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Thursday, November 29, 2018

ओल्ड मैन इन द सिटी



घर में टंगी संयुक्त परिवार की तस्वीर को देखते हुए हरिया की आँखों से अक्सर आँसुओं  की धार  निकल जाती। अब यह आँसुओं  की धार खुसी की है या दुख के आज तक कोई समझ नहीं पाया। एक बेटा दो बेटी सुखी परिवार सब कुछ तो था उसके पास। हाँ सब कुछ तो था पर सब थे दूर –दूर बेटियों की शादी कर दी वे दोनों अपने-अपने घरों में सुखी जीवन जी रही हैं। बेटा पढ़-लिखकर  दिल्ली में सरकारी अफ़सर बन गया। वह भी अच्छा खासा कमा खा रहा है। अपने परिवार के साथ वहाँ सुखी जीवन बिता  रहा है। साल में तीज –त्योहार पर अपने परिवार के साथ बूढ़े माँ-बाप  से मिलने  चला आता। हरिया ने अपना पूरा जीवन सरकारी स्कूल में चपरासी की नौकरी करने में बिता दिया था।  दो साल पहले ही वह अपने उस पद से सेवानिवृत्त हुआ था। जीवनभर स्वाभिमान से कमाया उसी स्वाभीमान के साथ जीवन के साठ साल बिता दिये। बाप –दादा अपने पीछे पाँच बीघे ज़मीन छोड़ गए थे घर के राशन और अन्य छोटे-मोटे खर्चे उसी से चल जाते थे। आधुनिक जीवन की चकाचौंध से दूर सादा जीवन उच्च विचारों के आदर्श पर चला और यही शिक्षा अपनी संता को भी दी। तीनों बच्चों को अपने- अपने  घर परिवार में सुखी देखकर उसे अपार आत्मसंतोष का अनुभव होता।  एक समय था जब बच्चों की शरारतों से पूरे घर में कोतूहल का माहौल बना रहता था। एक आज का दिन है जहां कोई चिड़िया भी आने से डरती है। कितने अरमानों से पुश्तैनी घर तुड़वाकर बच्चों के हिसाब से बनवाया था यह घर। बदलते समय में उसके बच्चे कब उससे आगे निकल  गए पता ही नहीं चला।
वर्षों पहले बेटा तारा नौकरी के लिए दिल्ली आया था और यहीं पर बस गया। नौकरी और परिवार की जिम्मेदारियों के मकड़जाल में धीरे-धीरे ऐसा फसा कि अब बूढ़े माँ –बाप  के लिए बमुश्किल समय निकाल पाता। उसने कई बार  बूढ़े माँ –बाप  को दिल्ली आकर परिवार के साथ रहने के लिए कहा लेकिन हरिया हर बार उसकी बातों को टाल जाता।  उसने अपने पूरे जीवन में कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया, और न कभी  फैलाने की ज़रूरत  पड़ी।  जब तक कमाया तब तक तनख्वाह मिलती रही रिटायर होने के बाद घर के खर्चे के लिए उतनी पेंशन मिल ही जाती है और फिर पाँच बीघे खेत भी तो है।  उम्र के अंतिम पड़ाव में वह बहू –बेटे पर बोझ नहीं बनना चाहता था। यही कारण था कि वह बेटे के पास नहीं जाना चाहता था। जब बेटे  के साथ - साथ उसकी पत्नी राधा  ने भी बेटे के यहाँ जाकर रहने की ज़िद की तब वह उसे मना न कर सका,  और एक दिन ना चाहते हुए भी अनमने मन से दिल्ली के लिए रवाना हो गया।  वह आगे चलने की बहुत कोशिश कर रहा था लेकिन उसके कदम है कि आगे  बढ़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बार –बार मुड़कर घर और गाँव की गलियों को ऐसे निहार रहा था जैसे वह इन गलियों को आखिरी बार देख रहा हो।  जैसे –तैसे वह पत्नी संग रेलवे स्टेशन पहुँचा। ट्रेन अपने निर्धारित समय से उस स्टेशन से चली। बाईस घंटे की यात्रा के बाद दूसरे दिन दोनों पति –पत्नी  दिल्ली जा पहुँचे। 
