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Thursday, December 16, 2010

ऑटोग्राफ

अमित  ओ अमित ......।
कहाँ चला जाता है यह लड़का ? पल में गायब हो जाता है , अमित ओ अमित ......।
देखों तो कमरे को कितना गंदा कर रखा है,सारी किताबें फैली पड़ी हैं। कब सुधरेगा
यह लड़का ?
जैसे ही अमित ने माँ की आवाज सुनी  दौड़ा हुआ घर आया।
हाँफते हुए बोला – ‘माँ मुझे बुलाया?’
हाँ कहाँ चला जाता है तू पल में यहाँ पल में वहाँ तेरा कही एक जगह तलवा टिकता है कि.... नहीं ।
‘यहीं तो था , बाहर दोस्तों के साथ क्रिकेट खेल रहा था .... क्या बात है? क्यों बुला रही थीं ….?’
‘ज़रा देख तो कमरे की क्या हालत बना रखी है तूने सारा सामान इधर -उधर बिखरा पड़ा है । दो दिन के बाद दिवाली है । सब लोग अपने -अपने घरों की सफाई में लगे हैं एक तू है कि तुझे तो सफाई का कोई शौक ही नहीं है।’
ठीक है  मैं कर दुँगा।
पर कब करेगा ? देख तेरी दीदी ने अपना कमरा कितना सुंदर सजाया है।
कहा ना ……मैं कर दुँगा........।    
‘मुझे पता है तू कब करेगा जब तक मैं तेरे साथ नहीं लगुँगी तब तक तो तू करने वाला है नहीं। अच्छा सबसे पहले तू अपने बिखरे हुए सामान को इकट्ठा कर उसे उनकी अपनी -अपनी जगह पर रख।’
‘माँ मैंने कहा ना कर दुँगा फिर क्यों आप मेरे पीछे पड़ी हैं ........।’
‘नहीं तू अभी शुरु कर मेंरे सामने…. फिर मैं भी तो तेरे साथ काम कर रही हूँ ना..........।’
माँ आप भी ना ....... कहते हुए अमित अपने कमरे की सफाई करने में लग गया । सारे कमरे में किताबें इधर से उधक बिखरी पड़ी थी अमित एक-एक कर किताबों को उठाकर अलमारी में रखने लगा उधर माँ बाकी कमरे की सफाई में लग गई। अमित ने कमरे में बिखरे पड़े सभी सामान को उठाकर अपनी-अपनी जगह पर रख दिया ।
माँ ने कमरे में बिखरे पड़ें कपड़ें,जूते ,मोजों को इकट्ठा कर धोने के लिए ले गई । जाते जाते अमित को उसके कमरे में रखी अन्य चीजों को साफ करने की कहते हुए बोलीं –‘अब देख तेरे कमरे को अब भी तो कमरा जैसा लग रहा है ना।’
‘तो क्या पहले कमरा नही लग रहा था क्या ?’ अमित ने कहा
‘हाँ हाँ पहले भी यह था तो कमरा ही पर इन्सानों का कमरा कम और जानवरों का ज्यादा लग रहा था।’  माँ ने कहा
‘अच्छा सुन देख तेरी अलमारी में जो -जो किताबें काम की नहीं है उन्हें निकाल कर रद्दी में डाल दे घर से कुछ कचरा कम कर । एक बार सारी किताबों को झाड़ कर साफ कर ले और जो तेरे काम की नहीं हैं उन्हें बाहर निकाल कर बाहर रख दे।’
अमित – ‘माँ सभी किताबें मेरे काम की हैं।’
माँ- अरे अब तुझे स्कूल की किताबों की क्या ज़रूरत अब तू नौकरी करेगा कि इन स्कूलों की किताबों को पढ़ेगा।’
अमित ने माँ को समझाते हुए कहा कि किताबें चाहे स्कूल की हो या कॉलेज की किताबें कभी न कभी  काम आ ही जाती है।
माँ – ‘अच्छा ठीक है एक बार तू देख ले अगर कोई किताब तेरे काम की ना  हो तो उसे बाहर निकाल कर रख देना ।’
अमित - ठीक है माँ अब तुम जाओ मैं देख लुँगा अगर मुझे लगेगा कि किताब मेरे काम की नहीं है तो मैं बाहर निकालकर रख दुँगा । ठीक हैं....
माँ- ‘पता नही तू क्या करेगा ? कभी इन किताबों को पढ़ते हुए तो देखा नहीं कितने ही सालों से सजा कर रखी हुई हैं .......।’
अमित – ‘मैने कहा ना मैं देखकर बिना काम की किताबों को बाहर निकाल दुँगा ...........अब तुम जाओ।’
माँ- ‘अच्छा ठीक है,’ कहते हुए कमरे से बाहर चली गई ।
माँ के कमरे से बाहर जाते ही अमित ने अपनी सारी किताबें अलमारी से बाहर निकालकर ज़मीन पर रख दी और एक - एक किताब को साफ कर अलमारी में फिर से सजाने लगा। किताबों को साफ कर रखते -रखते उसे करीब आधा घंटा हो चुका था । वह किताबों को साफ करते हुए सजा रहा था कि अचानक उसकी नज़र किताबों के नीचे दबी एक पतली किताब पर गई उसने वह किताब कुछ किताबें हटाकर बाहर निकाली । वह किताब उसके स्कूल के समय की ऑटोग्राफ बुक(किताब) थी । अपनी स्कूल की ऑटोग्राफ बुक को देखकर बहुत खुश हो गया । उसने उसे साफ कर एक तरफ रख दिया और बाकी पड़ी हुई किताबों को साफ कर अलमारी में रखने लगा थोड़ी देर में सारी किताबें साफ कर  अलमारी में सजा दी थी और कुछ किताबें जो उसे बेकाम की लगी बाहर निकाल कर रख दी थीं। अब उसने अपनी ऑटोग्राफ बुक उठाई और एक -एक कर किताब के पन्ने पलटने लगा। किताब के पन्ने पलटते-पलटते वह अपने स्कूल के आखरी दिन को याद करने लगा.....................।

अमित के चार खास दोस्त थे राहुल , मनीश कमल और रमेश । रमेश इन चारों में सबसे होशियार छात्र था । वैसे चारो दोस्त एक दूसरे का खूब साथ निभाते थे चाहे वह खेल का मैदान हो या फिर पढ़ाई लिखाई या फिर परीक्षा  हॉल । मनीश थोड़ा सा कमजोर छात्र था । ये तीनों मित्र उसे पढ़ाई में बराबर साथ देते थे जो कुछ उसे समझ में नहीं आता था ये तीनों दोस्त किसी न किसी तरह उसे समझाने में कामयाब हो जाते। इसी लिए पूरे स्कूल में इन चारों की जोड़ी बड़ी मशहूर थी । 
 आज स्कूल में बारहवी कक्षा के छात्रों का विदाई समारोह है। अमित के दोस्त स्कूल में एक एक कक्षा में जा जाकर  अपनी यादों को ताजा करते हुए एक दूसरे से कहते...
अमित - अरे यार जब मैं इस स्कूल में आया था तब सबसे पहले मैं इसी कमरे मैं बैठा था। उस दिन मुझे बड़ा डर लग रहा था कोई भी लड़का पहचान का नहीं था मैं एक दम नया था इस माहौल के लिए ...तभी अमित की बात को बीच में ही काटते हुए कमल बोल उठा
कमल -‘हाँ  यार मुझे भी याद है….. जब तू स्कूल में पहली बार  आया था ,सबसे पहले हमारी  दोस्ती इसी कमरे में हुई थी है ना .........।’
अमित – ‘हाँ यार , बाद में मनीश, रमेंश से हमारी दोस्ती हुई थी तुझे याद है एक दिन जब रमेश को कक्षा में दो-तीन लड़के मार रहे थे तब मैने ही इसे बच बचाव करके बचाया था।’
रमेश - हाँ यार उस दिन को कैसे भूल सकता हूँ । वो तीन मुस्टंडे से लड़के बिना बात ही मुझ से झगड़ पड़े थे । अगर उस दिन अमित ना होता तो वे तो मेरी चटनी ही बना देते थे.........।
चटनी बना देने की बात सुनकर चारो दोस्त ठहाकामारकर हँस दिए।
चारो दोस्त धीरे-धीरे पूरे स्कूल का दौरा करके वापस हॉल में आ गए । हॉल सभी विद्यार्थियों से खचाखच भरा हुआ था । कक्षा ग्यारह के विद्यार्थियों ने कक्षा बारह के विद्यार्थियों को एक -एक गुलाब का पुष्प भेंट किया । कक्षा बारह के विद्यार्थियों ने स्कूल की  कुछ खट्टी-मीठी यादों को अपने जूनियरों के साथ बाँटा.....। इसी तरह विदाई कार्यक्रम समाप्त हुआ। कक्षा बारह के विद्यार्थियों के चेहरे पर अपने स्कूल को छोड़ने का दुख देखा जा सकता था साथ ही भविष्य में उन्नति की आशा भी साफ देखी जा सकती थी । अब कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना ही पड़ता है........। सभी विद्यार्थी अपने दोस्तों का ऑटोग्राफ लेने में लगे थे। वहीं अमित एक पेड़ की छाँव में बैठा कुछ सोच रहा था । अमित के दोस्त उसे हॉल में ना पाकर इधर-उधर खोजने लगे उन्होंने देखा कि वह एक पेड़ के नीचे सिर झुकाए हुए बैठा है। सभी लोग उसके पास गए तो उन्होंने देखा कि अमित रो रहा था। गम्भीर से गम्भीर विषय को भी जो कभी गम्भीरता से नहीं लेता था। जो सदैव दूसरों को हँसाने का भरपूर प्रयास करता था आज वह रो रहा है । यह देखकर उसके सभी दोस्त चकित रह गए । पहले तो वह दिखाना चाहता था कि वह रो नहीं रहा किन्तु पता नहीं आज वह अपने आप को रोने से रोक न सका शायद उसे स्कूल छोड़ने का दुख था या.......? हॉल विद्यार्थियों से खचाखच भरा था वहाँ पर उपस्थित सभी विद्यार्थियों की आँखें नम थी सभी को अपने दोस्तों से स्कूले से अपने पसंदीदा अध्यापकों से बिछड़ने का दुख था ।
यहाँ जब अमित के दोस्तों ने देखा कि वह पेड़ के नीचे बैठा रो रहा है..। 
‘क्या बात है अमित तुम्हारी आँखों में आँसू ........?’ मित्रों ने पूछा
अमित ने कुछ नही कहा वह ......................बैठा रहा।
आखिर बात क्या है ?
अमित ने अपने तीनों दोस्तों की तरफ देखा और ...........।
अमित के दोस्तों ने कहा कि - अरे यार इसमें रोने की क्या बात है हम सब हैं तो एक ही शहर में जब जी चाहे मिल सकते हैं , भले ही हम एक कॉलेज में पढ़े या ना पढ़े पर मिलते तो रहेंगे।
अमित को आज ही पता चला था कि उसके पिताजी का तबादला दिल्ली हो गया है । उसके माता -पिता ने उसे यह खबर इसीलिए नहीं बताई थी क्योंकि यह खबर सुनकर वह  अपनी पढाई में ध्यान नहीं दे पाएगा । उसे कल ही अपने पिताजी के साथ दिल्ली जाना है। 

अमित ने दोस्तों को जब यह बताया कि पता नहीं अब वह उन लोगों से कब मिल पाएगा , मिल पाएगा भी या नहीं। क्योकि उसके पिता जी का दिल्ली ट्रांसफर हो गया है और कल ही उसे अपने परिवार के साथ  जाना है और फिर वह वहीं रहेगा उसके पिताजी ने उसका कॉलेज में एडमीशन भी करवा दिया है । जब उसके दोस्तों ने यह सुना तो पहले तो उन्हें लगा कि अमित मजाक कर रहा है। जब अमित ने कहा कि मैं मजाक नहीं कर रहा यह सच है तो वहाँ उसके तीनों दोस्तों की आँखें नम हो गई ।
धीरे - धीरे समय बीत रहा था । सभी लोग एक दूसरे से मिल रहे थे और भविष्य में मिलनते रहने और कभी न भूलने की बातें कर रहे थे। इधर अमित और उसके दोस्त ................। पेड़ के नीचे शांत बैठे एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे ।कोई किसी से कुछ कह ही नहीं रहा था बस शांत बैठे हुए थे। तभी अमित उठा और बोला- अरे यारो मेरी वजह से तुम लोगों का भी मूड खराब हो गया । कोई बात नहीं हम लोग एक दूसरे से रोज नहीं मिल सकते तो क्या हुआ फोन तो है ना , फोन पर ही बात कर लिया करेंगे । पर यारो तुम लोग मुझे भूल न जाना भले ही............ अमित की 'कभी भूल न जाना' की बात सुनकर चारों दोस्त एक दूसरे के गले मिल कर .....................।

