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Saturday, October 23, 2010

भूमिका

हैदराबाद शहर के बीचों बीच बना एक मकान जो कटहल अमरूद और जामुन के आठ-दस पेड़ों से घिरा हुआ । ऐसा मकान जिसे देखते ही किसी का भी मन उस तरफ आकर्षित हुए बिना नही रहता । देखते ही लगता कि घर नहीं स्वर्ग है इतना सुन्दर । वैसे घर अधिक बड़ा नहीं था । पुराने जमाने के तरीके से बना घर बिल्कुल हवेली के समान लगता था । इस घर में मोहन का परिवार रहता है। परिवार भी कितना बड़ा पति- पत्नी और दो बच्चे । मोहन पेशे से दुकानदार है। उसकी कपड़ों की दुकान है । मोहन की एक बड़ी बहन है जो दिल्ली में रहती है। असल में मोहन का परिवार राजस्थान के जयपुर शहर से यहाँ  आकर बस गया था । एक दिन की बात है मोहन दोपहर के समय घर पर भोजन करने के लिए आया हुआ था । भोजन करने के बाद वह आराम केरने के लिए लेटा ही था कि फोन की घंटी बजी  मोहन ने देखा कि उसकी बड़ी बहन पद्मा का फोन है।
हैलो –“दीदी नमस्ते , कैसी हो”
पद्मा – “मैं ठीक हूँ । तू बता कैसा चल रहा है तेरा काम धंधा?”
मोहन – “आपके आशीर्वाद से ठीक ठाक चल रहा है।”
पद्मा – “घर पर सब कैसे है?  बच्चे और रेखा ?”
मोहन –  “सब ठीक है अभी -अभी खाना खाकर सब सो रहे हैं।”
पद्मा – “अच्छा सुन”
मोहन –  “जी दीदी”
पद्मा –  “हमने नोएडा में एक  नया फ्लैट खरीदा है। उसका गृह प्रवेश अगले
            शनिवार को है तुम सब गृह प्रवेश में जरूर आना ।”
मोहन –  “पर….. दीदी दुकान को कौन संभालेगा ।”
पद्मा –  “दो-चार दिन बंद रहेगी तो कुछ नही होगा , शनिवार का गृह प्रवेश है भले 
           ही तुम रविवार को चले जाना पर ग्रह प्रवेश में आना जरुर ।”
मोहन –  “ठीक है। पर अभी तो ट्रेन की टिकिट भी नहीं मिलेगी ।”
पद्मा –  “सब मिल जाएगी तुम तत्काल में निकलवा लेना ।”
मोहन –  “ठीक है।”
पद्मा –  “अच्छा अब मैं फोन रखती हूँ । आना मत भूलना ।”
मोहन –  “ठीक है दीदी।”
मोहन फोन रखकर सोने ही लगता है कि उसकी पत्नी रेखा पूछ लेती है -
“किसका फोन था जी?”
मोहन –   “दिल्लीवाली दीदी का।”
रेखा – “सब ठीक ठाक है ना ?”
मोहन – “हाँ सब ठीक है उन्होंने नोएड़ा में फ्लैट खरीदा है  उसका गृह प्रवेश अगले 
         शनिवार को है उसमें आने के लिए कह रहीं थीं।
रेखा –  “अच्छा ! दीदी ने नया फ्लैट खरीदा है ।”
मोहन – “हाँ”
रेखा – “चलो इसी बहाने से हम सब दिल्ली की सैर भी कर आएंगे । दीदी का गृह 
       प्रवेश का गृह प्रवेश हो जाएगा और हम लोग दिल्ली भी घूम आएँगे।”
मोहन –  “पर दुकान को इतने दिन बंद करना भी तो ठीक नहीं होगा।”
रेखा – “कुछ नही होता , हम कौन से रोज -रोज दुकान बंद करके घूमने जाते हैं। अब मौका मिल रहा है तो चलते हैं वैसे भी बच्चों की छुट्टियाँ चल रही है वे लोग भी घर में बैठे-बैठे बोर हो जातै है उनका मन भी बहल जाएगा और हमारा दीदी से मिलना भी हो जाएगा। वैसे भी दीदी से मिलकर काफी दिन हो गए हैं।”
मोहन –   “अच्छा बाबा ठीक है ।"

