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Wednesday, December 1, 2010

आकृति

अमित सोफ्टवेयर कम्पनी में कार्यरत है। कम्पनी ने अमित को 20 दिनों की ट्रेनिग के लिए मुंबई भेजा है। मुंबई शहर.......... सपनों का शहर, सुना है यहाँ कभी रात ही नहीं होती  सड़को पर दौड़ती -भागती ज़िदगी...। इसी शहर में जब अमित पहुँचा तो उसे  यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि इस शहर के लोग कभी सोते भी हैं कि नहीं दिन-रात सड़कों पर ही दौड़ते -भागते रहते हैं। कम्पनी ने अमित के रहने की व्यवस्था एक गेस्ट हाउस में की थी जो शहर के बीचों बीच था। अमित ने यहाँ अपनी बीस दिनों की ट्रेनिग खत्म की और वह दिन आ ही गया जब अमित को अपनी ट्रेनिग खत्म कर वापस अपने शहर इंदौर जाना है। आज सुबह उठते ही वह अपने सामान को एक सूटकेस में रखने लगा । तभी उसे याद आया कि उसकी वापसी की टिकिट तो कन्फर्म नहीं थी। टिकिट की स्थिति जाँचने के लिए उसने जल्दी से अपना लेपटॉप निकाला और टिकिट की जाँच इन्टरनेट पर की तो पता चला कि उसकी टिकट कन्फर्म हो गई है। उसकी ट्रेन सुबह 11.30 बजे की है, 11.30 को ध्यान में रखते हुए वह अपने गेस्टहाउस से एक घंटे पहले ही निकल गया था । उसने मुंबई के ट्रेफिक को इन पिछले 20 दिनों में देखा और जाना था कि किस तरह का ट्रेफिक रहता है । गेस्ट हाउस से मुंबई रेलवे स्टेशन तक पहुँचने में उसे तीस से चालीस मिनिट का समय लगा था । वह स्टेशन पर चालीस मिनिट पहले ही पहुँच चुका था ।

स्टेशन पहुँचकर सबसे पहले उसने अपना सामान क्लोक रुम में रखा। सामान रखने के बाद  एक कप चाय ली और पास ही एक किताब की दुकान पर चला गया जहाँ उसने तीन -चार किताबें खरीदीं। किताबें खरीदने के बाद एक बेंच पर जाकर बैठ गया और अपनी चाय का आनंद लेते हुए वहाँ के नज़ारे को निहारने लगा।  यह समय  मुबई की लाइफ लाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेनों  का था । शायद इसी लिए स्टेशन पर भीड़ और अधिक बढ़ गई थी। चारों तरफ भीड़ ही भीड़ नज़र आ रही थी । हर एक को अपनी गाड़ी पकड़ने की जल्दी थी । तभी अमित ने अपनी ट्रेन के विषय में सुना कि वह ट्रेन प्लेट फॉर्म पाँच से जाएगी । अमित एक नम्बर प्लेट फार्म पर बैठा था जैसे ही उसने सुना कि गाड़ी पाँच नम्बर के प्लेट फार्म से जाएगी वह अपना सामान उठाकर पाँच नम्बर के प्लेटफार्म की ओर चल दिया, जाकर देखा कि गाड़ी पहले से ही प्लेट फार्म पर खड़ी है । वहाँ पहुँचकर उसने सबसे पहले अपनी बोगी खोजी जिसमें उसे बैठना था। वह शायद पहले आ चुका था क्योंकि अभी तक डिब्बे (बोगी) में इक्का -दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे। उसने अपनी सीट खोजी और वहाँ जाकर अपना सामान रखकर बैठ गया। धीरे -धीरे यात्री आने लगे । एक – एक कर  11.30 तक सारी बोगी में यात्री आ चुके थे । सब लोग अपना -अपना सामान अपनी सीटों के नीचे लगाकर  बैठ चुके थे कुछ यात्रियों का आना अभी जारी था । 11.35 का समय हुआ और गाड़ी अपने स्थान से धीरे - धीरे चलने लगी । जहाँ अमित बैठा था वहाँ पर अमित के अलावा तीन चार लोग ही थे। एक महाशय तो ट्रेन में चढ़ते ही ऊपर सी सीट पर जा सोए। अमित के समानेवाली सीट पर एक नव विवाहित जोड़ी आकर बैठी थी। अमित का परिचय वहाँ पर बैठे अन्य लोगों से हुआ।     आपसी परिचय से पता चला कि नवविवाहित जोड़े में पुरुष का नाम शिशिर और उसकी पत्नी का नाम स्नेहा है ।