तभी अमित ने अपनी ऑटोग्राफ बुक निकालते हुए अपने दोस्तों  से कहा कि कम से कम वे लोग उसे अपना-अपना ऑटोग्राफ दें ।
रमेश ने लिखा – ‘जीवन की राह पर तुम हमें भूल न जाना ,
                जब भी याद हमारी आए आँखें बंद कर हमें पुकार लेना
                हम तेरी साँसे बनकर सदा तेरे साथ होंगो ए यार मेरे।।’
मनीश ने किशोरकुमार के गाने की पंक्तियाँ – ‘चलते - चलते मेरे ये गीत याद रखना कभी अलविदा ना कहना................।’
इसी तरह एक -एक कर सभी ने उसकी ऑटोग्राफ बुक में लिखा। यहाँ से चलकर अमित और उसके दोस्त हॉल में पहुँचे जहाँ सभी विद्यार्थी बैठे हुए थे । अमित ने अपने सभी दोस्तों को यह बात किसी को न बताने के लिए कि अमित कल शहर छोड़कर दिल्ली जा रहा  कह दिया था । यहाँ आकर वह अपने अन्य सभी दोस्तों और अध्यापकों से मिला । अपने अध्यापकों का ऑटोग्राफ लिया ………..।
तभी दरवाजा खुलने की आवाज हुई , देखा तो माँ सामने खड़ी है , अरे क्या हुआ ? क्या सोच रहा था?
अमित -  ‘कुछ नही माँ।’

क्रमश ....
आगे की कहानी नए साल में…

Tuesday, December 7, 2010

सखा

  सुन्दर एक अमेरिकन कॉल सेन्टर कम्पनी में काम करता है। पुणे शहर में आए हुए तीन साल ही हुए हैं। अमेरिकन कॉल सेन्टर में पिछले दो साल से काम कर रहा है। अमेरिकन कॉल सेन्टर  कम्पनी होने के कारण उसकी ड्यूटी रात(नाइट शिफ्ट ) की रहती है। एक दिन की बात है जब वह अपनी ड्यूटी खत्म करके कम्पनी के बाहर अपनी कैब(कार) का इन्तज़ार कर रहा था । सुन्दर अपने अन्य सहकर्मियों के साथ बाहर खड़ा कुछ ऑफिसियल काम की बातें कर रहा था । दिन के करीब 10:30 बजें होंगे सभी लोग बड़ी बेसब्री से अपनी- अपनी कैब का इंतजार कर रहे थे । खड़े -खड़े कैब का इंतजार करते -करते उसके पैर दुखने लगे थे इसीलिए वह इधर -उधर टहलने लगा । टहलते हुए उसकी नज़र कम्पनी के बाहर खड़े एक नवयुवक पर गई जो  बाहर खड़े हुए कम्पनी की इमारत को निहार रहा था । उसे देखने से लग रहा था जैसे वह कम्पनी में इन्टरव्यू देने के लिए आया हो। कुछ समय तक उस नवयुवक को देखने के पश्चात सुन्दर अपने अन्य साथियों की तरफ जाने लगा उसने देखा कि उसकी कैब आ चुकी है। वह अपनी कैब की तरफ जा ही रहा था कि उसे किसी ने पीछे से आवाज दी- एक्सक्यूजमी सर......... , सुन्दर ने पीछे पलटकर देखा तो वही नवयुवक जिसे कुछ देर पहले उसने कम्पनी के बाहर देखा था । सुन्दर को लगा शायद किसी  मार्किटिंग कम्पनी का आदमी होगा, किसी सामान की मार्किटिंग कर रहा होगा। सुन्दर के पास आकर पहले तो उसने गुडमोर्निग कहते हुए अपना परिचय देते हुए अपना नाम शंकर बताया। सुन्दर ने भी उसे गुडमोर्निग कहते हुए  यस  ......। शंकर ने उससे उस कम्पनी के विषय में पूछा कि कम्पनी में नौकरी करने के लिए किस प्रकार की शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता है। सुन्दर ने उसे बताया कि किसी भी कॉल सेन्टर  कम्पनी में काम करने के लिए कम से कम आप के पास ग्रेजुएशन तक की डिग्री होनी चाहिए। साथ ही साथ अंग्रेजी भाषा का भी अच्छा खासा ज्ञान होना चाहिए। और सबसे अहम बात कि आपका कम्युनिकेशन स्किल बहुत अच्छा होना चाहिए तभी आपको किसी कॉल सेन्टर में नौकरी मिल सकती है।

शंकर ने पूछा कि क्या कम्पनी किसी प्रकार की ट्रेनिंग कराती है या सीधे काम पर बिठा देती है। सुन्दर ने उसे बताया कि कम्पनी में जो भी नया स्टाफ आता है कम्पनी पहले उसे तीस दिन की ट्रेनिंग पर भेजती है । ट्रेनिका का सारा खर्चा कम्पनी ही देती है । जब नया स्टाफ तीस दिन की ट्रेनिंग करके लौटता है तब उसे काम दिया जाता है। क्या तुम भी यहाँ इन्टरव्यू के लिए आए हो ? उसने  हाँ कहते हुए अपना सिर हिला दिया । सुन्दर ने उसे बताया कि आज शनिवार है और शनिवार को ऑफिर बंद रहता है शनिवार को किसी का इन्टरव्यू नहीं होता । यह सुनकर शंकर के चेहरे पर एक निराशा की छाया झलकने लगी । सुन्दर ने शंकर को गौर से देखा उसके पहनावे से लग रहा था जैसे वह किसी गरीब परिवार से है । एक दम साधारण कपड़े पहनकर वह इन्टरव्यू के लिए आया है इससे पता चलता है कि यह ज़रुर किसी गरीब परिवार से है। शंकर शायद पहली  बार किसी इन्टरव्यू के लिए आया था । सुन्दर की कैब उसका इन्तज़ार कर रही थी उसका ड्राइवर उसे आवाज लगा रहा था। सुन्दर ने शंकर को अपना फोन नम्बर देते हुए कहा –“ शाम को इस नम्बर पर तुम मुझे कॉल करना हो सकता है मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ” कहते हुए उसने शंकर से हाथ मिलाया और अपनी कैब में जा बैठा। सुन्दर और उसके साथी कम्पनी से बाहर जा चुके थे लेकिन शंकर अभी भी उस कम्पनी के प्रांगण में खड़ा कम्पनी की इमारत को निहारे जा रहा था । कुछ समय पश्चात वह वहाँ से निराश मन से वापस लौट गया ।
शाम का समय था सुन्दर अपने मित्रों के साथ सैर के लिए निकला था । सुन्दर ने शंकर को शाम फोन करने के लिए कहा था इसीलिए उसने सुन्दर को फोन किया था।  शाम के करीब पाँच बजे होंगे सुन्दर के सेलफोन की घंटी बजी उसने देखा कि सिर्फ नम्बर ही है किसी अंजाने आदमी का फोन है। पहले तो वह फोन उठाना ही नहीं चाहता था, ना चाहते हुए भी उसने फोन आखिरकार उठा ही लिया।
सुन्दर – ‘हैलो।’
शंकर- ‘गुडईवनिंग सर।’
सुन्दर – ‘गुडईवनिंग ... मै आई नो हू इस ओन दा लाइन?’
शंकर – ‘सर मैं शंकर।’
सुन्दर – ‘शंकर  कौन शंकर ......?’
शंकर – ‘सर  मैं आज सुबह आपको मिला था , आपके ऑफिस के बाहर आपने अपना फोन नंबर देते हुए मुझे शाम को कॉल करने के लिए कहा था।’
सुन्दर –‘ओह.. .ओह तुम  .. सौरी यार मैं पहचान नहीं सका।’
शंकर – ‘कोई बात नहीं सर ।’
सुन्दर – ‘पर यार मैं तुमसे अभी नहीं मिल पाऊँगा , असल में मैं अपने दोस्तों के साथ बाहर आया हुआ हूँ मुझे घर पहुँचते-पहुँचते देर हो जाएगी । क्या तुम कल सुबह  मेरे घर पर आ सकते हो ।’
शंकर- ‘जी सर  पर………. कहाँ।’
सुन्दर – ‘मेरे घर का पता लिख लो। कल सुबह दस - ग्यारह बजे तक आ जाना।’
 सुन्दर ने घर का पता शंकर को बता दिया था । उस रात सुन्दर अपने दोस्तों के साथ घर देर से पहुँचा दोस्तों के साथ खेल कूद में बहुत थक गया , घर पहुँचते ही वह सीधा अपने कमरे में गया और सो गया । सुन्दर के साथ उसके दो सहकर्मी रमेश ओर मिलिन्द  भी रहते हैं । अधिक थक जाने के कारण बिस्तर पर लेटते ही सुन्दर अपने सपनों की दुनिया में खो गया । अगला दिन रविवार है यह सोचकर वह अधिक देर तक सोता रहा। रविवार की सुबह दस बजे का समय हुआ होगा तभी रमेश ने आकर उसेे जगाते हुए बताया कि उससे मिलने कोई शंकर नाम का व्यक्ति आया हुआ है। शंकर का नाम सुनते ही वह तुरंत उठकर बैठा हो गया। अपने कमरे से बाहर आकर देखा तो शंकर अपने हाथों में कुछ कागज़ लिए हुए सहमा सा बैठा है। जैसे ही शंकर ने सुन्दर को देखा वह अपनी जगह से खड़े होकर ‘गुड़मोरनिग सर कहते हुए खड़ा हो गया । सुन्दर ने उसे सर नाम से संबोधित न करने के लिए कहते हुए कहा कि उसका नाम सुन्दर है अगर वह उसे सुन्दर नाम से पुकारेगा तो उसे ज्यादा खुशी होगी कहकर उसके साथ बैठ गया । घर में सारा सामान इधर उधर बिखरा पड़ा था इसलिए उसने शंकर से  खेद प्रकट करते हुए बताया कि उसके आने पर ही वह जगा है कुछ समय बाद वह कमरे की सफाई करेगा । शंकर ने भी उसे सकारात्मक तरीके के कहा कि नहीं सर जी यह तो बहुत अच्छा है ।
थोड़ी देर उसके साथ बातें करके वह शंकर को अख्बार देकर नहाने चला गया । शंकर कमरे में सहमा सा बैठा था। जब सुन्दर के सहकर्मियों ने देखा कि वह कुछ डरा हुआ बैठा है तो उन्हें लगा  शायद पहली बार वह उनके घर आया है इसीलिए डरा हुआ बैठा है, दोनों मित्र रमेश और मिलिन्द उसके पास जा बैठे । तीनों आपस में इधर - उधर की बातें करने लगे । कुछ समय बाद सुन्दर भी नहाकर बाहर आ गया था । सुन्दर ने शंकर के पूछा कि वह नाश्ता करके आया है या नहीं। शंकर ने बताया कि वह घर से एक कप चाय पीकर आया है। ‘अरे यार तुमने नाश्ता किया की नहीं।’सुन्दर ने कहा। शंकरने अपना सिर हिलाते हुए ना कह दिया। ‘अच्छा ठीक है वैसे भी हमारा तो नाश्ते का ही समय है चलो सब लोग नाश्ता करते हैं’ कहकर वह एक पैकेट ब्रेड और एक जाम की बोतल रसोई से निकालकर बाहर ले आया जहाँ पर सभी लोग बैठे थे। नाश्ता करते समय सुन्दर ने उसके विषय में पूछा कि वह महाराष्ट्र का तो नहीं लगता। शंकर ने  बताया कि वह कर्नाटक के गुलबर्गा शहर का निवासी है और यहाँ पर नौकरी की तलाश में आया हुआ है। नौकरी की बात सुनकर मिलिन्द ने पूछा कि उसकी क्वालिफिकेशन क्या है? शंकर ने बताया कि उसने एम.एस.सी की है, और उसकी इंग्लिश थोड़ी कमजोर है। इंग्लिश कमजोर होने के कारण ही उसे किसी अच्छी कम्पनी में नौकरी नहीं मिल पाई है। इंग्लिश कमजोर होने की बात सुनकर रमेश बोल उठा कि तुम स्पोकन इंग्लिश क्लासेस क्यों नहीं ज्वाइन कर लेते, वे लोग तुम्हें कम्युनीकेशन स्किल्स भी सिखाएंगे। जब तक तुम्हारी इंग्लिश और कम्युनीकेशन स्किल अच्छी नहीं होगी तब तक तुम्हें किसी अच्छी कम्पनी में नौकरी पाना मुश्किल होगा। स्पोकन इंग्लिश की क्लासेस ज्वाइन करने की बात सुनकर शंकर शांत बैठ गया । सुन्दर ने शंकर को गौर से देखा तो लगा कि ज़रूर कोई बात है। सब लोगों ने मिलकर नाश्ता किया रमेश और मिलिन्द को किसी आवश्यक काम से बाहर जाना था तो वे लोग शंकर को फिर मिलने की कहकर चले गए ।
सुन्दर ने शंकर से उसका सी.वी दिखाने के लिए कहा। शंकर ने अपना सी.वी दे दिया । सी.वी को देखते हुए सुन्दर ने शंकर को बताया कि ‘जो सी.वी वह लाया है वह पुराने समय का (आउट डेटेड) है। उसने बताया कि सबसे पहले तो उसे अपने इस सी.वी को बदलना होगा, केवल सी.वी से ही कुछ नहीं होनेवाला उससे पहले तुम्हें अपना कम्युनीकेशन स्किल को भी सुधारना होगा जिसके लिए तुम्हें इंग्लिश का अच्छा ज्ञान होना बहुत ज़रुरी है।  तुम एक काम क्यों नहीं करते स्पोकन इंग्लिश की क्लासेस क्यों नहीं ज्वाइन कर लेते ।’ यह बात सुनकर शंकर एक बार फिर से खामोश हो गया । वह कुछ सोच में पड़ गया .......। सुन्दर ने उससे उसकी चिंता का कारण जानना चाहा किन्तु शंकर कुछ नहीं है कहकर रुक गया । शंकर के दो- तीन बार पूछने पर उसने अपनी पारिवारिक स्थिति के बारे में बताया कि ‘वह एक गरीब परिवार से है, किस प्रकार की कठिनाइयों का सामना करते हुए अपनी पढ़ाई पूरी की है यह तो वही जानता है……..। उसके पिताजी एक मिल में काम करते हैं,माँ   गृहणी हैं, घर में एक छोटी बहन और भाई है। छोटी बहन डिग्री रही है और भाई बारहवी में । घर में पिताजी एक कमानेवाले हैं और हम सब ..............। पिताजी की भी अब उम्र हो चुकी है वे भी कितना कमा कमा कर खिलाएंगे। अब जब मैं कमाने लायक हो गया हूँ तो कोई नौकरी ही नहीं मिल रही ऐसी स्थिति में मैं कैसे……… ?’ 
जब सुन्दर ने शंकर की कहानी सुनी तो उसे लगा कि इस बन्दे की किसी न किसी प्रकार से सहायता करनी चाहिए पर कैसे.......... अगर मैं इसे पढ़ने के लिए पैसे दुँगा तो हो सकता है कि इस वह सोचे कि मैं उसकी गरीबी का मज़ाक उड़ा रहा हूँ। हो सकता है ऐसा करने से उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचे ...। पर मैं क्या करु..., तभी शंकर ने पूछ लिया
शंकर –‘क्या हुआ सुन्दर सर ? आप क्या सोचने लगे ?’
सुन्दर – ‘कुछ नहीं यार .....।’
शंकर – ‘आप तो मेरी आर्थिक स्थिति सुनकर चुप हो गए ।’
सुन्दर – ‘कुछ नही यार ......। अच्छा…. एक काम करोगे।’
शंकर -  ‘जी कहिए।’
सुन्दर – ‘तुम स्पोकन इंग्लिश की क्लासेस नहीं जा सकते मैं समझ गया लेकिन हम एक काम कर सकते हैं अगर तुम सचमुच अपनी इंग्लिश और अपना कम्युनीकेशन स्किल सुधारना चाहते हो तो......?’
शंकर – ‘वह क्या सर?’
सुन्दर – ‘तुम सन्डे के सन्डे मेरे पास आ सकते हो।’
शंकर – ‘हर सन्डे?’
सुन्दर – ‘हाँ।’
शंकर – ‘पर……. क्यों सर?’
सुन्दर – ‘मैंने सोचा अगर तुम बाहर पढ़ने नहीं जा सकते तो मेरे पास ही आ जाया करों मैं तुम्हें इंग्लिश सिखाऊँगा ।’
शंकर- ‘पर….. सर आप...........।’
सुन्दर – ‘कुछ नहीं .... तुम्हें इंग्लिश सिखाने की ज़िम्मेदारी अब मेरी अगर तुम सीखना चाहो तो......।’
शंकर – ‘जी सर मैं मेहनत करके ज़रूर सीखुँगा।’ 
शंकर हर रविवार को सुन्दर के घर आता शंकर उसे इंग्लिश सिखाता रविवार का सारा दिन पढ़ने और पढ़ाने में ही बीतता । शंकर भी खूब मेहनत से इंग्लिश सीख रहा था । ऐसे ही कई महीन बीत गए । शंकर और सुन्दर घनिश्ठ मित्र बन चुके थे।