मोहन ने परिवार के साथ दिल्ली जाने के लिए तत्काल में टिकट निकलवाई और  दिल्ली के लिए रवाना हो गया। वह हैदराबाद से बुधवार को ही निकल गया था उसने सोचा कि हम गुरूवार को दिल्ली पहुँच जाएँगे । गुरूवार और शुक्रवार दिल्ली घूम लेंगे शनिवार को  दीदी का गृह प्रवेश है । शनिवार और रविवार दीदी के साथ गुजर जाएगा , रविवार की शाम उनकी वापसी की ट्रेन थी सो वापस  सोमवार तक  हैदराबाद पहुँच जाएगा । ट्रेन में उसकी  की मुलाकात एक तेलुगु परिवार से होती है । पति-पत्नी और एक तीन साल की बच्ची, ये लोग भी दिल्ली की सैर करने के लिए जा रहे थे । उस परिवार के मुखिया का नाम श्रीकान्त था । श्रीकांत के परिवार को हिन्दी भाषा नहीं आती थी । श्रीकांत थोड़ी बहुत हिन्दी समझ , बोल लेता था ।  उसकी पत्नी और बच्ची बिंदु को हिन्दी ज़रा भी नहीं आती थी न बोलनी और न समझनी। अक्सर ट्रेनों में जब दो परिवारवाले मिलते हैं तो थोड़ी बहुत जान- पहचान हो ही जाती है। ट्रेन अपनी तेज रफ्तार से दिल्ली की ओर लगातार बढ़ रही थी । एक एक  कर स्टेशन निकलते जा रहे थे । मौसम भी काफी सुहावना था ठंडी हवा चल रही थी । यहाँ बच्चे एक दूसरे से काफी घुल - मिल गए थे । बच्चे अपना खेलने में लगे थे और बड़े अपनी आपसी बातों में ।



सुबह से चलते -चलते शाम हो चुकी थी । ट्रेन लगातार अपनी तेज रफ्तार से दिल्ती की तरफ दौड़े जा रही थी लग रहा था मानो वह हवा से बातें करती हुई हवा से दौड़ लगा रही हो। धीरे -धीरे दिन का उजाला खत्म हुआ रात का काला अँधेरा चारों तरफ छा गया । चारो तरफ सन्नाटा ही सन्नाटा उस सन्नाटे को चीरती हुई ट्रेन तेज रफ्तार से अपनी मंजिल की ओर दौड़ रही थी । यात्रियों ने रात का खाना खाया और अपनी-अपनी सीटों पर सोने की तैयारियों में लग गए । कुछ समय बाद ट्रेन में भी सन्नाटा छा गया था सब गहरी नींद में सोए हुए थे । रात के करीब बारह बजे होंगे कि अचानक रेल पटरी पर एक ज़ोर का धमाका हुआ और देखते ही देखते ट्रेन की चार-पाँच बोगियाँ एक दूसरे के ऊपर चढ़ गई । एक बड़ी दुर्घटना ।  रात के सन्नाटे को ट्रेन की इस भयानक दुर्घटना ने मिटा दिया देखते ही देखते चारो तरफ हा- हाकार मच गया । बड़ा ही भयानक हादसा था वह । इतनी जोर का धमाका हुआ था कि आस पास के गाँवों के लोग अपने घरों से निकलकर भागते हुए मदद के लिए वहाँ पर पहुँच गए ।  कुछ समय बाद पुलिस भी अपनी पूरी मशीनरी के साथ घटना स्थल पर पहुँच गई।


ट्रेन के दो डिब्बे तो इतनी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हुए थे कि उनमें से किसी के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी । पुलिस ने स्थानिय लोगो की सहायता से बोगियों में फँसे लोगों को निकालने का काम शरू किया । स्थानीय लोगों ने भी बढ़ चढ़ कर लोगों की मदद करने की कोशिश की। सारा माहौल दर्दनाक चीखों से गूँज उठा किसी ने अपना बेटा खोया , किसी ने अपने माँ-बाप , किसी ने अपना पति तो किसी ने अपनी पत्नी । चारो तरफ हा- हाकार मचा हुआ था । धरती पर चारो तरफ खून बिखरा पड़ा था । ऐसा लग रहा था मानो खून की नदी बह रही हो । खून से लथपथ शवों को लगातार  बाहर निकाला जा रहा था । सबसे नीचे की जो बोगी थी वह वही बोगी थी जिसमें मोहन और श्रीकांत का परिवार सफर कर रहा था । उस बोगी में फँसे लोगों को बाहर निकालने के लिए क्रेन मंगानी पड़ी बोगी को जगह -जगह से काटा गया । उस बोगी में किसी का बचना मुश्किल था । क्योंकि वह बोगी चार- पाँच बोगियों के नीचे जो दबी थी । पुलिस का बचाव दल एक एक कर शवों को बाहर निकाल रहा था कि एक बच्ची के रोने की आवाज सुनाई दी । पुलिस दल  बड़ी सावधानी से उस बच्ची को बाहर निकाल ही रहे थे कि किसी औरत के कराहने की आवाज भी सुनाई दी पुलिस दल ने बड़ी ही सावधानी से बच्ची और स्त्री को बाहर निकालकर शिविर कैंप अस्पताल में भर्ती करवाया ।