अमित – ‘आप लोग कहाँ तक जाएँगे ?’
शिशिर – ‘दिल्ली और आप?’
अमित – ‘मैं तो इन्दौर तक ही जाऊँगा।’
शिशिर – ‘आप क्या मुंबई में नौकरी करते हैं?’
अमित – ‘नहीं  मैं तो यहाँ पर कम्पनी के काम से आया था ।’ आप क्या मुंबई में नौकरी करते हैं
शिशिर- ‘नहीं असल में हमारी पिछले महीने ही शादी हुई है हम लोग यहाँ घूमने के लिए आए थे।’
अमित ने शिशिर को शादी की बधाई दी
अमित – ‘तो कैसी लगी आप लोगों को मुम्बई।’
शिशिर – ‘बहुत अच्छी , लेकिन एक बात है यहाँ के वातावरण में हमेशा उमस बनी रहती है, शायद समुद्र के किनारे है इसीलिए।’
अमित – ‘हाँ मुझे भी काफी परेशानी रही इन बीस दिनों में । जब तक पंखा या एसी चलता है तब तक तो ठीक है जैसी ही पंखा बंद करों पसीना चालू।’
अमित और शिशिर की आपसी बातें चल रही थी, शिशिर की पत्नी स्नेहा खिड़की के पास बैठी बाहर के नज़ारों का आनंद ले रही थी।

ट्रेन को मुम्बई से चले हुए आधा घंटा हो चुका था ,आधे घंटे के बाद ट्रेन कर्जत स्टेशन पर रुकी। यहाँ  ट्रेन ज्यादा से ज्यादा तीन-चार मिनिट ही रुकती है। जिन यात्रियों को उतरना था वे जल्दी-जल्दी नीचे उतर गए और कुछ यात्री इस स्टेशन पर उस बोगी में चढ़े ।  चढ़ते ही सब अपनी -अपनी सीट के नम्बरों को खोजते हुए अपनी-अपनी सीट पर जा बैठे। ऐसे ही एक वृद्ध सज्जन अपने सोलह साल के पोते के साथ वहाँ पधारे जहाँ अमित और शिशिर बैठे थे । वृद्ध सज्जन ने जल्दी-जल्दी अपना सामान साइडवाली  सीट के नीचे लगाया और पसीना पौंछते हुए बैठ गए । भागा-दौड़ी के कारण उनकी सांस फूल रही थी  सीट पर बैठते ही उन्होंने पानी की बोतल खोली और कुछ पानी पीते हुए अपने पोते को भी पानी पीने को कहा। पोते ने प्यास नहीं है कहकर उन्हें मना कर दिया।  ट्रेन में बैठकर बालक की  खुशी का कोई ठिकाना नहीं था । ऐसा लग रहा था मानों जीवन में वह पहली बार ट्रेन में बैठा हो। उसकी मुस्कान में एक अलग ही बात थी । बालक की मुस्कुराहट को देखते हुए अमित ने उससे अपना परिचय किया ,बालक ने अपना नाम पार्थ बतलाया । उससे बातें करने के पश्चात पता चला कि जो वृद्ध उसके साथ हैं उसके दादा जी हैं,जिनका नाम किशन है । ट्रेन में खिड़की की सीट पर बैठा वह बालक ऐसा चहक रहा था मानों उसे कोई बहुत बड़ा खजाना मिल गया हो।