एक दिन की बात है सुन्दर अपने ऑफिस से  ड्यूटी खत्म करके निकला ही था कि उसे पता चला  आज तो कम्पनी की तरफ से फुटबॉल का मैच खेलना है। वह अपने साथियों के साथ सीधे मैदान में फुटबॉल खेलने के लिए चला गया । उस दिन मौसम साफ न होने के कारण बीच मैंच में ही बरसात होने लगी। सभी लोग बरसात में भीगते हुए ही मैंच खेलते रहे। वे लोग मैंच तो नहीं जीत सके पर  बरसात में खेलने का जो आनंद मिला ....। सारा दिन बरसात में मैच खेलने के कारण सुन्दर की तबियत कुछ नाजुक सी हो रही थी । फुटबॉल खेलने के कारण उसके पैरों में दर्द होने लगा था । उसने घर पहुँचकर खाना खाया और आराम करने लगा शाम तक उसे बहुत तेज बुखार हो गया था। बाहर बारिश होने के कारण  बाहर डॉक्टर के पास भी नहीं जा सका। सुन्दर के साथ उसके दो मित्र भी रहते हैं लेकिन उस दिन वे दोनो अपने- अपने घर चले गए थे । सारी रात सारा बदन तेज बुखार से तपता रहा । सुन्दर ने एक क्रोसिन की गोली ले ली थी लेकिन उससे कुछ आराम नहीं हुआ। जैसे-तैसे करके उसने रात काटी । अगली सुबह उसका बुखार कुछ कम तो हो गया लेकिन पूरी तरह नहीं । बाहर तेज बरसात हो रही थी । सुबह से ही वह शंकर का इंतज़ार करने लगा तीन-चार घंटे इन्तजार करने के बाद उसने शंकर को फोन किया । फोन करने के पश्चात पता चला कि उसे भी कल रात से तेज़ बुखार है। जैसे ही सुन्दर ने सुना कि शंकर को तेज़ बुखार है वह उससे मिलने के लिए तड़प उठा । अब क्या करे? क्या ना करे ?उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था बाहर तेज बरसात हो रही है और उसे अपने मित्र से मिलने जाना है। शंकर के बीमार होने की खबर सुनकर वह अपनी बीमारी भूल गया उसे यह भी याद नहीं कि वह भी तो बीमार है। कुछ घंटों बरसात के कम होने का इंतजार करने के बाद जैसे ही बरसात थोड़ी कम हुई जैसे-तैसे करके वह घर से बाहर आया उसके घर के सामने ही फलवाले की दुकान थी उसने कुछ फल खरीदे और मेडिकल स्टोर से कुछ दवाइयाँ खरीदकर ऑटो बुलाया और सीधा शंकर के पास जिस इलाके में शंकर रहता था वहाँ जा पहुँचा।  वह एक दम गरीब लोगों का इलाका (स्लम एरिया )था। चारो तरफ गंदगी फैली हुई थी। छोटी-छोटी गलियाँ जैसे-तैसे पता करते कराते वह शंकर के घर तक पहुँच ही गया । उसने घर का दरवाजा खटखटाया घर के अंदर से किसी भी प्रकार की कोई आहट न सुनकर वह घबरा गया।  उसने फिर जोर से दरवाजा खटखटाया इस बार उसे  घर के अंदर से कुछ आहट सुनाई दी  शंकर ने ही दरवाजा खोला । सुन्दर को अपने घर और अपने सामने देखकर वह चैक गया। सुन्दर को देखकर शंकर को खुशी तो बहुत हुई साथ ही साथ शर्मिंदगी भी हुई कि वह .....ऐसे इलाके में आया है .........। शंकर , सुन्दर को  घर के अंदर ले आया किन्तु उसे बहुत ही शर्मिंदगी महसूस हो रही था । सुन्दर उसके मन की बात तो ताड़ गया और कहा –‘अरे याह घर में जगह हो ना हो मगर दिल में जगह है तो बहुत है।’ यह सुनकर शंकर की आँखों में आँसू भर आए। शंकर को खाट पर बिठाते हुए सुन्दर ने उसे एक सेब काटकर देते हुए कहा –‘चल जल्दी से सेब खा ले फिर दवा भी खानी है।’ शंकर ने सेब खाया और दवा लेकर लेट गया। आज वह अपने आप को धन्य समझ रहा था कि उसे जीवन में एक सच्चा दोस्त मिल गया है। थोड़ी देर शंकर के पास ठहरने के बाद सुन्दर घर वापस आ गया । आज उसे एक अजीब सी सुकून मिल रहा था । घर आकर उसने भी बुखार की दवाई खाई और थोड़ा बहुत खाकर सो गया । अगले दिन भी वह शंकर को देखने उसके घर गया।  आज उसकी  तबियत में काफी सुधार था । सुन्दर, शंकर के पास बैठा था तभी किसी के आने की आहट हुई देखा तो पता चला कि शंकर के साथ जो लड़का रहता है वह आया है। शंकर ने अपने मित्र का परिचय सुन्दर से कराया । शंकर का मित्र (रुम मेट ) चाय बनाकर ले आया । चाय पीते-पीते सुन्दर की नज़र वहाँ पर रखी एक किताब पर पड़ी उसने वह किताब उठाई और पढ़ने लगा वह गुलबर्गा की एक मासिक पत्रिका थी । पत्रिका पढ़ते -पढ़ते उसका ध्यान एक कविता की ओर आकर्षित हुआ उसने वह कविता पूरी पढ़ी , जब उसने कविता के नीचे लिखा नाम देखा तो वह आश्चर्यचकित रह गया वह कविता शंकर ने लिखी थी । शंकर इतनी सुन्दर कविता भी लिखता है। जब सुन्दर ने उससे पूछा कि – ‘यार तुम तो बड़ी अच्छी कविता लिख लेते हो।’
शंकर- ‘हाँ यार कभी कभार मन करता है तो लिख लेता हूँ।’
सुन्दर –‘तुम्हारी कविता तो बहुत अच्छी है। यार,ऐसा लगता है जैसे यथार्थ को सामने रख दिया  हो...।’
शंकर – ‘मैं…. उतना भी अच्छा नहीं लिखता जितनी तुम मेरी तारीफ कर रहे हो।’
सुन्दर-  ‘नहीं यार सचमुच तुम्हारी कविता बहुत अच्छी है। तुम और कविता, कहानी क्यों नहीं लिखते।’
शंकर – ‘नहीं यार ।’
सुन्दर – ‘पर क्यों ….?तुम तो अच्छा लिखते हो अपनी इस कला को यूँ छिपाकर मत रखो यार।’
शंकर – ‘दोस्त कविता, कहानियों से पेट नहीं भरता, तन पर वस्त्र नहीं आ जाते ।  जब पेट में भूख लगी हो ना तब कोई कहानी और कविता याद नहीं आती ।  बस जब कभी मेरा मन करता है लिखने बैठ जाता हूँ जो कुछ उल्टा सीधा आता है लिख लेता हूँ। यह सब तो मैं बस अपना टाइम पास करने के लिए लिख लेता हूँ। यूँ समझ लो कि यह मेरा शौक है .....।’

सुन्दर ने शंकर को और कहानी , कविता लिखने के लिए काफी प्रोत्साहित किया उसे समझाया कि अगर वह अपने इस हुनर को दुनिया से छिपाकर रखेगा तो उसे कोई लाभ नहीं होगा किन्तु हाँ अगर वह अपने इस हुनर को समाज के सामने रखेगा तो हो सकता है कि उसे इस का कभी न कभी कुछ लाभ मिल जाए ,हो सकता है तुम्हारी लिखी कहानियाँ, कविताएँ किसी और को जीने की प्रेरणा दें ........। शंकर की बात मानकर सुन्दर ने फिर से लिखना शुरु कर दिया एक -एक कर उसने कई कविताएँ और कहानियाँ लिख डाली प्रत्येक कहानी को सुन्दर अपने पास सुरक्षित रखता गया और जब दस -पंद्रह कहानियाँ हो गई तो उसने उन कहानियों का एक संग्रह छपवा डाला । शंकर इस बात से बिल्कुल अन्जान था । एक दिन सुन्दर ने उस किताब के विमोचन का कार्यक्रम आयोजित किया उसने अपने सभी परिचितों ,दोस्तों और अपने सभी सहकर्मियों को बुलाया था । शंकर भी इस कार्यक्रम में पहुँचा , उसे अब तक पता नहीं था कि आखिर कार्यक्रम किस का है । जब सभी लोग एकत्रित हो गए तब शंकर मंच पर उस कार्य क्रम के विषय में बताया तो शंकर यह सुनकर भौचक्का रह गया । उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि जिन कहानियों को वह लिख रहा है वे सब इतनी जल्दी एक संग्रह का रुप लेकर उसके सामने आ जाएंगी।उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि वह जो कुछ देख रहा है सच है या कोई सपना...। आज के ज़माने में बिना मतलब के कोई किसी को एक गिलास पानी तक नहीं पिलाता किन्तु उसके दोस्त ने बिना किसी स्वार्थ के उसके लिए यह सब किया .......।  उसकी आँखों से खुशी के आँसू  टपक गए । शंकर की किताब के लिए सुन्दर ने दिन रात मेहनत कर उसका प्रचार- प्रसार किया था । किताबों की बिक्री से शंकर को कुछ पैसे मिले थे जो उसने अपने घर भेज दिए थे ।

सुन्दर की मेहनत धीरे-धीरे रंग ला रही थी । अब शंकर में काफी बदलाव देखे जा सकते थे । उसकी इंग्लिश काफी सुधर चुकी थी । पहले वह लोगों से खुलकर बात करने में हिचकिचाता था लेकिन अब वैसा नहीं है। सुन्दर उसकी आर्थिक स्थिति को जानता था उसके पास एक भी जोड़ी कपड़े और जूते  ऐसे नहीं थे जिन्हें पहनकर वह किसी कम्पनी में इंटरव्यू देने जा सके । सुन्दर को पता था कि कुछ ही दिनों में शंकर का जन्मदिन आनेवाला है। उसने शंकर को उपहार में यही सब देने का निर्णय लिया और वह दिन आ ही गया जिस दिन शंकर का जन्मदिन था ।उस दिन सुन्दर अपनी ड्यूटी खत्म करके सीधा शंकर के पास ही गया और उसे एक जोड़ी कपड़े और जूते उपहार स्वरुप में दिए। शंकर को ऐसा ना लगे कि सुन्दर उसकी गरीबी का मज़ाक उड़ा रहा है इसीलिए उसने भी अपने लिए वैसे ही कपड़े और जूते खरीदे । सुन्दर ने शंकर को बताया कि वह अपने लिए कपड़े खरीदने गया था तो सोचा तुम्हारे लिए भी खरीद लूँ वैसे भी तुम्हारा जन्मदिन आनेवाला था................। 