जीवित निकाली गई औरत मोहन की पत्नी रेखा थी और बच्ची श्रीकांत की बेटी बिंदु । वाह ! रे ईश्वर  तेरी माया ।  जाको राखे साईयाँ मार सके ना कोई। रेखा अस्पताल में बेहोश पड़ी थी जैसे ही उसे होश आया वह अपने पति और बच्चों  की तलाश में भागी-भागी आई । चारो तरफ शव ही शव । शवों को देखकर उसका दिल बैठा जा रहा था । इधर से उधर पागलों की तरह भटक रही थी । जब उसके सब्र का बाँध टूट गया ।  तो एक जगह बैठ गई तभी उसकी नजर मोहन पर पड़ी वह भागी -भागी उसके पास गई देखा कि वह तो मृत पड़ा है पास ही उसके दोनों बच्चों के शव पड़े हैं। यह देखर वह सन्न रह गई । थोड़ी देर तक तो उसके मुँख से आवाज ही नहीं निकली ,कुछ समय पहले तक जो उसके साथ हँसी मजाक कर रहे थे अब वे लोग यहाँ  शवों के रुप में पड़े हैं।  उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है। तभी भीड़ में से एक व्यक्ति का उसे जोर का ध्क्का लगा और वह सीधे मोहन के ऊपर जा गिरी । मोहन और बच्चों को मरा हुआ देखकर वह पूरी तरह बदहवास हो गई । उसने अपना आपा खो दिया वह मोहन और बच्चों के सिरों को गोद में रखकर फफक -फफककर रोने लगी । कभी  पति के चेहरे को देखकर रोती तो कभी बच्चों के चेहरे को देखकर। हाय ! रे विधाता यह कैसी घड़ी थी उस पत्नी के लिए जिसकी माँग आज सूनी हो गई है ,उस माँ के लिए जिसके बच्चे आज उसकी गोद में मृत पड़े हैं। चारो तरफ हाहाकर मचा हुआ था । हर कोई अपनों को खोज रहा था । तभी रेखा की नजर श्रीकांत और उसकी पत्नी पर गई, उनके शव भी मोहन के पास ही रखे हुए थे । उसने देखा कि श्रीकांत और उसकी पत्नी के शव तो यहाँ हैं पर उनकी तीन साल की बेटी बिंदु कहीं नजर नहीं आ रही थी । वह वहाँ से उठी और बिंदु को खोजने लगी । खोजते -खोजते वह अस्पताल तक जा पहुँची जहाँ उसका इलाज चल रहा था । वह अभी जीवित थी । जैसे ही बिंदु को होश आया वह जोर -जोर से रोने लगी । उस समय रेखा वहीं पर थी उसने बिंदु को उठाकर अपने सीने से लगा लिया । बिंदु अपने माँ-बाप को न पाकर फिर रोने लगी। हाय ! बेचारी को क्या पता कि जिन्हें वह खोज रही है अब वे कभी  उसके सामने आने वाले नहीं। बिंदु लगातार रोए जा रही थी । रेखा ने उसे चुप करने की बहुत कोशिश की लेकिन नाकाम रही , क्योकि रेखा को तेलुगु भाषा नहीं आती थी और न बिंदु को हिन्दी भाषा , अब वह क्या करे क्या  ना करे उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था । एक तरफ उसके परिवार के शव पड़े हुए थे दूसरी तरफ वह बच्ची । बिंदु की आँखे उस भीड़ में अपने माँ -बाप को ही खोज रही थीं । बिंदु जब रो-रोकर थक गई तो रेखा से लिपटकर सो गई। रेखा बच्ची को अपने सीने से लगाए उन शवों के पास  बैठी विलाप  कर रही थी ।