जीवन में पहली बार वह अपने गाँव से बाहर निकला था। अब तक उसने दिल्ली का बस नाम सुना था लेकिन आज साक्षात देख भी लिया। जैसे –जैसे ट्रेन प्लेटफॉर्म की तरफ बढ़ रही थी उसके दिल की धड़कने भी तेज होती जा रही थी। वह बैठा –बैठा यही सोच रहा था कि अगर उसका बेटा सही समय पर उन्हें लेने नहीं आया तो?  प्लेटफार्म पर ट्रेन के लगते ही लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा।  यह देखकर तो उसके हाथ पाँव फूल गए। कैसे उतरेगा इस डिब्बे से? उतर कर कहाँ जाएगा ? कुछ भी तो नहीं पता उसे? धीरे-धीरे जब उस डिब्बे से सारी सवारी उतर गई तब वह हिम्मत कर पत्नी संग ट्रेन से उतर बाहर आकर खड़ा हो गया। चारो तरफ गाड़ियों का शोर लोगों की भाग-दौड़ को देखकर अचंभित सा खड़ा देख मन ही मन बोला “ का ई  दिल्ली है ? हमरा तारा ई जंगल में रहत है का ? हे! भगवान तू कहाँ ले आया हमें? हम दोनों अच्छे खासे ज़िंदगी गुजार रहे थे गाम में।“  खैर थोड़ी देर बाद ही उसका बेटा उन्हें  लेने स्टेशन आ पहुँचा। बेटे को देखकर दोनों की जान में जान आई। बेटे के साथ स्टेशन से निकले ही थे कि सड़क पर एक लंबे जाम में फस गए। चारो तरफ वाहनों  का शोर, ऊँची –ऊँची इमारतों को देखकर हरिया और राधा का सिर चकरा गया। स्टेशन से घंटों  सफर के  बाद आखिर घर पहुँच ही गए। तारा ने एक ऐसी बहुमंजिला इमारत के नीची लाकर कार रोककर उतर गया। अपने उतरने के बाद उसने अपने –माता-पिता को भी कार से नीचे उतारा। कार से उतरते ही हरिया और उसकी पत्नी राधा ने  गगनचुंभी इमारतों को अचरजभरी निगाहों से देखते रह गए। “ हे ! राम  तू इन डिब्बो में रहता है ?” हरिया ने बेटे से पूछा। पिता की  बात सुनकर बेटे ने मुस्कुराते हुए कहा –“ बापू तुम्हें पता है इन डिब्बों की क्या कीमत होगी? करोड़ों में है इनकी कीमत ?”  का कह रहे हो लल्ला – हरिया ने कहा । हरिया की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि राधा बोल उठी “ हे !राम  ई लो इन  डिब्बों की कीमत करोड़न में है ?का जमाना आ गया है?”
तारा माता –पिता की बातें सुनकर  मुसकुराता हुआ उन्हें लिफ्ट से बिल्डिंग की बरहवी मंज़िल पर बने फ्लैट में जा पहुँचा। घर पहुँचे ही सब लोग उन्हें देखकर खुशी से झूम उठे। तारा के दो बच्चे थे बड़ा बेटा और छोटी बेटी बेटा  रोहन कक्षा सात में पढ़ता और बेटी साक्षी  कक्षा तीन में। दोनों बच्चे पिता की तरह ही होनहार थे। दोनों बच्चे अपने दादा –दादी का आदर सत्कार कर कुछ देर उनसे बातें कर अपने –अपने कमरे में चले गए। हरिया और राधा के चेहरे पर यात्रा  की थकान साफ –साफ देखी जा सकती थी। कुछ समय आराम करने के बाद सब लोगों ने एक साथ खाना खाया और अपने –अपने कमरे में सोने चले गए।  बेटे के घर और उसके रुतबे को देखकर माँ तो खुशी से फूली नहीं समा रही थी। अब तक उसने ऐसे मकान फिल्मों में देखे थे। कमरे में रखी बैड पर स्प्रिंग के गद्दे पड़े थे। उन गद्दों पर हरिया आधी रात तक करवटें बदलते रहा नींद है की आने का नाम ही नहीं ले रही थी। जब उससे रहा नहीं गया तो उसने चादर फर्श पर बिछाई और वहाँ जाकर लेट गया  तब जाकर उसे नींद आई। 