धीरे - धीरे शंकर और सुन्दर की दोस्ती गहरी होती गई। देखते ही देखते दोनो की दोस्ती को एक -डेढ़ साल बीत गए। उन दोनों को देखकर ऐसा लगता ही नहीं था कि इनकी दोस्ती दो-तीन साल पुरानी है । एक दिन की बात है जब सुन्दर, शंकर के घर गया था । सुन्दर कुछ उदास बैठा था सुन्दर ने उसे उसकी उदासी का कारण पूछा तो वह इधर -उधर की बातें करके उस बात को टाल गया । शंकर बैठा तो था सुन्दर के साथ था किन्तु उसका मन किसी  दुविधा में था आज उसकी बातों में वह चपलता नहीं थी जो नित्य दिखाई देती थी। सुन्दर को लगा शायद वह घर बैठे-बैठे ऊब चुका है इसीलिए उसे घर से बाहर लेकर आया दोनों दोस्त के पास ही एक पार्क में घूमने के लिए चले गए । किन्तु शंकर के चेहरे पर प्रतिदिनवाली मुस्कान नहीं थी । वह सुन्दर के साथ तो था लेकिन न होने के बराबर..........। सुन्दर बहुत देर से शंकर के हाव-भाव देख रहा था उसे यह समझने में देरी नहीं लगी कि हो न हो ज़रुर कोई बात है? जो वह उसे नहीं बता रहा है। वह शंकर को ले जाकर एक बैंच पर बैठ गया और उससे उसकी उदासी का कारण पूछा । पहले तो शंकर टाल मटोल करने लगा किन्तु सुन्दर के जोर देने पर उसने बताया कि अगले महीने उसकी छोटी बहन की शादी है और वह..........................। सुन्दर ने उसे समझते हुए कहा कि ‘उसे इतना उदास होने की ज़रुरत नहीं है, तेरी बहन भी तो मेरी बहन हुई ना तो क्या मेरा कुछ फर्ज नहीं बनता ? अपनी बहन की शादी में .........। अच्छा एक काम करता हूँ बहन की शादी में उसके लिए जितने भी कपड़े चाहिए वे सब मेरी तरफ से होंगे ।’ सुन्दर की बातें सुनकर शंकर ने उसे मना किया कि वह कुछ न कुछ इन्तज़ाम करेगा लेकिन सुन्दर ने उसे कहीं और से किसी से पैसे न माँगने की कसम दे दी...........। शंकर यह सब देखकर बहुत भावुक हो उठा और उसकी आँखों से आँसुओं की धार बहने लगी। एक दिन वह भी आया जिस दिन शंकर की बहन की शादी थी । सुन्दर ने शादी के सभी कार्यों मे एक परिवार के सदस्य के समान हाथ बटाया  बहन की शादी सही सलामत हो गई । बहन अपने ससुराल चली गई सुन्दर एक-दो दिन वहाँ रुकर वापस आ गया । सुन्दर पुणे आकर अपने ऑफिस के कामों में थोड़ा व्यस्त हो गया । दो-तीन दिन के बाद शंकर भी वापस आ गया अब उसके सामने नौकरी पाने की एक सबसे बड़ी चुनौती थी। सुन्दर ने उसका एक सही सी.वी तैयार करवाया और अपने ही ऑफिस में उसे नौकरी पर लगवा दिया । शंकर को घर या ऑफिस में किसी भी प्रकार की समस्या होती तो वह तुरंत सुन्दर से उसका समाधान पूछ लेता , सुन्दर ने भी कभी उसे किसी भी काम के लिए मना नहीं किया ।

धीरे धीरे शंकर का समय बदलने लगा । शंकर ने दो साल तक उसी कम्पनी में काम किया जिसमें सुन्दर काम करता था । दो साल के बाद उसने वह कम्पनी छोड़कर एक दूसरी कम्पनी में नौकरी कर ली वहाँ पर उसे यहाँ से ज्यादा पैसे मिल रहे थो और वहाँ पर नाइट सिफ्ट का कोई झंझट नहीं था । सुन्दर को यह जानकर बहुत खुशी हुई कि उसका दोस्त एक अच्छी पोस्ट पर पहुँच चुका है। अब दोनों का मिलना केवल शनिवार और इतवार को ही हो पाता था क्योकि शंकर की ड्यूटी दिन की होती तो सुन्दर की रात की इसी लिए वे केवल शनिवार और इतवार को ही मिल पाते थे। इसी प्रकार दोनों का चल रहा था । एक दिन सुन्दर ने शंकर से उसकी कहानियों के विषय में पूछा – ‘यार काफी दिनों से तुम्हारी कोई नई कहानी नहीं पढ़ी । आज-कल कुछ लिख भी रहे हो या नहीं?’ शंकर ने यह कहकर सुन्दर से मना कर दिया कि ‘आज-कल ऑफिस में इतना ज्यादा काम होता है कि दम निकल जाता है घर आकर इतनी क्षमता नहीं रहती कि कुछ लिखा जाए। आज -कल तो लिखना पूरी तरह से बंद हो चुका है।’ सुन्दर जानता था कि ऑफिस में उन लोगों के पास कितना काम रहता है , शायद इसीलिए उसने शंकर को आगे कुछ नहीं कहा । जैसे -जैसे शंकर की उन्नती होती जा रही थी वैसे-वैसेे शंकर के व्यवाह में बदलाव आता जा रहा था । अब उसे नए दोस्त मिल चुके थे । अब उसकी नई पहचान बन रही थी शायद उसके नए दोस्तों में उसके पुराने दोस्त का कहीं अता -पता ही नहीं चल रहा था । उन्नति का ऐसा नशा जिसने दिन- रात एक करके तुम्हें उस लायक बनाया आज उसी से ऐसी  बेरुखी .........। शायद वह भूल चुका है कि आज वह जिस मुकाम तक पहुँचा है उसके पीछे किस की मेहनत थी । वह भूल चुका है कि जब वह कभी बीमार होता था तो उसकी देखभाल करने के लिए कौन दिन-रात उसका ख्याल रखता था .....इसमें उसका कोई दोष नहीं शायद ज़माना ही ऐसा है ।

दिन -महीने -साल बीते और एक दिन शंकर की शादी की खबर सुनी , शंकर की शादी की खबर सुनकर सुन्दर बहुत खुश हुआ । शंकर ने अपने साथ काम करनेवाली सहकर्मी श्रेया  के साथ विवाह किया । शंकर ने अपनी शादी में सुन्दर को छोड़कर सभी लोगों को आमंत्रित किया। सुन्दर को उसकी इस बात का बुरा नहीं लगा उसने सोचा शायद हो सकता है कि शादी के कामों की भागा -दौड़ी में मुझे निमंत्रण पत्र देना भूल गया होगा। सुन्दर उसकी शादी के दिन उसने मिलने गया ।सुन्दर को अपनी शादी में और अपने सामने खड़ा देखकर शंकर के चेहरे का रंग ही उड़ गया । सुन्दर ने उसे शादी की बधाई दी और  वापस आ गया। सुन्दर को इस बात को बहुत दुख हुआ कि जिस दोस्त को वह जान से भी ज्यादा चाहता था आज इतना बदल जाएगा उसने कभी सोचा भी नहीं था।

धीरे-धीरे समय बीतता गया  एक  दिन सुन्दर की शादी भी तय हो गई। सुन्दर ने अपनी शादी का सबसे पहला निमंत्रण पत्र शंकर को स्वयं उसे घर पर जाकर दिया। बाद में अपने अन्य मित्र रिश्तेदारों को । सुन्दर की शादी में उसके सभी पहचान के लोग दोस्त , रिश्तेदार आए लेकिन शंकर उसकी शादी में नहीं गया । इन सभी के बीच सुन्दर की आँखे अपने उस दोस्त को खोज रही थी जिसके  साथ उसने काफी समय बिताया था सभी लोग आए और चले गए लेकिन शंकर शादी में नहीं आया। शादी से पहले तो यह हाल था कि यदि शंकर एक दिन भी अगर सुन्दर से नहीं मिलता था तो उसका खाना ही हज़म नहीं होता था । अगर किसी कारणवश मिल नहीं पाते थे तो कम से कम फोन पर बातें होती रहती थीं। शंकर अब अपनी ज़िदगी में खुश है । शायद अब उसके दोस्तों की सूची में सुन्दर का नाम नहीं है। अब वह एक कम्पनी में मैनेजर है। उसे एक कॉल सेन्टर में काम करनेवाले उस व्यक्ति से क्या लेना देना अब समय बदल चुका है अब वह कोई साधारण आदमी नहीं है अब उसका उठना बैठना बड़े-बड़े लोगों के बीच होता है। अब बड़े लोगों के बीच साधारण आदमी तो वैसा ही प्रतीत होता है जैसे मखमल की चादर में टाट का पैबंद........ ।

शंकर अपनी दुनिया में खुश हे यही सोचकर सुन्दर संतोष कर लेता था । इधर सुन्दर की भी तरक्की हो चुकी थी। अब सुन्दर कम्पनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत है । भले ही आज  वह मैनेजर बन गया है उसका व्यवहार अपने सहकर्मियों के साथ वैसा ही है जैसा वह पहले करता था, कभी भी वह अपने सहकर्मियों के सामने यह रौब नहीं दिखाता कि वह एक मैनेजर है उसका मानना है कि मैनेजर वह बाद में है उससे पहले एक इंसान है । आज भी वह अपने दोस्त (सखा) शंकर को नहीं भुला पाया है। अक्सर जब भी उसे समय मिलता है उसे ज़रूर याद कर लेता है। आज भी वह सोचता है कि एक न एक दि उसका दोस्त उससे मिलने आएगा  यही सोचते -सोचते वर्षों बीत गए हैं लेकिन शंकर तो उसे भूल चुका है। अक्सर एकांत में बैठा -बैठा यही सोचता है कि आखिर ऐसी क्या बजह होगी.... कि उसका इतना घनिष्ठ मित्र उससे दूर चला गया । क्या उससे कोई भूल हो गई अपनी दोस्ती निभाने में....... । सोचते सोचते उसकी आँखे भर आती किससे कहे अपने दिल की बात समझ ही नहीं पाता । इस बात की जानकारी उसकी पत्नी को भी है कि कभी -कभी सुन्दर अपने दोस्त शंकर को बहुत याद करता है वह भी उसे समझाती है कि जो बीत गया है उसे भूलकर आप आगे देखें पर सुन्दर है कि अपने उस सखा को भूलना तो चाहता है पर भुला ही नहीं पाता…… ।

कहते हैं कि संसार में सबसे बड़ा रिश्ता दोस्ती का होता है जो बात माता-पिता से नहीं कह सकते उसे हम अपने दोस्त के साथ कह लेते हैं। जो बात भाई -बहन से नहीं कह सकते दोस्त से कह लेते हैं। दोस्ती सारे रिश्तों का मेल है जिसमे दोस्त भाई -बहन की तरह झगड़ते हैं , माँ की तरह एक दूसरे का ख्याल रखते हैं और पिता की तरह सही समय पर सलाह देते हैं। आज भी संसार में कृष्ण सुदामा की दोस्ती की मिसाल दी जाती है ,एक वह समय था और आज....................। यह यह कहानी कृष्ण -सुदामा जैसी महत्तवपूर्ण तो है नहीं पर हाँ उस  दोस्ती के जज्बे को जरूर बयां करती है ।

Wednesday, December 1, 2010

आकृति

अमित सोफ्टवेयर कम्पनी में कार्यरत है। कम्पनी ने अमित को 20 दिनों की ट्रेनिग के लिए मुंबई भेजा है। मुंबई शहर.......... सपनों का शहर, सुना है यहाँ कभी रात ही नहीं होती  सड़को पर दौड़ती -भागती ज़िदगी...। इसी शहर में जब अमित पहुँचा तो उसे  यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि इस शहर के लोग कभी सोते भी हैं कि नहीं दिन-रात सड़कों पर ही दौड़ते -भागते रहते हैं। कम्पनी ने अमित के रहने की व्यवस्था एक गेस्ट हाउस में की थी जो शहर के बीचों बीच था। अमित ने यहाँ अपनी बीस दिनों की ट्रेनिग खत्म की और वह दिन आ ही गया जब अमित को अपनी ट्रेनिग खत्म कर वापस अपने शहर इंदौर जाना है। आज सुबह उठते ही वह अपने सामान को एक सूटकेस में रखने लगा । तभी उसे याद आया कि उसकी वापसी की टिकिट तो कन्फर्म नहीं थी। टिकिट की स्थिति जाँचने के लिए उसने जल्दी से अपना लेपटॉप निकाला और टिकिट की जाँच इन्टरनेट पर की तो पता चला कि उसकी टिकट कन्फर्म हो गई है। उसकी ट्रेन सुबह 11.30 बजे की है, 11.30 को ध्यान में रखते हुए वह अपने गेस्टहाउस से एक घंटे पहले ही निकल गया था । उसने मुंबई के ट्रेफिक को इन पिछले 20 दिनों में देखा और जाना था कि किस तरह का ट्रेफिक रहता है । गेस्ट हाउस से मुंबई रेलवे स्टेशन तक पहुँचने में उसे तीस से चालीस मिनिट का समय लगा था । वह स्टेशन पर चालीस मिनिट पहले ही पहुँच चुका था ।