ट्रेन हादसे की खबर पूरे देश में फैल चुकी थी । हादसे की जगह पर मुसाफिरों के रिश्तेदार आने लगे थे । चारों तरफ भगदड़ मची हुई थी । हर कोई अपनों को खोजने में लगा था । मोहन के परिवार वाले भी हादसे की जगह पर पहुँच चुके थे । हादसे के चौबीस घंटे बीत जाने के बाद हादसे में मारे गए व्यक्तियों के शवों का पास ही के गाँव में अंतिम संस्कार कर दिया गया । मोहन के परिवारवाले तो हादसे की जगह पर पहुँच चुके थे किन्तु रेखा इंतज़ार कर रही थी कि श्रीकांत के परिवार का कोई व्यक्ति आए और बिंदु को ले जाए किन्तु हादसे के दो दिन बीत जाने के बाद भी जब उसे लेने कोई नहीं आया  तो रेखा , बिंदु को अपने साथ दिल्ली ले आई । बिंदु बार -बार अपने माँ-बाप को याद कर रोने लगती । रेखा उसे बार-बार इशारों से चुप कराती । अब वह क्या करे  बिंदु के बारे में  कुछ भी तो नहीं जानती कहाँ की है? इसके  रिश्तेदार कौन हैं ? आदि बातें । यहाँ  परिवार के लोगों ने फैसला किया कि बिंदु को हैदराबाद ले जाकर पुलिस को सौंप देते हैं और बता देंगे कि ट्रेन हादसे में इस मासूम के माता-पिता की मृत्यु हो चुकी है , आप इसके रिश्तेदारों तक इसे पहुँचाने का इन्तजाम कर दे।
किन्तु रेखा ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया । उसे लगा कि उसका पति और बच्चे तो संसार में उसे  अकेले छोड़ गए और इस बेचारी बच्ची के माँ-बाप इसे संसार में अकेला । अगर हैदराबाद में पुलिस इस बच्ची के रिश्तेदारों  को न खोज सकी तो वे लोग इसे अनाथाश्रम में भेज देगी । पता नहीं इस बेचारी का जीवन कैसे कटेगा और कही यह किसी बदमाश के हाथ लग गयी तो ……? इसका जीवन बरबाद हो जाएगा । नहीं नहीं मैं ऐसा नहीं होने दुँगी। मैं इस बच्ची का पालन -पोषण करुँगी। अगर इसके कोई रिश्तेदार होंगे भी तो वे लोग यहाँ आकर ले जाएंगे । हम अख्बार में इस्तहार दे देंगे । इस्तहार देने के तीन महिने बीत गए किन्तु बिंदु को लेने कोई नहीं आया । अब बिंदु रेखा के साथ घुल मिल गई थी । एक माँ की ममता ने यह साबित कर दिया कि माँ के प्यार को किसी भाषा की ज़रुरत नहीं होती । माँ की ममता के रास्ते में कोई भाषा बाधा न बन सकी । दोनों एक दूसरे की भाषा से अंजान होते हुए भी एक दूसरे के अज़ीज़ बन गए। कहते हैं ना कि प्यार से तो जानवर को भी अपने वश में किया जा सकता है। यह तो एक मासूम सी बच्ची जिसने अभी संसार में चलना ही सीखा था फिर वह कैसे ना प्यार की भाषा समझती ।

रेखा ने अपना हैदराबाद का मकान बेच कर दिल्ली में ही एक फ्लैट खरीद लिया था । वह पढ़ी लिखी थी दिल्ली आकर उसने एक नौकरी ढूँढ़ी और अपने जीवन को एक नई उम्मीद के साथ शुरु करने लगी। कहते हैं ना कि वक्त धीरे - धीरे हर गम -दुख को भुला देता है । अब रेखा के जीवन में बिंदु की अहम भूमिका है। उसका सारा ध्यान  बिंदु पर ही लगा रहता है।  बिंदु उसके जीने का आधार जो बन गई थी । वह बिंदु की  परवरिश में किसी प्रकार की कमी नहीं होंने देना चाहती थी । उसे पाकर वह अपने  दोनों बच्चों की कमी को पूरा करने की कोशिश करती पर जो कमी उसके जीवन में हो गई है उसे वह कभी पूरा नहीं कर सकती …… । उसने बिंदु की परवरिश में अपनी पूरी जवानी लगा दी । आज वह यह देखकर अपने आप पर गर्व महसूस करती है कि उसने जिस ज़िम्मेदारी को बरसों पहले अपने कांधों पर उठाया था  आज वह एक कामियाब नारी बन चुकी है। आज बिंदु आए. टी क्षेत्र में एक उच्च शिखर पर कार्य कर रही है। आज बिंदु का किसी भी आए.टी कम्पनी के साथ होना उस कम्पनी के लिए गर्व की बात है । इस स्थान पर पहुँचने में जितनी मेहनत, परिश्रम  बिंदु ने की है उससे ज्यादा  मेहनत और परिश्रम रेखा ने किया था । शायद इसी लिए  आए. टी कम्पनी उसे अपनी कम्पनी में उच्च आधिकारिक पद पर रखना चाहती है। बिंदु की भूमिका ने  रेखा को जीने की एक नयी राह दिखाई एक नया हौसला दिया । शायद इसी लिए वह अपने जीवन की जंग को जीत पाई है।