 सुबह छह बजे  बहू  मालती और दोनों बच्चे उठ गए।  दोनों बच्चे अपने स्कूल की तैयारी में लग गए। मालती सभी के लिए सुबह का नाश्ता बनाने में लगी थी। तारा अभी तक सो रहा था। बच्चे अपने समय पर तैयार होकर करीब आठ बजे घर से स्कूल के लिए निकल गए।  हरिया और राधा भी सुबह छह बजे ही जाग गए थे। सुबह दोनों ने अपने समयानुसार नहाकर नाश्ता किया। सुबह के नौ बजते –बजते बेटा भी जाग गया। उसके जागते ही मालती उसके लिए एक गरमागरम चाय का कप ले आई। चाय का कप लेकर माँ के पास सोफे पर जा  बैठा। “और माँ कल रात को कैसी नींद आई।“ तारा ने पूछा । राधा कुछ कहती उससे पहले ही हरिया बोल उठा – का लल्ला कैसे सोत हौ  इन गद्दन पर तुम लोग ,ससुरी रात भर हमें तो नींद ही ना आई तुम्हारी माई तो आराम से.....। हरिया की बात सुनकर माँ -बेटे दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और ज़ोर से हंस दिये। तभी तारा की नज़र हॉल में टंगी घड़ी पर गई  दस बज चुके थे। वह वहाँ से उठा और नहाने के लिए चला गया। नहाकर नाश्ता करके सीधे ऑफिस के  लिए  निकल गया।   तारा के जाते ही घर में काम करने वाली बाई आ गई वह भी कुछ ही देर में कपड़े, बर्तन और घर में झाड़ू पोंछा लगाकर चली गई। बहू  ने भी थोड़ी बहुत देर उनसे बातें की और अपने कमरे में जाकर आराम करने लगी। उसके कमरे में अलग टी. वी. लगा था  वह अपने मनपसंद के कार्यक्रम अपने कमरे में जाकर देखने लगी।             
सारा दिन हरिया घर में इधर से उधर घूमता  रहा। कभी ऐसे बंद घरों में रहा नहीं ना । कभी सोने के कमरे में तो कभी बालकोनी में जाकर बैठ जाता। यहाँ न कोई बोलने वाला न कहीं खुला आसमान जहां वह अपनी खाट डालकर सो सके, अपने संगी साथियों से गपशप कर सके। घर भी तो कहाँ लिया है …. बारहवीं मंज़िल पर । नीचे झाँककर देखा  तो सिर चकरा गया । आदमी भी चिड़ियों  के समान दिखाई दे रहे थे। इधर  राधा मजे से कमरे में  सोने से लगी थी। वैसे उसे भी उन गद्दों में ज्यादा देर नींद नहीं आई और वह भी कमरे ने निकलकर हॉल में आ गई। हरिया को इधर –उधर टहलते देखा तो पूछ बैठी – “ ए जी का हुआ तबीयत तो ठीक है ना .... ऐसे काहे चक्कर काट  रहे हैं?” हरिया ने उसकी बात सुनी उसकी तरफ देखा पर कहा कुछ नहीं। तभी घर की घंटी बजी तो बहू अपने कमरे से निकलकर आई तो देखा बच्चे स्कूल से आए थे। बच्चों को देखकर दादा –दादी बहुत खुश हुए। सुबह से हरिया बच्चों के आने का इंतज़ार कर रहा था।  स्कूल से थके हारे बच्चे सीधे अपने –अपने कमरे में चले गए। थोड़ी देर बाद दोनों अपने कमरों से बाहर आए तब तक मालती उनके लिए शाम का नाश्ता लेकर आ गई थी । दोनों ने बड़े  चाव से खाना खाया और फिर अपने स्कूल का काम करने में लग गए । स्कूल का काम करते -करते शाम के पाँच बज चुके थे। अपनी पढ़ाई का काम खत्म करते ही दोनों टी.