स्टेशन पहुँचकर सबसे पहले उसने अपना सामान क्लोक रुम में रखा। सामान रखने के बाद  एक कप चाय ली और पास ही एक किताब की दुकान पर चला गया जहाँ उसने तीन -चार किताबें खरीदीं। किताबें खरीदने के बाद एक बेंच पर जाकर बैठ गया और अपनी चाय का आनंद लेते हुए वहाँ के नज़ारे को निहारने लगा।  यह समय  मुबई की लाइफ लाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेनों  का था । शायद इसी लिए स्टेशन पर भीड़ और अधिक बढ़ गई थी। चारों तरफ भीड़ ही भीड़ नज़र आ रही थी । हर एक को अपनी गाड़ी पकड़ने की जल्दी थी । तभी अमित ने अपनी ट्रेन के विषय में सुना कि वह ट्रेन प्लेट फॉर्म पाँच से जाएगी । अमित एक नम्बर प्लेट फार्म पर बैठा था जैसे ही उसने सुना कि गाड़ी पाँच नम्बर के प्लेट फार्म से जाएगी वह अपना सामान उठाकर पाँच नम्बर के प्लेटफार्म की ओर चल दिया, जाकर देखा कि गाड़ी पहले से ही प्लेट फार्म पर खड़ी है । वहाँ पहुँचकर उसने सबसे पहले अपनी बोगी खोजी जिसमें उसे बैठना था। वह शायद पहले आ चुका था क्योंकि अभी तक डिब्बे (बोगी) में इक्का -दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे। उसने अपनी सीट खोजी और वहाँ जाकर अपना सामान रखकर बैठ गया। धीरे -धीरे यात्री आने लगे । एक – एक कर  11.30 तक सारी बोगी में यात्री आ चुके थे । सब लोग अपना -अपना सामान अपनी सीटों के नीचे लगाकर  बैठ चुके थे कुछ यात्रियों का आना अभी जारी था । 11.35 का समय हुआ और गाड़ी अपने स्थान से धीरे - धीरे चलने लगी । जहाँ अमित बैठा था वहाँ पर अमित के अलावा तीन चार लोग ही थे। एक महाशय तो ट्रेन में चढ़ते ही ऊपर सी सीट पर जा सोए। अमित के समानेवाली सीट पर एक नव विवाहित जोड़ी आकर बैठी थी। अमित का परिचय वहाँ पर बैठे अन्य लोगों से हुआ।     आपसी परिचय से पता चला कि नवविवाहित जोड़े में पुरुष का नाम शिशिर और उसकी पत्नी का नाम स्नेहा है ।

अमित – ‘आप लोग कहाँ तक जाएँगे ?’
शिशिर – ‘दिल्ली और आप?’
अमित – ‘मैं तो इन्दौर तक ही जाऊँगा।’
शिशिर – ‘आप क्या मुंबई में नौकरी करते हैं?’
अमित – ‘नहीं  मैं तो यहाँ पर कम्पनी के काम से आया था ।’ आप क्या मुंबई में नौकरी करते हैं
शिशिर- ‘नहीं असल में हमारी पिछले महीने ही शादी हुई है हम लोग यहाँ घूमने के लिए आए थे।’
अमित ने शिशिर को शादी की बधाई दी
अमित – ‘तो कैसी लगी आप लोगों को मुम्बई।’
शिशिर – ‘बहुत अच्छी , लेकिन एक बात है यहाँ के वातावरण में हमेशा उमस बनी रहती है, शायद समुद्र के किनारे है इसीलिए।’
अमित – ‘हाँ मुझे भी काफी परेशानी रही इन बीस दिनों में । जब तक पंखा या एसी चलता है तब तक तो ठीक है जैसी ही पंखा बंद करों पसीना चालू।’
अमित और शिशिर की आपसी बातें चल रही थी, शिशिर की पत्नी स्नेहा खिड़की के पास बैठी बाहर के नज़ारों का आनंद ले रही थी।

ट्रेन को मुम्बई से चले हुए आधा घंटा हो चुका था ,आधे घंटे के बाद ट्रेन कर्जत स्टेशन पर रुकी। यहाँ  ट्रेन ज्यादा से ज्यादा तीन-चार मिनिट ही रुकती है। जिन यात्रियों को उतरना था वे जल्दी-जल्दी नीचे उतर गए और कुछ यात्री इस स्टेशन पर उस बोगी में चढ़े ।  चढ़ते ही सब अपनी -अपनी सीट के नम्बरों को खोजते हुए अपनी-अपनी सीट पर जा बैठे। ऐसे ही एक वृद्ध सज्जन अपने सोलह साल के पोते के साथ वहाँ पधारे जहाँ अमित और शिशिर बैठे थे । वृद्ध सज्जन ने जल्दी-जल्दी अपना सामान साइडवाली  सीट के नीचे लगाया और पसीना पौंछते हुए बैठ गए । भागा-दौड़ी के कारण उनकी सांस फूल रही थी  सीट पर बैठते ही उन्होंने पानी की बोतल खोली और कुछ पानी पीते हुए अपने पोते को भी पानी पीने को कहा। पोते ने प्यास नहीं है कहकर उन्हें मना कर दिया।  ट्रेन में बैठकर बालक की  खुशी का कोई ठिकाना नहीं था । ऐसा लग रहा था मानों जीवन में वह पहली बार ट्रेन में बैठा हो। उसकी मुस्कान में एक अलग ही बात थी । बालक की मुस्कुराहट को देखते हुए अमित ने उससे अपना परिचय किया ,बालक ने अपना नाम पार्थ बतलाया । उससे बातें करने के पश्चात पता चला कि जो वृद्ध उसके साथ हैं उसके दादा जी हैं,जिनका नाम किशन है । ट्रेन में खिड़की की सीट पर बैठा वह बालक ऐसा चहक रहा था मानों उसे कोई बहुत बड़ा खजाना मिल गया हो।

ट्रेन को कर्तज स्टेशन से चले हुए आधा घंटा हो चुका था , पार्थ बाहर का नज़ारा देख कर बार -बार अपने दादा जी से पूछता दद्दू यह क्या है? उसके दादा जी मुस्कुराकर उस के प्रश्नों का उत्तर दे देते । पार्थ के चेहरे पर तो मुस्कुराहट थी ही साथ ही साथ उसके दादा जी के चेहरे पर भी एक संतोष भरी मुस्कुराहट नज़र आ रही थी । ट्रेन अपनी मंज़िल की ओर अपनी तेज़ रफतार से रास्ते में नदी , नाले , खेतों को पार करती चली जा रही थी। एक स्थान पर सिग्नल न मिलने के कारण ट्रेन थोड़े समय के लिए ठहर गई थी। बाहर चारो तरफ हरियाली ही हरियाली फैली थी । खेतों में फसल लहलहा रही थी, तभी पार्थ ने अपने दादा से पूछा -
पार्थ – ‘दद्दू वह क्या हैं ?’
किशन- ‘बेटा यह खेत हैं, ये फसलों से भरे हुए हैं।’
पार्थ – ‘यह कौन सा रंग हैं दद्दू?’
किशन -  ‘हरा।’
पार्थ – ‘अच्छा तो ऐसा होता है हरा रंग?’
किशन - मुस्कुराते हुए – ‘हाँ बेटा ।’   
बालक की चंचल मुस्कुराहट पूरी बोगी में गूँज रही थी । यहाँ तक कि जो कोई सामान बेचनेवाला उस डिब्बे में आता कुछ क्षणों के लिए वहाँ पर रुककर उस बालक को देखने लगता। शायद आस -पास बैठे लोग सोच रहे थे कि यह बालक ज़रुर पागल है, या कोई मानसिक रोगी है। जिस प्रकार का व्यवहार वह अपने दादा से कर रहा था ,किसी भी वस्तु  को देखकर उत्साह से उछलना तालियाँ बजाकर उस वस्तु के नाम को एक-दो बार दोहराना आदि बातों से वहाँ बैठे यात्री उसे मानसिक रोगी मान बैठे थे। कुछ समय बाद ट्रेन वहाँ से चली शायद अब उसे हरा सिग्नल मिल गया था। थोड़ी दूर जाने पर रास्ते में बरसात होने लगी । बरसात को देखकर  पार्थ ने अपने दोनों हाथ खिड़की से बाहर निकाले और बरसात को महसूस करते हुए जोर से बोला देखों…. देखो दद्दू  बरसात ….है ना ....। इधर स्नेहा बहुत देर से पार्थ को देख रही थी । उस का इस तरह बार -बार चिल्लाना उसे अच्छा नहीं लगा रहा था, वह बहुत देर से अपने आप को रोके हुए थी । जब पार्थ ने जोर से चिल्लाकर अपने दादा को बरसात की बात कही तो स्नेहा से न रहा गया और वह गुस्से से पार्थ के दादा से बोली –
स्नेहा- गुस्से से ‘अंकल जी आप अपने पोते को शांति से नहीं बैठा सकते क्या? यह क्या लगा रखा है .. ......दो घंटे से देख रही हूँ पागलों सी हरकते कर रहा है। अगर इसका दिमाग सही नहीं है तो पहले इसके दिमाग का इलाज करवाइए।’
स्नेहा की बातें सुनकर पार्थ थोड़ा सहम गया और चुपचाप अपने दादा के पास  जा बैठा। किशन  स्नेहा की तरफ देखते हुए मुस्कुरा दिए  कुछ बोले नहीं ।
स्नेहा को यह बात और भी चुभ गई । स्नेहा ने किशन से कहा – ‘देखिए अंकल जी मैंने कोई जोक नही कहा है जिसे सुनकर आप मुस्कुरा रहे हैं । आप के पोते की हरकतो से तो यही लग रहा है जैसे वह मानसिक रोगी है। इसका किसी अस्पताल में इलाज करवाइए..........।’
स्नेहा की कटु बातें सुनकर शिशिर ने उसे टोकते हुए कहा ‘क्या यार तुम भी ना…… जाने दो बेचार बच्चा ही तो है। तुम भी ना हद करती हो..........।’
स्नेहा – ‘क्या मैं भी ना ? देख नहीं रहे जब से ट्रेन में चढ़ा है तभी से शोर मचा रखा है। ट्रेन में और भी तो बच्चे बैठे हैं वे भी खेल- कूद रहे हैं पर कोई भी बच्चा इसके जैसे तो नहीं कर रहा ।’
स्नेहा की बातें सुनकर किशन बोले -
किशन – ‘हाँ बेटा शायद तुम ठीक ही कहती हो , यह लड़का सचमुच पागल हो गया है। और रही बात अस्पताल की तो तुम्हारी जानकारी के लिए मैं बताना चाहुँगा कि मैं इसे अस्पताल से ही लेकर आ रहा हूँ। पिछले सप्ताह से ही तो इसने दुनिया को देखना शुरु किया है।’
स्नेहा- ‘क्या मतलब ?’   
किशन – ‘हाँ पिछले सप्ताह ही इसकी आँखों का ऑपरेशन हुआ है । पिछले सप्ताह ही तो इसने दुनिया को पहली बार देखा है। यह अंधा ही पैदा हुआ था। हमने इसका इलाज कई जगह करवाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। तभी एक दिन मेरे मित्र ने मुझे यहाँ के एक डॉक्टर से मिलकर पार्थ को दिखाने की बात कही । मैं पिछले सप्ताह पार्थ को लेकर यहाँ आया था डॉक्टर ने इसकी आँखों की जांच करके बताया कि इसकी आँखों की रोशनी  आ सकती है। इसकी आँखों का ऑपरेशन करना पड़ेगा। भला हो उस डॉक्टर का जिसने मेरे लाल को एक नई ज़िदगी दी ...........।’

जब स्नेहा ने पार्थ की कहानी सुनी तो उसका मुँह खुला का खुला रह गया और सिर शर्म से झुक गया । अमित पार्थ की मासूम मुस्कुराहट को देखकर खुश हो रहा था मन ही मन सोच रहा था ,आज पार्थ के सुनयनो को  सोलह साल के अंधकार के पश्चात एक आकृति मिल गई ………। जीने की एक राह मिल गई । पार्थ के लिए जीवन में इससे बड़ा और क्या खजाना होगा । आज उसकी खुशियों का अंत नहीं । इस सुख को तो वही महसूस कर सकता है जिसने कभी अपना जीवन अंधेरे मे बिताया हो । ट्रेन अपनी रफ्तार से चली जा रही थी । एक के बाद एक स्टेशन आते -जाते और नए मुसाफिर चढ़ते और पुराने उतर जाते । ट्रेन में पार्थ के साथ कब समय समाप्त हो गया अमित को इस बात का पता ही नहीं चला आखिरकार उसका स्टेशन आ गया और वह पार्थ को एक चौकलेट देते हुए ट्रेन से उतर गया। पार्थ और उसके दादा किशनजी को आगरा तक जाना था । 