Wednesday, October 20, 2010

सौगात

                                      सौगात                                                  

शाम का समय था , मैं अपने मित्रों के साथ दिल्ली की सैर पर था । सैर करते -करते हम लोग कनॉट पैलेस जा पहुँचे । सचमुच कनॉट पैलेस दिल्ली का दिल है । चारो तरफ भीड़ ही भीड़ एक से बढ़कर एक दुकान सारा इलाका लोगों से खचाखच भरा हुआ था । यहाँ पर किसी को किसी की फिक्र ही नहीं ,सब अपनी मस्ती में चले जा रहे है। इसी भागती दिल्ली में हम लोग इधर -उधर सैर कर रहे थे , सैर करते -करते देश की राजनीति पर बातें शु डिग्री हो गई कि  हम कहाँ थे ? कहाँ आ गए । दिन प्रतिदिन बदलती राजनीति और राजनेताओं की स्थिति और आम आदमी की स्थिति में कितना अंतर आ गया है । नेता आज देश सेवा के उद्देश्य से राजनीति में नहीं आते बल्कि अपनी आर्थिक उन्नति के लिए ही राजनीति में घुसते हैं । हम अपनी चर्चा करते हुए इधर -उधर का नजारा देख रहे थे कि तभी कही से पकौड़ियों की खुशबु आई, हमारा ध्यान  राजनीति और राजनेताओं से हटकर उन पकौड़ियो की तरफ लग गया । काफी समय से पैदल  सैर करने के कारण हमें भूख भी लग रही थी सो हम उस दुकान की तरफ चल दिए जहाँ से पकौड़ियों की खुशबु आ रही थी । वहाँ जाकर देखा कि  छोटी सी दुकान है, पर काफी भीड़ थी । हमने पकौड़ियों की तीन प्लेट ली और पास ही रखी बैंच पर जाकर बैठ गए । वास्तव में  पकौड़ियाँ स्वादिष्ट थीं ।


पकौड़ी खाते -खाते अचानक मेरी नजर एक बूढ़े व्यक्ति पर पड़ी जिसकी उम्र होगी यही कोई  अस्सी - पिचासी वर्ष । दुबला पतला फटा कुरता और  धोती पहने  कुछ बेच रहा था ।  स्वयं खड़ा  होकर चलने में असमर्थ था फिर भी लाठी  के सहारे चलने का प्रयास कर रहा था । वह गुब्बारे और बीड़ी, सिगरेट बेच रहा था । इधर -उधर घूमकर गुब्बारे ,बीड़ी, सिगरेट बेचता और किसी पेड़ के नीचे बैठकर सस्ताने लगता । इधर- उधर घूमने के कारण उसकी सांसे फूलने लगती तो  एक स्थान पर बैठकर अपना सामान बेचने की कोशिश करता लेकिन वहाँ पर पहले से ही बैठे लोग उसे वहाँ बैठने नहीं देते ,उसे वहाँ से भगा देते।  बेचारा अपना सामान इकट्ठा कर फिर उसी प्रकार इधर - उधर घूमकर सामान बेचने लगता । उम्र के इस अंतिम  पड़ाव पर वृद्ध को  इस प्रकार का संघर्ष करते हुए देखकर मेंरे मन में उस के विषय में जानने की इच्छा हुई । जिस उम्र में व्यक्ति ईश्वर का भजन ध्यान करता है।  पोते -पोतियो के साथ खलता है लकिन वह वृद्ध यहाँ पर सामान बेच रहा है  आखिर ऐसी क्या वजह होगी कि इसे इस उम्र में भी इस प्रकार काम करना पड़ रहा है?