ट्रेन को कर्तज स्टेशन से चले हुए आधा घंटा हो चुका था , पार्थ बाहर का नज़ारा देख कर बार -बार अपने दादा जी से पूछता दद्दू यह क्या है? उसके दादा जी मुस्कुराकर उस के प्रश्नों का उत्तर दे देते । पार्थ के चेहरे पर तो मुस्कुराहट थी ही साथ ही साथ उसके दादा जी के चेहरे पर भी एक संतोष भरी मुस्कुराहट नज़र आ रही थी । ट्रेन अपनी मंज़िल की ओर अपनी तेज़ रफतार से रास्ते में नदी , नाले , खेतों को पार करती चली जा रही थी। एक स्थान पर सिग्नल न मिलने के कारण ट्रेन थोड़े समय के लिए ठहर गई थी। बाहर चारो तरफ हरियाली ही हरियाली फैली थी । खेतों में फसल लहलहा रही थी, तभी पार्थ ने अपने दादा से पूछा -
पार्थ – ‘दद्दू वह क्या हैं ?’
किशन- ‘बेटा यह खेत हैं, ये फसलों से भरे हुए हैं।’
पार्थ – ‘यह कौन सा रंग हैं दद्दू?’
किशन -  ‘हरा।’
पार्थ – ‘अच्छा तो ऐसा होता है हरा रंग?’
किशन - मुस्कुराते हुए – ‘हाँ बेटा ।’   
बालक की चंचल मुस्कुराहट पूरी बोगी में गूँज रही थी । यहाँ तक कि जो कोई सामान बेचनेवाला उस डिब्बे में आता कुछ क्षणों के लिए वहाँ पर रुककर उस बालक को देखने लगता। शायद आस -पास बैठे लोग सोच रहे थे कि यह बालक ज़रुर पागल है, या कोई मानसिक रोगी है। जिस प्रकार का व्यवहार वह अपने दादा से कर रहा था ,किसी भी वस्तु  को देखकर उत्साह से उछलना तालियाँ बजाकर उस वस्तु के नाम को एक-दो बार दोहराना आदि बातों से वहाँ बैठे यात्री उसे मानसिक रोगी मान बैठे थे। कुछ समय बाद ट्रेन वहाँ से चली शायद अब उसे हरा सिग्नल मिल गया था। थोड़ी दूर जाने पर रास्ते में बरसात होने लगी । बरसात को देखकर  पार्थ ने अपने दोनों हाथ खिड़की से बाहर निकाले और बरसात को महसूस करते हुए जोर से बोला देखों…. देखो दद्दू  बरसात ….है ना ....। इधर स्नेहा बहुत देर से पार्थ को देख रही थी । उस का इस तरह बार -बार चिल्लाना उसे अच्छा नहीं लगा रहा था, वह बहुत देर से अपने आप को रोके हुए थी । जब पार्थ ने जोर से चिल्लाकर अपने दादा को बरसात की बात कही तो स्नेहा से न रहा गया और वह गुस्से से पार्थ के दादा से बोली –
स्नेहा- गुस्से से ‘अंकल जी आप अपने पोते को शांति से नहीं बैठा सकते क्या? यह क्या लगा रखा है .. ......दो घंटे से देख रही हूँ पागलों सी हरकते कर रहा है। अगर इसका दिमाग सही नहीं है तो पहले इसके दिमाग का इलाज करवाइए।’
स्नेहा की बातें सुनकर पार्थ थोड़ा सहम गया और चुपचाप अपने दादा के पास  जा बैठा। किशन  स्नेहा की तरफ देखते हुए मुस्कुरा दिए  कुछ बोले नहीं ।
स्नेहा को यह बात और भी चुभ गई । स्नेहा ने किशन से कहा – ‘देखिए अंकल जी मैंने कोई जोक नही कहा है जिसे सुनकर आप मुस्कुरा रहे हैं । आप के पोते की हरकतो से तो यही लग रहा है जैसे वह मानसिक रोगी है। इसका किसी अस्पताल में इलाज करवाइए..........।’
स्नेहा की कटु बातें सुनकर शिशिर ने उसे टोकते हुए कहा ‘क्या यार तुम भी ना…… जाने दो बेचार बच्चा ही तो है। तुम भी ना हद करती हो..........।’
स्नेहा – ‘क्या मैं भी ना ? देख नहीं रहे जब से ट्रेन में चढ़ा है तभी से शोर मचा रखा है। ट्रेन में और भी तो बच्चे बैठे हैं वे भी खेल- कूद रहे हैं पर कोई भी बच्चा इसके जैसे तो नहीं कर रहा ।’
स्नेहा की बातें सुनकर किशन बोले -
किशन – ‘हाँ बेटा शायद तुम ठीक ही कहती हो , यह लड़का सचमुच पागल हो गया है। और रही बात अस्पताल की तो तुम्हारी जानकारी के लिए मैं बताना चाहुँगा कि मैं इसे अस्पताल से ही लेकर आ रहा हूँ। पिछले सप्ताह से ही तो इसने दुनिया को देखना शुरु किया है।’
स्नेहा- ‘क्या मतलब ?’   
किशन – ‘हाँ पिछले सप्ताह ही इसकी आँखों का ऑपरेशन हुआ है । पिछले सप्ताह ही तो इसने दुनिया को पहली बार देखा है। यह अंधा ही पैदा हुआ था। हमने इसका इलाज कई जगह करवाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। तभी एक दिन मेरे मित्र ने मुझे यहाँ के एक डॉक्टर से मिलकर पार्थ को दिखाने की बात कही । मैं पिछले सप्ताह पार्थ को लेकर यहाँ आया था डॉक्टर ने इसकी आँखों की जांच करके बताया कि इसकी आँखों की रोशनी  आ सकती है। इसकी आँखों का ऑपरेशन करना पड़ेगा। भला हो उस डॉक्टर का जिसने मेरे लाल को एक नई ज़िदगी दी ...........।’