Monday, November 22, 2010

आकर्षण

       राहुल एक सॉफ्टवेयर कम्पनी में  उच्च आधिकारिक पद ( प्रेसिडेन्ट) के पद पर कार्यरत है और उसकी पत्नी  टीना एक फैशन मॉडल । इन दोनों की जोड़ी एक सुखी सम्पन्न विवाहित जोड़ी है। राहुल ने कम उम्र में ही वो  तरक्की ,कामियाबी हासिल कर ली है जिसे पाने के लिए अक्सर लोगों की आधी उम्र बीत जाती है। राहुल ने यह तरक्की अपने बलबूते पर ही हासिल की है। दोनों का वैवाहिक जीवन और व्यवसायिक जीवन बड़े सुख से साथ बीत रहा है। राहुल और  टीना की तस्वीरे अक्सर अखबारों में छपती रहती हैं । असल में राहुल एक मध्यमवर्गीय परिवार से है, आज राहुल के पास वह सब सुख - सुविधाएं  है जिसकी उसने कभी  कल्पना भी न की  थी। राहुल के माता पिता का स्वर्गवास बचपन में ही हो गया था जब वह मात्र दस साल का था । राहुल का पालन पोषण उसके ताऊजी तन्मय ने किया था । तन्मय ने राहुल को कभी भी माता -पिता की कमी महसूस नहीं होने दी । उसे अपने बच्चे के समान ही पाला पोसा और उसकी शिक्षा का पूरा ख्याल रखा उसे कभी भी किसी चीज की कमी नहीं होने दी । राहुल के ताऊजी एक सड़क हादसे में  अपने दो बच्चों को खो चुके थे । इसी लिए उन्होंने राहुल को अपने सगे बच्चों से भी ज्यादा प्यार किया । 

   तन्मय की पत्नी का निधन दो साल पहले ही हो चुका था। आज बूढ़े तन्मय के जीवन मे राहुल ,टीना और उनकी पाँच साल की बेटी कुहुक के अलावा कोई नहीं । राहुल की बेटी कुहुक बड़ी ही प्यारी बच्ची है उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे मानो सामने कोई बार्बी गुड़िया खड़ी हो मासूम सा  हँसमुख चेहरा किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। राहुल के ताऊजी गाँव में रहते हैं । ताऊजी अक्सर उनसे मिलने शहर ही आ जाते और कुछ समय बच्चों के साथ हँसी-खुशी बिताकर चले जाते ।  ताऊजी कुहुक से मिलकर सब कुछ भूल जाते  छोटी बच्ची के साथ वे भी बच्चे बन जाते । कुहुक के साथ खेलते कभी घोड़ा बनते कभी बंदर तरह तरह से कुहुक के साथ हँसते -खेलते रहते  एक दिन, दो दिन किस प्रकार से बीत जाते उन्हें पता ही नहीं चलता । कुहुक के साथ बिताया हर एक लम्हा वे जी भर कर जी लेना चाहते थे ।

धीरे - धीरे समय बीतने लगा अब तन्मय और अधिक बूढ़े हो गए हैं । उन्हें टी. बी की बीमारी हो गई है और साथ ही साथ बुढ़ापे के अन्य रोगों  ने भी उन्हें घेर लिया है। तन्मय का इस संसार में राहुल और उसके परिवार के अलावा कोई नहीं है जिसे वह अपना कह सके । टी. बी. की बीमारी और बुढ़ापे की अन्य बिमारियों के कारण तन्मय काफी कमज़ोर हो गए है । इसी लिए राहुल उन्हें गाँव से अपने साथ शहर ले आया हैं ।
 एक दिन राहुल अपने ताऊजी को डॉक्टर के पास चैकप के लिए लेकर गया उसके साथ उसकी पत्नी और बेटी कुहुक भी गए थे । डॉक्टर ने तन्मय का चैकप किया । डॉक्टर ने उन्हें बताया कि तन्मय जी की टी. बी. की बीमारी अब अंतिम स्तर पर है, वे ज्यादा से ज्यादा दो साल तक ही जी सकते हैं । यह सुनकर तन्मय थोड़ी देर के लिए शांत बैठे रहे और फिर हँसते हुए डॉक्टर से बोले – ‘डॉक्टर साहब दो साल तो बहुत होते हैं , उससे ज्यादा जी कर भी मैं क्या करुँगा ।’

 जब वे लोग डॉक्टर के यहाँ से चलने लगे तब डॉक्टर ने राहुल को एकांत में बुलाकर बताया कि – ‘देखिए  मिस्टर राहुल आप तो जानते ही हैं कि आपके ताऊजी को टी. बी. की बीमारी है । आप यह भी जानते हैं कि टी. बी. की बीमारी एक प्रकार से छूत की बीमारी है। इसी लिए मैं आपको सलाह देता हूँ कि आप अपने ताऊजी के संपर्क में ज्यादा न रहें । मैं यह नहीं कह रहा कि आप उनकी देखभाल न करे पर थोड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है । आप समझ गए न कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ........।’
‘जी डॉक्टर साहब’ - राहुल ने कहा।
राहुल वहाँ से चला तो बार - बार यही सोच रहा था कि अब वह क्या करे  ताऊजी को कहाँ रखे ? यही सोचते - सोचते घर आ गया वह इसी कश्मकश में था कि अब वह क्या करे  और क्या न करे? राहुल को उदास देखकर उसकी पत्नी ने पूछ ही लिया कि आखिर बात क्या है ? जब से डॉक्टर के पास से आए हैं आप काफी उदास हैं क्या बात है?
राहुल ने बताया कि डॉक्टर ने कहा है कि –‘ताऊजी की देखभाल की ज्यादा आवश्यकता है और वैसे भी उन्हें टी. बी. की बीमारी है सो तुम तो जानती ही हो कि टी. बी. एक प्रकार से छूत की बीमारी है । इसलिए ताऊजी को अलग रखना होगा । वैसे भी हम लोग उन्हें ज्यादा समय नहीं दे पाते ।’
टीना ने राहुल से कहा कि ‘तो अब क्या किया जा सकता है ? पर कुछ न कुछ करना तो होगा ही क्यों न  ताऊ जी को किसी वृद्धाश्रम रूपी केयर सेन्टर में भेज दें।’
राहुल – ‘ख्याल तो अच्छा है पर……..पर ताऊजी मानेंगे क्या ?’
‘अगर ताऊजी नहीं माँनेगे तो क्या तुम ताऊजी को यहीं रखोगे?’ - टीना ने गुस्से से कहा।
राहुल – ‘अच्छा ठीक है ताऊजी से बात करते हैं।’ 
‘अब तुम ताऊजी से बात करो या न करों पर ताऊजी यहाँ नहीं रह सकते ।’ टीना ने कहा।
राहुल –  ‘अच्छा ठीक है ! मैं कल सुबह ताऊजी से बात करुंगा ।’
सुबह का समय था । तन्मय सुबह की सैर करके वापस लौटे टीना ने उन्हें चाय लाकर दी और इशारे से राहुल को उनसे बात करने को कहा।
राहुल ने ताऊजी से  इस विषय में बात करते हुए कहा – ‘ताऊजी हम लोग अपने कामकाज की वजह से आप की बराबर सेवा नहीं कर पाते । हमने अर्थात मैंने और आपकी बहु टीना ने सोचा कि क्यों न आप को वृद्धावस्था रुपी केयर सेन्टर में रखें । वहाँ पर आप की बराबर देखभाल भी हो सकेगी, वहाँ पर देखभाल करने के लिए चौबीसो घंटे कोई न कोई आपके पास रहेगा।’
तन्मय ने राहुल को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह उसे वृद्धाश्र न भेजे वह यही रहकर अपनी बाकी के जीवन को जीना चाहता है, वैसे भी उसके जीने के ज्यादा से ज्यादा  दो साल ही तो बचे है ।
किन्तु राहुल और टीना ने तन्मय को यह कहकर मना लिया कि  महिने के पहले रविवार को वे उनके पास आकर पूरा दिन बिता सकते हैं ।
तन्मय का वृद्धाश्रम में जाने का बिल्कुल भी मन नहीं था फिर भी उन्होंने ना चाहते हुए भी वहाँ जाने की हामी भर दी । अगले ही दिन राहुल अपने ताऊजी को एक वृद्धाश्रम में छोड़कर आ गया । तन्मय यहाँ बच्चों की खुशी के लिए आ तो गए किन्तु उनका मन कुहुक में ही लगा था रह -रहकर उन्हे कुहुक की याद आती उसकी वे मीठी-मीठी बातें याद आती जो वह उनसे करती थी । यहाँ आए हुए तन्मय को महिना होने जा रहा था किन्तु राहुल ने एक दिन भी उनकी खैरियत जानने के लिए न तो कोई फोन किया और न ही खुद उन्हें देखने आया । तन्मय अक्सर एकांत में बैठे -बैठे  कुहुक  के विषय में सोचते रहते कि अब वह क्या कर रही होगी? उसने खाना खाया होगा कि नहीं ? अभी स्कूल से आई होगी कि नही ? आदि बातें।
एक दिन तन्मय पेड़ की छाँव में बैठे कुछ कर रहे थे कि उन्हें अचानक ह्रदयाघात (हार्डअटैक) हुआ केयर सेन्टर वालों ने उन्हें अस्पताल भिजवाया उनका पूरा इलाज करवाया लेकिन राहुल और उसका परिवार उन्हें देखने तक नहीं आया । दो दिन के बाद अस्पताल से उन्हें छुट्टी मिल गई वे फिर से वृद्धाश्रम वापस लौट आए ।  एक दिन तन्मय अपने कमरे में लेटे हुए थे उन्होंने दीवार पर टंगे कलैंडर को देखा उन्होने देखा कि कल तो महिने का पहला रविवार है। उन्हें याद आया कि महिने के पहले रविवार को तो उन्हें अपने बेटे - बहू से मिलने जाना है। बहु  -बेटे उसका इंतजार करेगे । कल राहुल से मिलने जाना है यह सोचकर उन्हें रात भर नींद ही नहीं आई उन्हें लग रहा था कि यह रात आज क्यों इतनी लंबी हो गई है? खत्म होने का नाम ही नहीं लेती । आखिरकार  सुबह हुई तन्मय जल्दी -जल्दी वहाँ जाने के लिए तैयार हो गए ।