वी. देखने में लग गए। बच्चों के साथ –साथ हरिया और राधा भी टी.वी. देखने लगे।  थोड़ी बहुत देर टी. वी. देखकर उसने टाइम पास किया। दोनों बच्चों को घर आए लगभग तीन घंटे बीत चुके थे। पिछले तीन घंटों में वे दोनों अपनी ही दुनिया में मस्त थे। कभी टी. वी. कभी सेलफोने, कभी टबलेट या फिर वीडियो गेम।
रात के करीब दस बजे तारा भी अपने ऑफिस से थका हारा घर लौटा। हरिया और राधा अभी तक सोये नहीं थे उसी के इंतज़ार में बैठे थे की वह आएगा तो सभी लोग एक साथ मिलकर खाना खाएँगे । हाँ अगर अपने गाँव में होते तो अब तक तो उनकी एक नींद पूरी हो चुकी होती थी। उसके आने के बाद ही सब लोगों ने एक साथ खाना खाया।  सभी लोग खाने के लिए बैठे ही थे कि तभी तारा के ऑफिस से फोन आ गया। तारा खाना खाते –खाते फोन पर बातें करता रहा। खाना  खत्म हो गया लेकिन उसकी बातें अभी पूरी नहीं हुई थी। खाना खाते ही वह वहाँ से उठकर सीधा अपने कमरे में चला गया। बहू और बच्चों ने भी अपना खाना  खत्म किया और दादा-दादी से  कुछ औचारिक बातें कर अपने –अपने अपने कमरे में चले गए। सुबह से जिन का वे लोग इंतज़ार कर रहे थे वे लोग आए भी ओर नहीं भी .... ?
दिल्ली आए  बीस  दिन  गुजर चुके थे। ये बीस  दिन हरिया और राधा के लिए  महीनों के समान बीते थे।  बीते बीस दिनों में तारा ने उन्हें लाल किला, कुतुबमिनार जैसी कई ऐतिहासिक इमारतों की सैर कारवाई थी। यह सब तो ठीक था लेकिन जैसे ही वे लोग घर में आते यहाँ आते ही उनका उस घर में दम सा घुटता। वे लोग ऐसे घरों में रहने के आदि जो नहीं थे। खैर जैसे –तैसे करके हरिया ने दो महीनों का समय समय वहाँ पर गुजरा। यहाँ पर न कोई काम न कोई बोलने चालने वाला ना को संगी साथी। कहने को तो परिवार में सभी लोग हैं लेकिन सब अपने –अपने कामों में इतने व्यस्त कि किसी को किसी के लिए समय ही नहीं । दिनभर हरिया कभी अखबार पढ़ता, कभी टी. वी.  देखता और करे भी तो क्या?  कैसे समय गुजारे?  कोई आदमी कितना टी. वी. देखा सकता था। ऐसा नहीं था कि सिर्फ हरिया ही यहाँ आकर असहज महसूस कर रहा था राधा का भी यही हाल था। स्कूल से बच्चे थके हारे आते तो आते ही टी. वी.  पर अपने मनपसंद चैनलों को देखने लग जाते। सुबह से शाम तक दादा-दादी बच्चों के आने का इंतज़ार करते कि बच्चे आएंगे तो उसे कुछ बातें करेंगे। उनसे कुछ अपनी कहेंगे कुछ उनकी सुनेगे। बच्चे तो आते ही अपनी कुछ औपचारितयाएँ निभाकर अपनी दुनिया में व्यस्त हो जाते। कभी टी. वी. तो कभी आई पैड तो कभी मोबाइल फोन पर व्यस्त हो जाते। हरिया उन बच्चों को देखते देखते सोचने लगा कैसा शहर है ये ना कोई किसी का पड़ोसी है। सब बंद दरवाजों के भीतर ही अपनी दुनिया को समेटकर जीने के आदि हो चुके हैं। इससे अच्छा तो हमारा गाँव ही है कम से कम वहाँ आस –पास लोग तो होते हैं। हम सब एक दूसरे की कुशलक्षेम तो पूछ लेते हैं। एक दूसरे के सुख दुख में शामिल तो हो लेते हैं, यहाँ तो यही नहीं पता कि पास वाले घर में कौन रहता है उसका नाम क्या है? रही बच्चों की बात...उन बेचारों का क्या कसूर? ये मासूम भी क्या करें ? कहाँ खेलने जाएँ ना कोई मैदान ना खुला कोई खुली जगह .... ये दिल्ली है …. दिल्ली  हुंह ....         