मैने उस पकौड़ीवाले दुकानदार से उस वृद्ध के बारे में  पूछना चाहा कि वह कौन है?  कहाँ का है ?  आदि बातें ।
दुकानवाले ने बताया कि वह उस वृद्ध के बारे में ज्यादा तो कुछ नहीं जानता पर हाँ इतना जरूर जानता है कि किसी जमाने में वह अच्छा  खासा अमीर व्यक्ति हुआ करता था । दिल्ली के पास एक गाँव है वहाँ पर इसके  पास लगभग तीस बीघे जमीन थी । हँसता खेलता परिवार था । तीन बेटियाँ और एक बेटा । सुना है  इसके बेटे ने इसके साथ धोखा करके इसकी सारी जमा पूँजी अपने नाम कर ली और इसे घर से बेज्जत करके निकाल दिया । यह बेचारा अब अपना जीवन निर्वाह करने के लिए यह काम कर रहा है। जो कुछ दिन भर कमाता है उसी से कुछ खा लेता है । भाईसाहव मैं इसे यहाँ पर पिछले पाँच - छह  सालों से देख रहा हूँ । यह बेचारा किस्मत का मारा अपनों के हाथों ही लुटा हुआ है ।
दुकानवाले से उस वृद्ध के बारे में थोड़ी जानकारी पाकर मेंरे मन में उस वृद्ध से मिलने की इच्छा हुई । मैे अपने साथियों को वहीं ठहराकर उस वृद्ध के पास गया । वह उस समय एक पेड़ के नीचे बैठा था । उससे बात करने के लिए पहले मैने उससे दो गुब्बारो का दाम पूछा – “बाबा गुब्बारा कितने का दिया है।”

“पाँच रुपए का।”
“अच्छा दो गुब्बारे देना ।”
गुब्बारे लेकर मैने पैसे देते हुए पूछा “बाबा आप इस उम्र में भी काम  करते हैं वह भी इस हालत में ?”
“अरे ! बेटा क्या क डिग्री इस  पापी पेट को भरने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा।”
“मगर इस हालत में …?”
“हाँ बेटा यह हालत मुझे मेरे बेटे की सौगात है । बेटा जवानी हो या बुढ़ापा यह पापी पेट तो तीनों वक्त का भोजन माँगता है । अब मेरे जैसे बेसहारा बुजुर्गों के सामने दो ही रास्ते   होते हैं एक तो यह कि अपमान और जिल्लत  भरा जीवन जीए ,बच्चों द्वारा फेंके गए टुकड़ों को खाकर घुट-घुटकर जीते रहो । और दूसरा रास्ता यह है कि आप खुद आत्मसम्मान के साथ जीते हुए अपना जीवन बिताओ । किसी के सामने हाथ न फैलाओ चाहे वह तुम्हारा अपना बेटा ही क्यों न हो? जब जीवन के अस्सी साल आत्सम्मान के साथ जीआ हूँ , तो अब क्यों किसी के आगे हाथ फैलाऊँ । भले ही भूखा  मर जाऊँ पर किसी के सामने रोटी कपड़ा और मकान के लिए गिड़गिडाऊँगा नहीं। ईश्वर ने जीवन दिया है वही इस जीवन की नैया पार लगाएगा ।”
पर  “बाबा अब आपकी उम्र कमाने की नहीं ? बच्चों के साथ रहने की है, नाती पोतो के साथ खाने खेलने की है। आप तो ठीक से चल भी नहीं पाते हो बार -बार आपकी साँसे फूल जाती है। आप के बच्चों ने आप को यह सब करने से कभी रोका नहीं ।”


“अरें ! बेटा  मेरी जो यह हालत तुम देख रहे हो ना ? यह मेरे बच्चों की ही दी गई  सौगात है मेरे लिए । यह बूढ़ा कभी मीलों का फासला घंटों में तैय कर लेता था पर अब तो स्थिति ऐसी है कि दस कदम भी लगातार नहीं चल सकता वह भी बिना लाठी के तो  एक कदम भी नहीं रख सकता । सब अपने अपने भाग्य से मिलता है बेटा ।”
क्या कह रहे हो बाबा ? - मैने पूछा
“हाँ बेटा यह बात सुनने में तुम्हे थोड़ी अजीब सी जरूर लगेगी पर जो कुछ भी मैं कह रहा हूँ सब सच है। तुम सोच रहे होगे कि मैं खुद ही अपने बच्चों के पास रहना नहीं चाहता हुँगा सो कोई भी मनगढ़ंत कहानी सुना रहा हूँ । ऐसा कौन कंबख्त बाप होगा जो अपने नाती -पोतों के होते हुए घर से बाहर रहकर एक भिखारी के सामान जीवन बिताएगा। सब किस्मत से मिलता है जब तक्दीर ही खराब हो तो कोई क्या कर सकता है। किस्मत से ज्यादा किसी को न मिला है न मिलेगा । अक्सर तुमने सुना , देखा होगा कि बच्चे माँ - बाप को कोई यादगार सौगात देते हैं । मेरे बच्चों ने भी मुझे इतनी अच्छी यादगार सौगात दी है कि मैं मरते दम तक नहीं भूल सकता । मैं एक ऐसा बदनसीब बाप हूँ जिसे किसी गैर ने नहीं लूटा खुद अपने ही खून ने धोखे से लूट लिया । वाह रे ! किस्मत .......।”

  
आपको लूट लिया बात कुछ समझ में नही आई बाबा - आखिर बात क्या है?


“जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो बूढ़े माँ-बाप उन्हें बोझ से समान लगने लगते हैं। उन्हें लगता है कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं सब सही है।  जब तक आपके पास किसी प्रकार की धन दौलत है तब तक बच्चे आपके आगे -पीछे घूमेंगे और जैसे ही उन्हें पता चलेगा कि बूढ़े माँ- बाप के पास उन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है तो बस तभी से वे लोग तुम्हें ताने मार-मारकर घायल कर देंगे। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । मेरे पास तीस बीघे जमीन थी । जमीन भी कैसी सोना उगलनेवाली । साल में तीन से चार फसल होती थी । ये लगा लो कि साल में कम से कम तीन -चार लाख की फसल आ जाती थी ।”  


आज से करीब बीस साल पहले तक मैं एक नामी जमीनदार हुआ करता था मेरे पास तीस बीघे जमीन थी और पुरखों की एक शानदार हवेली । “मैं अपने बाप की इकलौती संतान था सो जो कुछ पिता के पास था सब मुझे ही मिल गया । ईश्वर की कृपा से मेंरे चार संताने हुई जिनमें तीन बेटियाँ और एक बेटा था। मैने अपनपढ होते हुए भी अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाई उन्हें अपने पैरो पर खड़ा किया ।” लेकिन “मुझे क्या पता था कि जिन बच्चों को मैं पाल पोसकर बड़ा कर रहा हूँ वही एक दिन मुझे  इस हालत में लाकर छोड़ देंगे। अगर ऐसा पता होता कि जिन पौधों के मैं सीच कर बड़ा वृक्ष बना रहा हूँ वे ही मेरी मुसीबत का कारण बनेंगे। तो यह सब हरगिज़ न करता ।”


“हमारा गाँव दिल्ली की सीमाओ से ही लगा हुआ है।  कुछ साल पहले की बात है सरकार ने हमारे यहाँ की सारी जमीन का अधिग्रहण कर लिया था जिसके बदले में मुझे पचास लाख रुपए मिले थे । पचाल लाख रुपयों को देखकर बेटे की नीयत में खोट आ गया वह दिन प्रतिदिन उन रुपयों को हथियाने की कोशिश में लगा रहता उसे डर था कि कहीं मैं उन पैसों को बेटियों में न बांट दूँ। यह सिलसिला काभी समय तक चलता रहा । “एक दिन मेरी पत्नी की तबियत ज्यादा खराब हो गई उसे अस्पताल में भरती करवाया गया उस के इलाज पर मैने लाखों रुपए खर्च कर दिये लेकिन उसे बचाया न जा सका । वह मुझे इस संसार में अकेला छोड़कर चली गई । अच्छा हुआ वह बेचारी पहले ही इस संसार से चली गई नही तो यह सब देखकर  जीते जी अपने आप ही मर जाती । उसे अपने आप पर पछतावा होता कि उसने इस नालायक बेटे को जन्म दिया ।  पत्नी के इलाज पर जो लाखों रुपए खर्च हुए थे उस का बेटे बहु को बहुत दुख था कि लाखों रुपए यों ही बरबाद कर दिए।”


“पत्नी के देहांत के बाद मेरा भी स्वास्थ्य खराब रहने लगा। घर में कोई देखभाल करने वाला जो नहीं था । बेटे को अपने काम से फुरसत नहीं थी और बहु को अपने घर के कामों से फुरसत ही काहाँ थी। समय पर जो कुछ मिल जाता खा लेता नहीं मिलता तो आने  की उम्मीद लगाए बैठा रहता । किसी -किसी दिन तो सुबह से लेकर शाम तक खाना भी नहीं मिल पाता था जब बच्चों को याद आ जाती तो शाम को रुखा -सूखा थाली में रखकर दे जाते ।  खाना बाद में आता पहले तानों से भरी आवाजें घर के अंदर से आने लगती थीं।” 