जब स्नेहा ने पार्थ की कहानी सुनी तो उसका मुँह खुला का खुला रह गया और सिर शर्म से झुक गया । अमित पार्थ की मासूम मुस्कुराहट को देखकर खुश हो रहा था मन ही मन सोच रहा था ,आज पार्थ के सुनयनो को  सोलह साल के अंधकार के पश्चात एक आकृति मिल गई ………। जीने की एक राह मिल गई । पार्थ के लिए जीवन में इससे बड़ा और क्या खजाना होगा । आज उसकी खुशियों का अंत नहीं । इस सुख को तो वही महसूस कर सकता है जिसने कभी अपना जीवन अंधेरे मे बिताया हो । ट्रेन अपनी रफ्तार से चली जा रही थी । एक के बाद एक स्टेशन आते -जाते और नए मुसाफिर चढ़ते और पुराने उतर जाते । ट्रेन में पार्थ के साथ कब समय समाप्त हो गया अमित को इस बात का पता ही नहीं चला आखिरकार उसका स्टेशन आ गया और वह पार्थ को एक चौकलेट देते हुए ट्रेन से उतर गया। पार्थ और उसके दादा किशनजी को आगरा तक जाना था । 

6 comments:

  1. बेहद उम्दा कहानी।

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  2. नमस्ते शिव कुमारजी,
    बहुत अच्छी कहानी हैं....
    अनुराग अमित

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  3. रेल यात्रा वृत्तांत अच्छा रहा, मुम्बई की सैर भी हो गई और पार्थ की आंख भी अब देखने लगेगी दुनिया को ॥

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  4. किसी पर चिल्लाने से पहले तथ्य पता कर लेने चाहिए वरना बाद में पछतावा ही होता है ...
    पार्थ की दृष्टि लौटी और उसने फिर से दुनिया देखी ...
    अच्छी कहानी !

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  5. अच्छी लगी स्टोरी

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  6. मान गए सर आप की कहानियो में ना तो तारतम्य की कमी होती है न ही रूचि कम होती है............बेशक बांधे रखने का दम हर कहानी में है.........

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