरफ बेटे की ...इस हादसे  ने उसे पूरी तरह तोड़ कर रख दिया था | जब से यह हादसा हुआ था तब से वह केवल एक बुत के सामान जी रही थी | उस दिन से ही उसने  यह निर्णय लिया कि वह इस पुलिया के पास पानी पिलाने का काम करेगी | उसी दिन से ही वह  अपना धर्म समझकर इस काम को कर रही है |
    ऐसा नहीं है कि वह केवल गर्मियों में ही मुसाफिरों को पानी पिलाती है | वर्ष के सभी मौसमों में उसका काम है सुबह उठना और उन चारों  घड़ों को धोना और पास के गाँव के  कुंए से पानी खींचकर उन घड़ों को भरकर झोपड़ी के पास लाकर रखना यही उसकी दिनचर्या बन गई है | अब तो उसकी झोपड़ी पर ना केवल मनुष्य पानी पीते हैं बल्कि पशु –पक्षी भी अपनी प्यास बुझाने आते हैं | इसकी झोपड़ी से कोई भी प्यासा नहीं लौटता | जब  फसल कटाई का समय आता है उन दिनों में वह नित्य सुबह ही उन घड़ों को भरकर खेतों में मजदूरी करने के लिए चली जाती | सुबह से दोपहर तक खेतों में मजदूरी करती दोपहर बाद वह सड़क पर बनी अपनी झोपडी में वापस आ जाती | ऐसा नहीं था कि उसके पास घर नहीं है , गांव में उसके पास एक पक्का मकान है  लेकिन वह उस में ना रहकर उस झोपडी में ही रहती है उस घर में बस वह अपना सामन रखती और सुबह शाम खाना बनाकर खा आती है | इसकी इस निस्स्वार्थ भाव सेवा के कारण आस – पास के गाँवों में इसकी बड़ी इज्जत की जाती है | उस स्त्री की दर्द भरी कहानी सुनकर मेरी आँखें  भी नम हो गयी | कुछ देर वहाँ बैठने के बाद मैं घर की तरफ चला आया .... बार –बार मेरा मन यही कह रहा धन्य है वह स्त्री जिसने अपने दुखों को भुलाकर समाज सेवा की यह एक अनोखी पहल की है ..|
 

11 comments:

  1. नमस्ते शिवकुमार जी
    आपकी कहानी पुलिया ने सोचने पर विवश दिया...मन भर आया..

    अच्छी कहानी हमेशा की तरह..
    बधाई..
    अमित अनुराग हर्ष

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  2. ्यही जीवन सार्थक जीवन है निस्वार्थ सेवा।

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  3. Sir,
    it is a good story.

    best luck
    Upendra

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  4. Shiv Sir,

    Indeed a great work Savitri was doing.

    Nice Story!!
    Regards
    Shubhangi

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  5. It's really true, paropkar parmo dharm

    Thanks
    Tanmay

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  6. निस्वार्थ भाव को बेहद खूबसूरती से उजागर किया है आपने..

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  7. अमित अनुराग जी ,वंदना जी , उपेन्द्र जी , सुभांगी जी , तनमय जी और ब्रिजेन्द्र सिंह जी आप सभी का बहुत -बहुत धन्यवाद जो आपलोगों ने अपने कीमती समय से कुछ समय मेरी रचना "पुलिया "के लिए निकाला और अपने सुझाव दिए ...
    धन्यवाद

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  8. आपकी पुस्तक की प्रतीक्षा है अब.
    कब तक?

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  9. Sir,

    I read this story this morning and your story has inspire me to do the same act of kindness this summer.

    thank you
    Radhika

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  10. सर हर बार की तरह इस कहानी ने भी मन को छु लिया
    सर हम जानते है किआपके कहानी भंडार में बहुत सारी कहानियां हैं हम कुछ ऐसी कहानियां भी पढना चाहते है जो लोगो को हंसाये

    धन्यवाद्

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