“धीरे -धीरे मेरा स्वास्थ्य भी खराब होने लगा और एक दिन मुझे सांस लेने में बहुत तकलीफ होने लगी सो अस्पताल में भरती करवाया गया । अस्पताल के खर्चे  के लिए बेटे  ने बैंक के चैक पर मेरे अँगूठे का निशान यह कहकर लगवा लिया कि आपके इलाज के लिए काफी पैसों की जरूरत पड़ेगी और मेरे पास उतने पैसे हैं नहीं । मैं सीधा -साधा किसान बुद्धि का आदमी मैने चैक पक बिना रकम देखे अपना अँगूठा लगा दिया। बेटे ने इस मौके का खूब फायदा उठाया उसने मेरे खाते से तीस लाख रुपए निकालकर अपने खाते में जमा कर लिए । कुछ समय बाद जब मैं ठीक होकर घर वापस आया । एक दिन अनायास ही मैं  बैंक की तरफ चला गया । बैंक जाकर मुझे पता चला कि मेरे बैंक खाते से सारी रकम उस चैक के माध्यम से निकालकर बेटे ने अपने खाते में जमा कर ली है।”


“बैंक से सीधा घर वापस आया और बेटे के घर आने का इंतजार करने लगा । शाम को जब बेटा घर आया तो मैने उससे पूछा कि तुमने मेरे खाते के सारे पैसे अपने खाते में क्यों डाल दिए  ।” बेटे ने कहा कि “आप तो अस्पताल में भरती थे क्या पता था कि आप अस्पताल से घर  वापस भी आते की नहीं इसी लिए मैंने आपके खाते से सारे पैसे निकालकर अपने खाते में जमा कर लिए ।”

“पर बेटे जो कुछ भी मेरे पास है वह सब तेरा ही तो है फिर तुझे इस प्रकार करने की क्या जरूरत थी ।” “जरूरत , जरुरत क्यों नहीं थी? अगर आप पैसो को बैक में ही रखकर मर जाते तो बैंक वाले थोड़े ही इतनी आसानी से लाखों रुपयों को देते । फिर आप को पैसों की ऐसी क्या आवश्यकता है आप को तीनो वक्त का भोजन , पहनने के लिए कपड़े तो मिल ही रहा है ना फिर क्यों चिक - चिक लगा रखी है पैसा , पैसा ? पैसे को क्या छाती पर रखकर मरोगे।”
बेटे की इस प्रकार की कटु बातें  सुनकर मेरा मन किया कि  पुलिस  थाने जाकर शिकायत कर दूँ । फिर सोचा  यह सब करके भी क्या फायदा ? वैसे भी मैंने  यह सब इसी के लिए ही तो इकट्ठा किया था । अपनो द्वारा ठगे जाने के कारण मैने सोचा चलो अब मुझे इस जीवन से मुक्ति ले लेनी चाहिए सो जीवन से मुक्ति पाने के लिए मैंने एक दिन यमुना नदी में कूदकर जान देने की कोशिश की लेकिन वहाँ भी न मर सका । शायद जीवन में और दुख देखने बाकी थे । उस  दिन मैंने फैसला किया कि अब मैं उस घर में वापस लौटकर नहीं जाऊँगा , और ना ही आज तक कभी बेटे - बहु ने मुझे खोजने की कोशिश की । तब से मैं यह काम कर रहा हूँ दिन भर जो कुछ कमा लेता हूँ उसी से अपना पेट भर लेता हूँ । जब तक मुझ में दम है, काम करने की ताकत है। तब तक किसी के आगे हाथ नहीं फैलाऊँगा । आगे की पता नहीं ? अब तो ईश्वर से दिन - रात प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर अब तू मुझे इस संसार से उठा ले ।”

“कमाना खाना तो ठीक है पर आप रहते कहाँ पर हैं?”
“यही पास ही एक बस्ती है उसी में रहता हूँ। मुझ जैसे बदनसीब वहाँ पर और भी बहुत हैं।”
“अभी तो ठीक है गरमी का मौसम है किन्तु शरदी और बरसात में तो आपको बहुत परेशानी उठानी पड़ती होगी।”  

“अब परेशानियो से डर नहीं लगता बेटा । हाँ शरदियों के मौसम में अधिक शरदी के कारण कई दिनो तक बाहर नहीं जा पाता सो कई कई दिनो तक उपवास रखकर ही काटने पड़ते हैं । जब थोड़ा बहुत मौसम खुल जाता है सूरज निकल आता है, तो बाहर सामान बेचकर कुछ पैसे कमा लाता हूँ और इस पापी पेट को भरने की कोशिश करता हूँ । यह पेट है कि भरने का नाम ही नहीं लेता।

जैसे भी हो “बस अब तो मौत का इंतजार है कि कब मौत आए और मुझे इस जीवन से मुक्ति मिल जाए । बेटा हर किसी को जीवन मे सुख नसीब नहीं होता । मुझ जैसे लाखों बदनसीब है जो तिल तिल मर रहे है फिर भी जी रहे हैं।”
“देख लो बेटा यही है मेरे बेटे की सौगात अपने बूढ़े बाप के लिए ।”