सुबह के आठ बजे होंगे वे राहुल के पास जाने के लिए निकलने ही वाले थे कि तभी  वहाँ पर वह नर्स आ गई जो उनकी देखभाल करती है । उन्होंने नर्स को बताया कि आज वह  अपने बहु - बेटे से मिलने के लिए घर जा रहे हैं।  नर्स को उनके स्वास्थ्य के बारे में पता था उसने उन्हें आज अपने बेटे के पास न जाने की सलाह देते हुए कहा – ‘अंकल जी आप आज न जाए तो अच्छा होगा क्योंकि अभी आप पूरी तरह से ठीक नहीं है।’  नर्स ने उन्हें ह्रदयघात और पिछली रात की तकलीफों को याद करा कराकर रोकने की बहुत कोशिश की पर वह नाकाम रही ।
तन्मय ने यह कहकर नर्स की बातों को टाल दिया कि मेरा बेटा, बहु मेरी राह देख रहे होंगे। फिर कुहुक से मिले उसे देखे हुए आज पूरा एक महिना हो गया है। उन्हें कुहुक से मिलने की बेचैनी होने लगी । आज ऐसा लग रहा था मानो उनमें कोई चमत्कारिक शक्ति आ गई हो। वे सोचने लगे कि अगर आज वह नहीं गया तो बेटा ,बहु को कितना बुरा लगेगा वे जरूर उसकी राह देख रहे होगे..........।
यह कहकर वे वहाँ से चल दिए । बाहर आकर उन्होंने बस पकड़ी और किसी न किसी तरह राहुल के पास जा पहुँचे । उन्हें वहाँ पहुँचते - पहुँचते दोपह हो गयी थी। घर पहुँचकर  देखा कि राहुल अपने काम में व्यस्थ है और बहु अपने कामों में व्यस्त । दोनों ने नमस्ते करने की औपचारिकता निभाई और अपने अपने कामों में लग गए । तन्मय बाहर हॉल में एक सोफा पर जाकर बैठ गए । घर के नौकर ने एक गिलास पानी और एक कप चाय लाकर तन्मय के सामने रख दी ।  उनकी आँखे रह - रहकर कुहुक को खोज रही थी । वे कभी इधर देखते तो कभी उधर लेकिन उन्हें कहुक कहीं नज़र नहीं आ रही थी । वे राहुल से कुहुक के विषय में पूछने ही वाले थे कि अचानक  धड़ की आवाज हुई और बैठक का दरवाजा जो बगीचे की तरफ खुलता है खुला और वहाँ से कुहुक मिट्टी में लथपथ उन्हें नज़र आई । इस एक महिने में तन्मय बीमारी के कारण इतने बदल गए हैं कि कहुक अपने दादा जी को पहचान न सकी । कुहुक के हाथों में फ्राक पहनी एक गुड़िया थी जिसे वह अपने दोनों हाथों में उठाए हुए थी ।  जैसे ही कुहुक ने तन्मय को देखा तो वह वही पर रुक गइ और उस वृद्ध सज्जन को घूर -घूर कर देखने लगी ।  फिर एक छोटी सी मुस्कान दी और घर के अंदर जाने लगी । तन्मय सोफे से उठे और उसे अपनी गोद में उठाकर सीने से लगा लिया । फिर बोले अरें  बेटा पहचाना ….. पहचाना ......?
 कुहुक ने मासुमीयत से अपना सिर हिलाते हुए ना कह दिया । 
‘अरे! बेटा मैं तम्हारा दादा , लो एक ही महिने में भूल गई ।’
तभी राहुल का हॉल में आना हुआ ताऊजी की बातें  सुनकर उसने कहा- ‘ताऊजी आप बीमारी के कारण इतने कमजोर हो गए हो कि पहचान में ही नहीं आते । शायद इसी लिए कुहुक आप को पहचान न सकी ।’ 
राहुल हॉल में रखी अपनी फाइल को लेकर वापस अपने कमरे में चला गया ।
इधर कुहुक अपनी गुड़िया को अपने पीछे छिपाते हुए तन्मय से बोली - दद्दू।
‘आप बूढ़े हैं।’
तन्मय ने कुहुक में मन में उठे हुए भावों को देखते हुए कहा – ‘हाँ बेटा मैं बूढ़ा हूँ।"
कुहुक ने फिर पूछा –‘बहुत - बहुत बूढ़े  ........।’
हाँ बेटा  कहते हुए तन्मय ने हामी भरी।
कुहुक की आँखों में एक उत्साह सा दिख रहा था , उसकी मासूस सी बातेंे सुनकर उन्हें अच्छा लग रहा था। तन्मय मन ही मन सोचने लगे कि कितने मासूम होते है ये बच्चे ..........?
तभी कुहुक ने कहा आपके पास तो सिर्फ दो साल ही बचे हैं  ।
दो साल .......?. तन्मय कुछ समझ नही पाए , उन्होने कुहुक से पूछ लिया कि बेटा किस के दो साल ...?
‘आप के पास सिर्फ दो साल ही तो बचे हैं, फिर आप मर जाओगे ........?’
तन्मय -‘आपसे ऐसा किसने कहा  कि मेरे पास  सिर्फ दो साल बची हैं?’
‘किसी ने नहीं’  …....कुहुक ने कहा।
तन्मय -‘फिर आप को कैसे पता कि आपके दादा जी के पास सिर्फ दो साल ही बची हैं।’
कुहुक -‘मैंने मम्मी के कैलन्डर में देखा है, था मम्मा ने कैलेन्डर में एक जगह मार्क करके रखा है ।’
तन्मय -‘कोई बात नहीं बेटा .......दो साल तो बहुत होते हैं । वैसे भी अब  मैं  बहुत बूढ़ा जो हो चुका हूँ और ज्यादा जीकर क्या करुँगा?’
कुहुक ने बड़ी मासूमियत से अपने दद्दू से पूछा।  ‘अच्छा तो सभी बुढ्ढें लोग दो साल ही जीते हैं ................।’
कुहुक की मासूम बातों को सुनकर तन्मय का गला भर आया और उन्होंने कुहुक को सीने  से लगाते हुए कहा नहीं बेटा सभी बूढ़े दो साल नहीं जीते यह तो भगवान के हाथों में है कि वह पहले किसे बुलाएगा उसे ही पहले इस संसार को छोड़कर भगवान के पास जाना होता है ।
कुहुक -‘अच्छा तो आप भगवान जी के पास जाएंगे.......?’
तन्मय -‘हाँ बेटा पता नही कब भगवान का बुलावा आ जाए ........और मुझे जाना पड़े....।’
तो मैं भी आपके साथ भगवान जी के पास चलुँगी, मुझे भी भगवान जी से मिलना है  -कुहुक ने कहा।
नही ,  नहीं  बेटा तू जिए हजारो साल .......मेरे बच्चे फिर कभी ऐसी बात न करना । कहते हुए उनका गला भर आया ,आँखों से आँसुओं की बूँदे गिरने लगी।
कुहुक –‘पर क्यों दादा जी।’
तन्मय -‘भगवान जी केवल बूढ़े लोगों को ही अपने पास बुलाते है ।...... बच्चों से तो वैसे  भी भगवानजी प्यार करते हैं ।’
इधर दादा - पोती आपस में बातें कर रहे थे ।
वही अंदर राहुल और टीना यह सोच रहे थे कि ताऊजी को किस प्रकार जल्दी से जल्दी वापस वृद्धाश्रम भेजा जाए क्योंकि आज उन्हें एक पार्टी में शामिल जो होना है । उस पार्टी में शहर की नामी  गिरामी हस्तियाँ शामिल होने वाली हैं । वहाँ पर उन दोनों का पहुँचना बहुत ज़रुरी है । 
टीना – ‘अब क्या करे इन्हें भी अभी ही आना था। अगर आज नहीं आते तो क्या हो जाता?’
राहुल – ‘कोई बात नहीं ….. थोड़ी देर रुको वे अपने आप ही चले जाएंगे।’
टीना – ‘अगर नहीं गए तो हमारी तो पार्टी खराब हो जाएगी , तुम्हें पता है ना कि आज  वहाँ पर शहर की नामी गिरामी हस्तियाँ आने वाली हैं। अगर हम वहाँ नहीं गए तो लोग तरह - तरह के सवाल करेंगे  । क्या कहोगे लोगों से कि............?’
राहुल – ‘ओह हो ! डार्लिंग  छोड़ो भी यह सब देखते है क्या कर सकते है । तुम गुस्सा थूक दो । तभी राहुल ने घड़ी की तरफ देखा तो चार बज चुके थे । अरे ! यार ऑलरेडी चार बज चुके हैं अब क्या करे ? क्या कहें इनसे ? क्या बहाना बनाए ? तुम तो जानती ही हो कि ये बड़े -बूढ़े लोग कितनी जल्दी किसी भी बात का बिना सोचे समझे बुरा मान जाते  हैं । ताऊजी आधा सेकेंड में भांप जाएंगे कि हम उन्हें यहाँ से भगाने की फिराक में हैं । इस बात को वे कभी भी माँफ नहीं करेंगे । मैं न तो उन्हें दोष दे सकता हूँ ,और न ही इस वक्त उन्हें यहाँ बर्दास्त कर सकता हूँ।’
टीना – ‘फिल हाल तो किसी न किसी तरह इन्हें यहाँ से जाने के लिए मनाना होगा। पता नहीं हमें वहाँ पर कितनी देर लगेगी हो सकता है रात को ज्यादा देर हो जाए ।’


तन्मय बाहर बैठे- बैठे कुहुक के बारे में ही सोच रहे थे कि कितनी मासूम है यह बच्ची , कितना मासूम होता है बच्चों का मन । इसी समय राहुल और टीना की कानाफूंसी बन्द हो गयी और वे दोनों अपने कमरे से बाहर निकलकर बैठक में आ गए जहाँ  ताऊजी बैठे थे।  दोनों के चेहरे पर बनावटी हँसी साफ देखी जा सकती थी । दोनो पास ही रखे अलग सोफो पर बैठ गए । टीना उनके बिना कुछ बोले ही सफाई देने लगी – ‘ताऊजी आज सुबह अचानक इनके एक दोस्त के घर से फोन आया कि वो बहुत बीमार हैं , हम लोग सोच रहे थे कि उन्हें एक बार देख आएं , अब क्या है ना बाबू जी किसी की बीमारी पूछकर तो आती नहीं। आप यहाँ पर ठहरिए हम लोग दो -चार घंटों में वापस आ जाएंगे नहीं तो आप एक काम कीजिए किसी और दिन आ जाइएगा उस दिन सब मिलकर एक साथ भोजन करेगे..........।’

टीना की बातें सुनकर तन्मय ने कहा- ‘नहीं बेटा कोई बात नहीं तुम लोग अपने दोस्त को देखने जाओ , शायद मैं ही जल्दी आ गया हूँ।’
राहुल और टीना ने एक दूसरे की तरफ देखा  उन्हें लगा कि ताऊजी उनके इशारों को समझ नहीं रहे हैं या समझना नहीं चाहते। टीना ने फिर से वहीं वाक्य दोहराए –‘अब क्या है ना बाबू जी किसी की बीमारी पूछकर तो आती नहीं।’
‘कोई बात नहीं बेटा , तुम मेरी चिंता मत करो मैं ठीक हूँ।’ - तन्मय ने कहा।
राहुल और टीना ने फिर से एक दूसरे की तरफ चिंतित होकर देखा टीना ने अपना मुँह टेढा किया ऐसा लग रहा था कि वह राहुल से कहने वाली हो कि मैंने तुम से पहेले ही कहा था कि यह बुड्ढा हमारे सारे बने बनाए  प्रोग्राम को खराब कर देगा।  उन्हें लगा कि ताऊजी अभी  वहाँ से जाने वाले हैं नही, और शाम को उन्हें उस पार्टी में अवश्य शामिल होना है।
तभी कुहुक अपने कमरे से बाहर आई और जोर से बोली -
‘मम्मा दद्दू सिर्फ दो साल ही जीएंगे ना……… ?’
टीना – ‘क्या बक्वास कर रही हो ? तुमसे किसने कहा कि दद्दू सिर्फ दो साल ही जीएंगे।
कुहुक – ‘मम्मा आप ही ने तो कैलेंडर पर लिख रखा है ना वहीं से दखा था मैने। कहते हुए वह तन्मय के पास जा बैठी ।’
यह सुनकर टीना का चेहरा लाल हो उठा
टीना ने कुहुक को आवाज दी कुहुक वहाँ नही यहाँ हमारे पास आकर बैठों । 
कुहुक - नहीं मैं दद्दू के ही पास बैठुँगी।
टीना - क्रोधित स्वर में  ‘तुमने सुना नहीं मैंने क्या कहा?’ कुहुक सहम गई और वहाँ से उठकर अनमने से मन से अपने मम्मी - पापा के पास जा बैठी ।
तन्मय टीना को कुहुक सो डाटने से रोकने वाले थे किन्तु पता नही वे ऐसा नही कर सके ।
राहुल और टीना सोचने लगे कि अब क्या करें ताऊजी तो.........।
तन्मय ने राहुल और टीना के चेहरे देखते हुए कहा- ‘अच्छा तुम अपने बीमार दोस्त से मिल आओ , मैं फिर किसी दिन आ जाऊँगा ।’
जैसे ही तन्मय ने वहाँ से चलने की बात कही राहुल और टीना के चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई। उन्हें लगा चलो ताऊजी ने स्वंय ही जाने की बात कह दी नहीं तो हमें ..........।
‘अच्छा बेटा अब मैं चलता हूँ वहाँ तक पहुँचते- पहुँचते देर हो जाएगी’ कहते हुए वे सोफे से उठकर चलने लगे ।
राहुल ने ताऊजी के पैर छूते हुए अपनी असमर्थता जताते हुए माँफी माँगी.........। टीना अभी भी सोफे पर बैठी थी राहुल ने टीना को आँखों से ताऊजी के पैर छूने का संकेत किया तो टीना ने अनमने मन से ताऊजी के पैर छूने का कस्ट किया ।
तन्मय बच्चों को सदा सुखी रहने का आशीर्वाद देते हुए घर से बाहर निकल आए ।  राहुल और टीना ताऊजी को घर के मुख्य द्वार तक छोड़ने नहीं आए। जैसे ही ताऊजी घर से बाहर निकले उन्होंने चैन की सांस ली । तभी टीना ने राहुल से कहा- ‘चलो अच्छा हुआ ताऊजी चले गए , मुझे तो डर लग रहा था कि कहीं वे यहीं न जमकर बैठ जाए  चलो ठीक है जो हुआ ठीक ही हुआ ,अच्छा मैं तैयार होकर आती हूँ तुम लोग भी जल्दी तैयार हो जाओ नहीं तो पार्टी के लिए देर हो जाएगी।’

इधर तन्मय धीरे-धीरे चलते -चलते बस स्टैंड जा पहुँचे जहाँ काफी समय तक इंतजार करने के बाद एक बस आई जो पहले से ही काफी भरी हुई थी । भरी बस को देखकर एक बार के लिए तो उन्होंने सोचा कि इस बस को जाने दूँ दूसरी किसी बस से निकल जाऊँगा लेकिन उन्हें लगा कि अगर दूसरी बस भी इसी तरह भरी हुई आई तो .....? जैसे ही बस बस स्टैंड पर पहुँची तन्मय किसी न किसी तरह उस बस में चढ़ने में कामयाब हो गए । बस लोगों से खचाखच भरी हुई थी धक्का-मुक्की के बीच आखिर वे अपने बस स्टैंड तक पहुँच ही गए। बस से उतरकर थोड़ी दूर पैदल चलकर वृद्धाश्रम जा पहुँचे। पैदल चलने के कारण वे काफी थक चुके थे । रह रहकर उनकी सांस भी फूल रही थी , उनका शरीर पसीने से तर बतर हो गया था । अपने कमरें में पहुँचकर उन्होंने एक गिलास पानी पीया और थोड़ा आराम करने के लिए लेट गए । थकान के कारण  बिस्तर पर लेटते ही उन्हें नींद आ गई।
जब आँखें खुली तो देखा कि नर्स  एक हाथ में दवाइयों की गोलियाँ और एक हाथ में पानी का गिलास लिए खड़ी है।
‘तुम कब आई बेटा’ - तन्मय ने कहा.
‘बस अभी -अभी आई , मैं आप को जगाने ही वाली थी कि आप खुद ही जग गए। यह लीजिए आपकी गोलियाँ।’
तन्मय ने गिलियाँ ली और पानी के साथ निगल ली ।
नर्स- ‘तो मिल आए अपने बच्चों से ।’
तन्मय –‘हाँ।’
नर्स – ‘आप तो सुबह कहकर गए थे कि रात को देर से वापस लौटुँगा । आप तो तीन चार घंटों में ही वापस लौट आए ।’
तन्मय – ‘दर असल बेटे और बहु को अपने किसी मित्र को देखने जाना था जो कई दिनो से बीमार है। मैं अकेला घर पर क्या करता सो मैंने सोचा, मैं वापस ही चलता हूँ । इसीलिए जल्दी लौट आया।’
नर्स – ‘बाबूजी एक बात पूछूं ?’
तन्मय – ‘हाँ- हाँ क्यों नहीं ।’
नर्स – ‘आप किस मिट्टी के बने हैं……? आप उनकी गलतियों पर और कितना परदा डालेंगे...... आप को अपने बच्चों में कोई कमी नज़र नहीं आती…….?.....धन्य हैं आप।’
किसी ने सच ही कहा है - बुढ़ापा बचपन का ही दूसरा रूप होता है , अच्छा बुरा सब एक होता है । शायद इसी लिए तन्मय को अपने बेटे बहु में कोई बुराई नज़र नहीं आई । उनका कुहुक के लिए जो आकर्षण था उसे देखकर तो यही लगा कि बुढ़ापा बचपन का ही दूसरा रुप.....।’
        

