शहरों की भीड़-भाड़ भरी ज़िन्दगी में आदमी दिन-रात दौड़ता ही रहता है। इसी दौड़ का नतीजा है कि शहरों का वातावरम दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होता जा रहा है। प्रदूषण भी इतना कि सांस लेने के लिए शुद्ध वायु का अभाव पड़ता जा रहा है। शहरों में अक्सर लोग शुद्ध वायु प्राप्त करने के लिए पार्कों में टहलने चले जाते हैं। एक शाम मैं भी एक पार्क में जा बैठा । पार्क का शांत वातावरण मेरे मन को मोहने लगा चारो ओर हरियाली ही हरियाली कहीं गुलाब के फूल खिले थे तो कही गेंदे,चमेली के । रह कर कानों में कोयल के कूकने की आवाज भी बड़ी ही मधुर लग रही थी । शांत वातावरण में बैठा कुछ सोच रहा था कि अचानक मुझे कुछ आवाज सुनाई दी - क्या मैं यहाँ पर बैठ सकता हूँ? मैने सकपका कर उधर देखा तो एक व्यक्ति मेंरे पास खड़ा था । मैने हाँमी भरते हुए उसे बैठने के लिए जगह दे दी । बैंच पर बैठने के कुछ समय तक तो वह व्यक्ति शांत बैठा रहा , मैं भी अपनी मस्ती में शांत वातावरण का आनंद ले रहा था कि अचानक उस व्यक्ति ने कहा कितना सुन्दर पार्क है? मैने हामी भरते हुए अपना सिर हिला दिया । फिर धीरे -धीरे बातों का सिलसिला चल पड़ा बातों ही बातों में उसने अपना नाम बता दिया । मैने भी उसे अपना नाम बता दिया। नामों की जान पहचान के बाद बात आ गई कि आप क्या करते हैं ? मैने बताया कि मैं एक शिक्षक हूँ , उसने बताया कि वह एक दुकान में सुनार का काम सीख रहा है । “कितने साल से हो यहाँ पर ?”- मैने पूछा
“यही कोई दो-तीन साल से ।”
“यहाँ किसके साथ रहते हो?”
“अकेला ही रहता हूँ ।”उसके अकेले रहने की बात सुनकर मैंने उसके माता -पिता के बारे में पूछ लिया । मेरे इस सवाल से वह थोड़ा सा चिंतित सा हो गया। उसकी चेहरे से लग रहा था कि जैसे वह इस प्रश्न से नाखुश था । उसकी इस अवस्था को देखकर मैने पूछ ही लिया कि आखिर बात क्या है- तुम इतने गम्भीर क्यों हो गए ।
असल में मेरे पिताजी अब इस दुनिया में नहीं हैं । जब मैं तीन-चार साल का था तभी पिता जी का स्वर्गवास हो गया था । मेरे बड़े भाई ने ही मुझे पाला -पोसा, उसी की छत्र छाया में पला बड़ा हुआ हूँ। वहीं पूरे परिवार का पालन -पोषण करता था ।
“पालन - पोषण करता था , मतलब ?”- मैने पूछा
असल में, “अब बड़ा भाई भी इस दुनिया में नहीं है।”
क्या ?
हाँ “बड़े भाई को भी गजुरे हुए तीन-चार साल हो चुके हैं।”
ओह ! मैंने अफसोस जताते हुए कहा।
क्या हो गया था तुम्हारे बड़े भाई को क्या कोई बीमारी हो गई थी ? या ......नहीं “उन्हें कोई बीमारी नहीं थी । एक दिन भैया सवेरे-सवेरे खेतों पर फसल देखने के लिए गए थे । वहाँ पर उन्हें एक साँप ने काट लिया । उनका काफी इलाज करवाया किन्तु सब बेकार और एक दिन भैया हम सब को छोड़कर इस दुनिया से चले गए । भैया तो इस दुनिया से चला गया लेकिन अपने पीछें दो साल का बेटा ,पत्नी और हम सब को अनाथ कर गया एक वही तो था जो मुझे अपने बेटे से भी ज्यादा प्यार करता था । भाई ने कभी भी मुझे अपना भाई नही बेटा माना था । कहकर उसकी आँखें भर आई। फिर थोड़ा संभलकर कहने लगा कि भाई की मृत्यु के बाद से ही मेरी पढ़ाई भी छूट गई । एक वहीं तो था जो मुझे पढ़ाना -लिखाना चाहता था । बाकी के दोनों भाईयों को तो मेरी कोई चिंता ही नहीं चाहे मेरी पढ़ाई छूटे या कुछ उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता …. घर की तंगी हालत को देखते हुए मैने अपने आप को पढ़ाई से दूर कर लिया और काम की तलाश में यहाँ आ गया। हमारे पास इतनी खेती तो है नहीं कि हम तीनों भाइयों का गुजारा हो सके वैसे भी खेती में उतनी पैदावार भी नहीं होती । काम की तलाश में शहर चला आया। यहाँ आकर सुनार की दुकान में काम कर रहा हूँ थोड़ी बहुत आमदनी भी होती है और अपना कारीगरी का काम भी सीख रहा हूँ।” चार भाइयों में से एक तो चला गया बचे हम तीन हम तीनों में से दो भाई तो अपने बच्चे -पत्नियों के साथ खुश हैं । बचा मैं और मेरी माँ साथ में भाभी और भतीजा इन की जिम्मेदारी मेरी है। जब तक बडे भैया जीवित थे तब तक सारा परिवार एक ही छत के नीचे रहता था किन्तु भैया के जाते ही दोनो मझले भाइयों ने हमे घर से ऐस निकाल फेंका जैसे