कहानी में ढलते
मन के ऑटोग्राफ
कहानी वर्णन का
विस्तार न होकर एक परिभाषा की तरह चुस्त –दुरुस्त और नपी –तुली होती है और
अपने सीमित कलेवर में मन की गहराइयों को छू जाती है | कहानी का
सम्बन्ध समग्र जीवन के विस्तार से न होकर इस विस्तार को नापते हुए कुछ पड़ाव और मील
के पत्थरों से है और यह स्पष्ट है कि हर मील का पत्थर दूरी के बीच की एक कड़ी है और है एक घटना जो हमें पैमाइश के
संकेत देती है – कहानी स्वतंत्र इकाइयों के रूप में प्रकट होकर सम्पूर्ण जीवन के विस्तार को
बांचना सिखाती है |
हर पल और हर पग
पर कथा के लिए सामग्री और पात्र बिखरे पड़े हैं प्रश्न केवल उसके चयन और फिर
निश्चित सँवारने का है | कलाकार उस कथा
स्थिति को एक व्यव्धारा और गतानुगत रुपरेखा में
बांधता है –
शिव की कलम से ‘ऑटोग्राफ’केवल इस लिए
नहीं है कि वे एक “सौगात” मात्र है बल्कि
इसलिए भी है कि जीवन में उसकी “भूमिका”है | इस भूमिका में “एक मुलाक़ात” का भी बड़ा महत्व
है क्योंकि यह मुलाक़ात ही आपको “सखा” देती है , मित्र देती है | आज के युग में
मित्रता एक आधार भी है और “चुनौती” भी | चुनौती इस लिए
कि मित्रता का “आकर्षण” जितना लुभावना है , उससे गुजरते हुए,न होते हुए भी
किसी का “खडूस” जैसा लगना और अपने “मूक प्रेम” में आदमी से
अधिक जानवर को करीब पाना इस समय की सच्चाई भी है और सोच के लिए एक ठोस धरातल भी |
कहानी का घेरा
बहुत बड़ा है और इस घेरे में कई पीढियाँ एक साथ काम कर रही है | यहाँ “बूढी हड्डियाँ” बिखर रही
नैतिकता और सामाजिक मूल्यों की तलाशा में हैं तो वहाँ स्वार्थ के अंधेपन में लिपटी
इस समाज व्यवस्था में ही अपनत्व और ममत्व तलाशती वो पीढ़ी भी है जिसे “एक माँ ऐसी भी” चाहिए जो उसके
अपने प्रश्नों ना केवल उत्तर दे सके बल्कि उसका संबल बन सके | कोई “श्यामा” यानी धरती जैसी
सब कुछ अपनी संतान के लिए सहने वाली | संयुक्त परिवारों के टूटने से बिखरते रिश्ते – नातों की पहचान
भी खत्म होती जा रही है न कोई ताऊ है , न ताई , न बुआ ,न काकी , परिवार की “छोटी बहू” अब मात्र किस्से
कहानियों और टी.वी सीरियलों की महत्वपूर्ण पात्र हैं | कभी वह “लाजो” के रूप में दिखाई जाती है तो कभी उसका
संबंधों की हत्या करता “हत्यारा” रूप हमारे सामने
आता है | आज संबंधों की सड़ांध से जो “बास” उठ रही है , वो दिखाई भी दे रही है और उसे महसूस भी किया
जा सकता है | लेकिन सयाने उसे अधिक महत्व नहीं देते |
आज कहानी ने
असीमित और अपरिमित सीमाओं को छुआ है | क्या नहीं है जो हिंदी कहानी ने नहीं कहा, शोषण,उत्पीडन न्याय–अन्याय , अवसरवाद, राजनीति, मूल्यहीनता ,स्वार्थपरता , एकांत अनेकांत यानी इन बोलती हुई कहानियों में कोई
एक केंद्र या विषय नहीं है बल्कि वो हर जगह और हर सवाल के सामने मौजूद है |
शिव का एक अर्थ
है कल्याण , शिव की ये कहानियाँ समाज के लिए इसी कल्याण तत्व की वकालत करती है , लगभग प्रत्येक
कथा के अंत में कथाकार एक विचारक और चिंतक की भूमिका लेता है और कुछ सवाल करता है , समस्या को
रेखांकित करता है लेकिन हर कथाकार की तरह शिव के पास भी समाधान नहीं
हैं, बस प्रश्न हैं, और है अनुत्तरित प्रश्न | “श्यामा” “बूढी हड्डियाँ” और “बास” तीनों ही कहानियाँ वृद्धों के सामजिक स्थिति को रेखांकित करती हैं| ‘बूढी हड्डियाँ’ में एक ‘पिता’ है तो बास में ‘नानी’ | “क्या इसी दिन के लिए माँ –बाप संतान चाहते
है”- और –“आज जो वे अपने बूढ़े माँ –बाप के साथ कर
रहे हैं” कल बूढ़े होने का
समय उनका है” जैसे वाक्य
हुबहू बागबान के अमिताभ के संवाद याद दिला जाते हैं| इसका ये अर्थ
कदापि नहीं है कि शिव की कहानियाँ किसी का reproduce है |
सच तो ये है कि
आज के संबंधों का विस्तार सिमट कर एक ऐसे घेरे में आ गया है जहाँ माँ का व्यवहार
भी माता कभी कुमाता नहीं हो सकती के सत्य को
उद्धारित करती है – लेकिन सुमन के किरदार और उसके मुख से कहलवाए गए कुछ वाक्य भाई बहन के संवादों
के बीच बहन के स्वाभाव से मेल नहीं खाते से जान पड़ते हैं – यथा– “नहीं भैया उस बेशरम को अगर थोड़ी भी शर्म होती तो बोलती अपने बेटे