जिसके कहने पर वे लोग अपना घर अपना गाँव छोड़कर आए थे उसे भी उनके पास बैठकर दो  बातें करने की फुरसत नहीं । सुबह ऑफिस के लिए निकलता और देर रात थका हारा घर पहुँचता। आता खाना खाकर कुछ औपचारिक वार्तालाप कर सोने चला जाता। सोने क्या चला जाता घर आने की देर नहीं होती कि ऑफिस से फोन पर फोन आने लग जाते। कभी फोन कभी लैपटॉप पर लगा रहता थक हारकर सोने चला जाता। घर में बैठे –बैठे वे लोग ऊब चुके थे क्या करें क्या ना करें उनकी समझ में नहीं आ रहा था। यहाँ रहेंगे तो इसतरह तो वे लोग ज्यादा दिन जी नहीं पाएंगे।  अपने मन की शांति और बच्चों के सुखी जीवन को देखते हुए हरिया ने अपने गाँव, अपने घर जाना ही उचित समझा।  कुछ दिनों बाद  वे अपने उस खुले आसमान के नीचे जा पहुँचे जिसके नीचे वे लोग हँस सकते थे एक दूसरे से बोल सकते थे। यहाँ उनके संगी साथी थे और सबसे अच्छी बात यहाँ के घरों में इंसान रहते थे मशीनें नहीं। यहाँ इन्सानों को अहमियत दी जाती थी न कि मशीनों को । खैर छोड़िए यह सब ....  हाँ हरिया और राधा अपने घर अपने गाँव में आकर अब बहुत खुश हैं।  यहाँ कम से कम कोई हालचाल पूछने वाला तो है। आसमान की खुली छत तो है। एक रात खाना खाकर जब दोनों पति-पत्नी खले आसमान के नीचे अपनी –अपनी खाटों पर लेते थे तभी राधा ने बोल उठी  – “कुछ भी तो तारा के बापू अपना घर और अपना गाँव आखिर अपना ही होता है। “ हरिया ने राधा की तरफ देखा और मंद मंद मुस्कुराने लगा मुंह से कहा कुछ नहीं पर उसकी मुस्कुराहट हे बहुत कुछ कह दिया। देर रात  तक दोनों लोग बाते करते करते कब सो गए पता ही नहीं चला .....  


4 comments:

  1. नमस्ते शिवकुमार जी,

    काफी समय बाद आपकी रचना पढ़ने को मिली है, पढ़कर बहुत अच्छा लगा। हमेशा की तरह बडी ही सादगी से आपने ग्रामीण परिवेश से जुड़े कुछ लोगों का अपने सीधे सादे रहन सहन, मिलनसार स्वभाव और आसपास के लोगों से जो अपनापन होता है, जो शहरों में बहुत ही कम देखने को मिलता है और वे शहरों में वैसा ही माहौल जब नहीं देख पाते हैं तो उन्हें किस तरह की घुटन होती है, यह हम तक पहुँचाया है। अच्छा प्रयास। बधाई ।

    धन्यवाद
    अमित अनुराग हर्ष

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  2. after a long time I read your story. Awesome...This is situation of our modern India.

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  3. Hi Sir

    Nice story. ..most of the village people face such situations.

    Thanks
    Tanmaya

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