दूध में से मक्खी। मेरे पास अपनी पढ़ाई को बीच में ही छोड़ने के अलावा और कोइ चारा भी नहीं था। भाई जब ईश्वर देता है तो छप्पर फाड़र देता है और जब लेने पर आता है तो लेता ही चला जाता है। मैं तो ऐसा अभागा जिसे न तो पिता का प्यार नसीब हुआ एक पिता तुल्य भाई था उसे भी ईश्वर ने छीन लिया । जीवन की राह बहुत ही मुश्किलों भरी होती है । यहाँ आकर भी कई महिनों तक मुझे कोई काम नहीं मिला । न रहने का कोई ठिकाना था न खाने का जो कुछ पैसे थे खत्म हो गए थे । एक दिन एक चांट वाले के पास नौकरी मिल गई । मैने यहाँ चांट की ठेलियो पर झूठे बर्तन साफ करने का काम भी किया तब जाकर मुझे एक वक्त का भोजन नसीब होता था । खुले आसमान के नीचे सो जाता था क्योंकि इतने बड़े शहर में मेरा न तो कोई रिश्तेदार था और ना ही कोई जान पहचान का किसी अनजाने को कोई भाड़े पर कमरा भी नहीं देता था । जब मैने चाट वाले के यहाँ काम करना शुरु किया तब उसने मुझे एक कमरा भाड़े पर दिलवाया । जब चाट वाले को मरी आर्थिक परिस्थिति की जानकारी हुई तो उसने अपने जान पहचान के एक सुनार के यहाँ मुझे काम पर लगवा दिया । वहाँ पर मुझे तीन-चार हजार रुपए मिलते थे और दिन में जितने गहने बना देता था उस पर थोड़ा बहुत कमीशन भी मिलता था । वहाँ पर एक साल तक तो ठीक चलता रहा मैंने सोने चाँदी का काम जल्दी ही सीख लिया । मैं दिन- रात काम करता था इससे मुझे दुकानवाले को मुझे ज्यादा कमीशन देना पड़ता था यह देखकर कि मैं अन्य कारीगरों की तुल्ना में अधिक कमा रहा हूँ दुकानवाले की भी नियत खराब हो गई और उसने मेरे द्वारा बनाए गए गहनों पर मुझे कमीशन देने से इन्कार कर दिया, यहाँ तक कि उसने मुझे बिना तनख्वाह दिए नौकरी से निकाल दिया । अब मुझे ज्यादा तकलीफ नहीं हुई अब तक बाजार में मैने अपनी एक पहचान बना ली थी उसके नौकरी से निकालने के बाद मैने एक बड़े शो रूम में काम करना शुरु कर दिया यहाँ पर मुझे वहाँ की अपेक्षा अधिक तनख्वाह मिलने लगी ।आज ईश्वर की कृपा से मैं इतना कमा लेता हूँ जिसमें मेरा गुजारा हो जाता है और कुछ पैसे अपनी माँ के पास भी भेजता रहता हूँ । एक बात तो है इन शहरो में कोई किसी का नहीं है । बिना मतलब के कोई किसी से बात तक नहीं करना चाहता । शहरों से अच्छे तो हमारे गाँव ही हैं कम से कम वहाँ पर आदमी - आदमी को पूछता तो है। यहाँ तो सब अपनी मस्ती में ही लगे रहते हैं मरने वाला मरे तो मरे जीने वाले जीए । लेकिन गाँव से बाहर निकरल ही हमारा नसीब खुल सकता है। अगर हममें काबलियत है तो शहर ही हैं जो हमारे सपनों को साकार कर सकते हैं। अब मुझे समझ में आया कि गाँव से लोग शहर की ओर क्यों भागते हैं। कुछ भी हो जो सकून की सांस गाँव में मिलती है शहरो में नहीं । शहरों में कमाने के लिए अपार धन है किन्तु अपनापन बहुत कम है।उसकी आप बाती सुनते -सुनते समय का कोई पता ही नहीं चला । सूरज आसमान की गोद में समा चुका था । चहचहाती चिड़िया भी अपने-अपने घोंसलों में जाकर आराम कर रहीं थी । यहाँ पर पहले की अपेक्षा और भीड़ हो चुकी थी । कोई दौड़ रहा था तो कोई व्यायाम ,योगा कर रहा था । सब अपने - अपने कामों में व्यस्थ थे । ये जीवन है इसमें कोई किसी के लिए नहीं रुकता । शायद चलना ही जीवन है .........।
Nice Post Shivaji
ReplyDeletesahi hai sir, chalna hi hai jivan.
ReplyDeleteshahar jivan me pradoosha itna badhte ja raha hai ki manusya ko sans lene ke liye hi bahut kathin lag raha hai. manushya swarthi hote ja raha hai. apna swarth sidh karne ke liye kuch bhi karne ke liye tayaar hai. apna swarth sidh karne ke liye manushya rishtom ko bhi nast kar raha hai. yaha koyi kisi ka nahi hai.
gav ka jivan hi adhik bahtar hai.vaha kam se kam poochne ke liye tho log hai na...
KAHANI BAHUT ACHA HAI SHIVA SIR...
Hi Mr. Shiv,
ReplyDeleteReally a very true and heart touching story. I really appreciate all your effort you have putted to bring the real fact from today's life. Please keep up the good work. Looking for more such heart warming stories from you.
Best Wishes
AmitAnuraag