को रोककर कहती ......|एक अन्य जगह यह संवाद –भला बुढिया पढ़ नहीं सकती तो उसे इस बात की क्या जानकारी , और आगे उन कमीनों ने ही यह सब करवाया है –
कथाकार की तमाम
हमदर्दी के बावजूद पाठक का सुमन के साथ वैसा सदभाव नहीं बन पाता और पाठक कहानी के
बीच उन ठोस कारणों को नहीं पाता जिस कारण माँ का व्यवहार इतना पराया , अपने बेटे के
लिए हो गया हो |
शिव की इन
कहानियों का आधार मध्यमवर्गीय, लेकिन मध्यमवर्गीय महत्वकांक्षा का चित्रण
यहाँ नहीं है |अपने समय की बातें इन कहानियों में आयी हैं | ये कहानियाँ शिवकुमार राजौरिया की रचनात्मक
अस्मिता का परिचय देती हैं | अनुभूति की तीव्रता और जीवन के ताप को
वास्तविक सन्दर्भों से जोड़कर एक कथा संतुलन और कलात्मक समीकरण की यह प्रक्रिया शिव
के एक संवेदनशील कथाकार होने की संभावना का दवा भी करती है और इन कहानियों के माध्यम से उसकी दलील भी
देती है |इस संग्रह की कहानियों में अपना एक विवेक और दायित्व बोध भी है जिसके चलते शिव
विचार और मनुष्य के खिलाफ होने वाले षड्यंत्रों पर नजर रखते हैं | अपने समय से
मुठभेड़ करती इन कहानियों का रचनाकार एक सात्विक क्रोध से भरा है, पर किसी को भला –बुरा कहता नहीं
है बल्कि हर बार क्षोभ और दुःख से भर जाता है |
‘सौगात’ और ‘आकर्षण’ जैसी कहानियाँ एक बार फिर समाज में बुजुर्गों की उपेक्षा की कहानियाँ हैं | ‘सौगात’ में बूढ़े बाप से
सारी जायदाद हड़प कर उसे असहाय भटकने के लिए छोड़ देने वाला बेटा है तो ‘आकर्षण’ में ‘बूढ़े तन्मय का
आकर्षण पोती ‘कुहुक’ है | बेटे ‘राहुल’ और बहू ‘टीना’ की उपेक्षा के बावजूद वो अपनी पोती के लिए
अपने अपमान को नजरंदाज करते हैं | संग्रह की अधिकांश कहानियों में एक हताशा का
भाव है जो समाज में व्याप्त उस वास्तविकता को भी हमारे सामने उपस्थित करता है, जिसमें नाते
सम्बन्ध मात्र स्वार्थ की डोर से बंधे हैं |
एक ‘मुलाकात’ और ‘भूमिका’ जैसी कहानियाँ कड़वी स्थितियों परिस्थितियों के बावजूद आशा को जगाती
कहानियाँ हैं जिन में नए रास्तों की तलाश भी है और उनका हासिल भी | कहानी ‘छोटी बहू’ भी ऐसे ही अपनी
राह बनाने के प्रयास की कहानी है जहाँ एक स्त्री एक दिन अत्याचार के खिलाफ तनकर
खड़ी हो जाती है, और अपनी सास और पति से लड़ती है कि“मेहनत यहाँ करती हूँ अगर उतनी मेहनत मैं कहीं भी करूंगी तो इज्जत की रोटी कमा
ही सकती हूँ | तुम इसकी चिंता मत करो मैं बच्चों को वापस लेकर तुम्हारी चौखट पर पाँव भी नहीं
रखूंगी|”
भाषा वो माध्यम
है जहाँ से कहानियाँ अपना अस्तित्व खोकर हम में रच बस जाती हैं | इन कहानियों में
शैलीगत एकरूपता का आभास तो है ही कथ्य में भी बहुत बिखराव नहीं है | वर्णन और
आत्मचिंतन शैली में पिरोई इन कहानियों में एक सुस्पष्टता फिर भी है कि ये कहानियाँ
पाठकों से बतियाते हुए उनके भीतर प्रवेश करती हैं | लेखक का मैं पाठक का मैं बनता चला गया | शब्द बारीक धागे
हैं , जिनके ताने बाने भी कुशलता से पिरोने होते हैं | शिव प्रयास करते है कि कहानी की बनावट में
कोई फंदा न पड़े | सीधी सरल भाषा जिसमें बहुत जगह पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लोक भाषा के माध्यम
से भी उन्होंने अपने कथा चरित्रों को जीवन्त किया है |
शिव का यह कहानी
संग्रह ‘ऑटोग्राफ’ हमारे मन पर उनके हस्ताक्षर हैं उनकी वेदना से हमारी संवेदना को मिलने के लिए | यूँ तो ऑटोग्राफ
बहुत तकील है, विस्तारित है, संग्रह की सबसे लंबी कहानी है यह और कहानियों से थोड़ी अलग भी है | यह कहानी कॉलेज
जीवन की कहानी है जहाँ अमित और उसके दोस्त हैं, निधि है ,माँ और छोटी बहन है , एम.बी.ए और
नौकरी की तलाश और प्राप्ती है | बस इतना ही कि यह कहानी संग्रह वैयक्तिक
अनुभव का रचनात्मक अनुभव में रूपांतरण है , अभी इसका दायरा और विस्तृत होगा | समय की रगों में
बहती घटना ,स्थिति ,परिस्थिति को पकड़ने और पहचानने की क्षमता शिव के पास है और एक ईमानदार कलम भी
.
शुभकामनाए
डॉ सुनील देवधर
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