Saturday, October 23, 2010

भूमिका

हैदराबाद शहर के बीचों बीच बना एक मकान जो कटहल अमरूद और जामुन के आठ-दस पेड़ों से घिरा हुआ । ऐसा मकान जिसे देखते ही किसी का भी मन उस तरफ आकर्षित हुए बिना नही रहता । देखते ही लगता कि घर नहीं स्वर्ग है इतना सुन्दर । वैसे घर अधिक बड़ा नहीं था । पुराने जमाने के तरीके से बना घर बिल्कुल हवेली के समान लगता था । इस घर में मोहन का परिवार रहता है। परिवार भी कितना बड़ा पति- पत्नी और दो बच्चे । मोहन पेशे से दुकानदार है। उसकी कपड़ों की दुकान है । मोहन की एक बड़ी बहन है जो दिल्ली में रहती है। असल में मोहन का परिवार राजस्थान के जयपुर शहर से यहाँ  आकर बस गया था । एक दिन की बात है मोहन दोपहर के समय घर पर भोजन करने के लिए आया हुआ था । भोजन करने के बाद वह आराम केरने के लिए लेटा ही था कि फोन की घंटी बजी  मोहन ने देखा कि उसकी बड़ी बहन पद्मा का फोन है।
हैलो –“दीदी नमस्ते , कैसी हो”
पद्मा – “मैं ठीक हूँ । तू बता कैसा चल रहा है तेरा काम धंधा?”
मोहन – “आपके आशीर्वाद से ठीक ठाक चल रहा है।”
पद्मा – “घर पर सब कैसे है?  बच्चे और रेखा ?”
मोहन –  “सब ठीक है अभी -अभी खाना खाकर सब सो रहे हैं।”
पद्मा – “अच्छा सुन”
मोहन –  “जी दीदी”
पद्मा –  “हमने नोएडा में एक  नया फ्लैट खरीदा है। उसका गृह प्रवेश अगले
            शनिवार को है तुम सब गृह प्रवेश में जरूर आना ।”
मोहन –  “पर….. दीदी दुकान को कौन संभालेगा ।”
पद्मा –  “दो-चार दिन बंद रहेगी तो कुछ नही होगा , शनिवार का गृह प्रवेश है भले 
           ही तुम रविवार को चले जाना पर ग्रह प्रवेश में आना जरुर ।”
मोहन –  “ठीक है। पर अभी तो ट्रेन की टिकिट भी नहीं मिलेगी ।”
पद्मा –  “सब मिल जाएगी तुम तत्काल में निकलवा लेना ।”
मोहन –  “ठीक है।”
पद्मा –  “अच्छा अब मैं फोन रखती हूँ । आना मत भूलना ।”
मोहन –  “ठीक है दीदी।”
मोहन फोन रखकर सोने ही लगता है कि उसकी पत्नी रेखा पूछ लेती है -
“किसका फोन था जी?”
मोहन –   “दिल्लीवाली दीदी का।”
रेखा – “सब ठीक ठाक है ना ?”
मोहन – “हाँ सब ठीक है उन्होंने नोएड़ा में फ्लैट खरीदा है  उसका गृह प्रवेश अगले 
         शनिवार को है उसमें आने के लिए कह रहीं थीं।
रेखा –  “अच्छा ! दीदी ने नया फ्लैट खरीदा है ।”
मोहन – “हाँ”
रेखा – “चलो इसी बहाने से हम सब दिल्ली की सैर भी कर आएंगे । दीदी का गृह 
       प्रवेश का गृह प्रवेश हो जाएगा और हम लोग दिल्ली भी घूम आएँगे।”
मोहन –  “पर दुकान को इतने दिन बंद करना भी तो ठीक नहीं होगा।”
रेखा – “कुछ नही होता , हम कौन से रोज -रोज दुकान बंद करके घूमने जाते हैं। अब मौका मिल रहा है तो चलते हैं वैसे भी बच्चों की छुट्टियाँ चल रही है वे लोग भी घर में बैठे-बैठे बोर हो जातै है उनका मन भी बहल जाएगा और हमारा दीदी से मिलना भी हो जाएगा। वैसे भी दीदी से मिलकर काफी दिन हो गए हैं।”
मोहन –   “अच्छा बाबा ठीक है ।"

मोहन ने परिवार के साथ दिल्ली जाने के लिए तत्काल में टिकट निकलवाई और  दिल्ली के लिए रवाना हो गया। वह हैदराबाद से बुधवार को ही निकल गया था उसने सोचा कि हम गुरूवार को दिल्ली पहुँच जाएँगे । गुरूवार और शुक्रवार दिल्ली घूम लेंगे शनिवार को  दीदी का गृह प्रवेश है । शनिवार और रविवार दीदी के साथ गुजर जाएगा , रविवार की शाम उनकी वापसी की ट्रेन थी सो वापस  सोमवार तक  हैदराबाद पहुँच जाएगा । ट्रेन में उसकी  की मुलाकात एक तेलुगु परिवार से होती है । पति-पत्नी और एक तीन साल की बच्ची, ये लोग भी दिल्ली की सैर करने के लिए जा रहे थे । उस परिवार के मुखिया का नाम श्रीकान्त था । श्रीकांत के परिवार को हिन्दी भाषा नहीं आती थी । श्रीकांत थोड़ी बहुत हिन्दी समझ , बोल लेता था ।  उसकी पत्नी और बच्ची बिंदु को हिन्दी ज़रा भी नहीं आती थी न बोलनी और न समझनी। अक्सर ट्रेनों में जब दो परिवारवाले मिलते हैं तो थोड़ी बहुत जान- पहचान हो ही जाती है। ट्रेन अपनी तेज रफ्तार से दिल्ली की ओर लगातार बढ़ रही थी । एक एक  कर स्टेशन निकलते जा रहे थे । मौसम भी काफी सुहावना था ठंडी हवा चल रही थी । यहाँ बच्चे एक दूसरे से काफी घुल - मिल गए थे । बच्चे अपना खेलने में लगे थे और बड़े अपनी आपसी बातों में ।



सुबह से चलते -चलते शाम हो चुकी थी । ट्रेन लगातार अपनी तेज रफ्तार से दिल्ती की तरफ दौड़े जा रही थी लग रहा था मानो वह हवा से बातें करती हुई हवा से दौड़ लगा रही हो। धीरे -धीरे दिन का उजाला खत्म हुआ रात का काला अँधेरा चारों तरफ छा गया । चारो तरफ सन्नाटा ही सन्नाटा उस सन्नाटे को चीरती हुई ट्रेन तेज रफ्तार से अपनी मंजिल की ओर दौड़ रही थी । यात्रियों ने रात का खाना खाया और अपनी-अपनी सीटों पर सोने की तैयारियों में लग गए । कुछ समय बाद ट्रेन में भी सन्नाटा छा गया था सब गहरी नींद में सोए हुए थे । रात के करीब बारह बजे होंगे कि अचानक रेल पटरी पर एक ज़ोर का धमाका हुआ और देखते ही देखते ट्रेन की चार-पाँच बोगियाँ एक दूसरे के ऊपर चढ़ गई । एक बड़ी दुर्घटना ।  रात के सन्नाटे को ट्रेन की इस भयानक दुर्घटना ने मिटा दिया देखते ही देखते चारो तरफ हा- हाकार मच गया । बड़ा ही भयानक हादसा था वह । इतनी जोर का धमाका हुआ था कि आस पास के गाँवों के लोग अपने घरों से निकलकर भागते हुए मदद के लिए वहाँ पर पहुँच गए ।  कुछ समय बाद पुलिस भी अपनी पूरी मशीनरी के साथ घटना स्थल पर पहुँच गई।


ट्रेन के दो डिब्बे तो इतनी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हुए थे कि उनमें से किसी के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी । पुलिस ने स्थानिय लोगो की सहायता से बोगियों में फँसे लोगों को निकालने का काम शरू किया । स्थानीय लोगों ने भी बढ़ चढ़ कर लोगों की मदद करने की कोशिश की। सारा माहौल दर्दनाक चीखों से गूँज उठा किसी ने अपना बेटा खोया , किसी ने अपने माँ-बाप , किसी ने अपना पति तो किसी ने अपनी पत्नी । चारो तरफ हा- हाकार मचा हुआ था । धरती पर चारो तरफ खून बिखरा पड़ा था । ऐसा लग रहा था मानो खून की नदी बह रही हो । खून से लथपथ शवों को लगातार  बाहर निकाला जा रहा था । सबसे नीचे की जो बोगी थी वह वही बोगी थी जिसमें मोहन और श्रीकांत का परिवार सफर कर रहा था । उस बोगी में फँसे लोगों को बाहर निकालने के लिए क्रेन मंगानी पड़ी बोगी को जगह -जगह से काटा गया । उस बोगी में किसी का बचना मुश्किल था । क्योंकि वह बोगी चार- पाँच बोगियों के नीचे जो दबी थी । पुलिस का बचाव दल एक एक कर शवों को बाहर निकाल रहा था कि एक बच्ची के रोने की आवाज सुनाई दी । पुलिस दल  बड़ी सावधानी से उस बच्ची को बाहर निकाल ही रहे थे कि किसी औरत के कराहने की आवाज भी सुनाई दी पुलिस दल ने बड़ी ही सावधानी से बच्ची और स्त्री को बाहर निकालकर शिविर कैंप अस्पताल में भर्ती करवाया ।


जीवित निकाली गई औरत मोहन की पत्नी रेखा थी और बच्ची श्रीकांत की बेटी बिंदु । वाह ! रे ईश्वर  तेरी माया ।  जाको राखे साईयाँ मार सके ना कोई। रेखा अस्पताल में बेहोश पड़ी थी जैसे ही उसे होश आया वह अपने पति और बच्चों  की तलाश में भागी-भागी आई । चारो तरफ शव ही शव । शवों को देखकर उसका दिल बैठा जा रहा था । इधर से उधर पागलों की तरह भटक रही थी । जब उसके सब्र का बाँध टूट गया ।  तो एक जगह बैठ गई तभी उसकी नजर मोहन पर पड़ी वह भागी -भागी उसके पास गई देखा कि वह तो मृत पड़ा है पास ही उसके दोनों बच्चों के शव पड़े हैं। यह देखर वह सन्न रह गई । थोड़ी देर तक तो उसके मुँख से आवाज ही नहीं निकली ,कुछ समय पहले तक जो उसके साथ हँसी मजाक कर रहे थे अब वे लोग यहाँ  शवों के रुप में पड़े हैं।  उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है। तभी भीड़ में से एक व्यक्ति का उसे जोर का ध्क्का लगा और वह सीधे मोहन के ऊपर जा गिरी । मोहन और बच्चों को मरा हुआ देखकर वह पूरी तरह बदहवास हो गई । उसने अपना आपा खो दिया वह मोहन और बच्चों के सिरों को गोद में रखकर फफक -फफककर रोने लगी । कभी  पति के चेहरे को देखकर रोती तो कभी बच्चों के चेहरे को देखकर। हाय ! रे विधाता यह कैसी घड़ी थी उस पत्नी के लिए जिसकी माँग आज सूनी हो गई है ,उस माँ के लिए जिसके बच्चे आज उसकी गोद में मृत पड़े हैं। चारो तरफ हाहाकर मचा हुआ था । हर कोई अपनों को खोज रहा था । तभी रेखा की नजर श्रीकांत और उसकी पत्नी पर गई, उनके शव भी मोहन के पास ही रखे हुए थे । उसने देखा कि श्रीकांत और उसकी पत्नी के शव तो यहाँ हैं पर उनकी तीन साल की बेटी बिंदु कहीं नजर नहीं आ रही थी । वह वहाँ से उठी और बिंदु को खोजने लगी । खोजते -खोजते वह अस्पताल तक जा पहुँची जहाँ उसका इलाज चल रहा था । वह अभी जीवित थी । जैसे ही बिंदु को होश आया वह जोर -जोर से रोने लगी । उस समय रेखा वहीं पर थी उसने बिंदु को उठाकर अपने सीने से लगा लिया । बिंदु अपने माँ-बाप को न पाकर फिर रोने लगी। हाय ! बेचारी को क्या पता कि जिन्हें वह खोज रही है अब वे कभी  उसके सामने आने वाले नहीं। बिंदु लगातार रोए जा रही थी । रेखा ने उसे चुप करने की बहुत कोशिश की लेकिन नाकाम रही , क्योकि रेखा को तेलुगु भाषा नहीं आती थी और न बिंदु को हिन्दी भाषा , अब वह क्या करे क्या  ना करे उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था । एक तरफ उसके परिवार के शव पड़े हुए थे दूसरी तरफ वह बच्ची । बिंदु की आँखे उस भीड़ में अपने माँ -बाप को ही खोज रही थीं । बिंदु जब रो-रोकर थक गई तो रेखा से लिपटकर सो गई। रेखा बच्ची को अपने सीने से लगाए उन शवों के पास  बैठी विलाप  कर रही थी ।

ट्रेन हादसे की खबर पूरे देश में फैल चुकी थी । हादसे की जगह पर मुसाफिरों के रिश्तेदार आने लगे थे । चारों तरफ भगदड़ मची हुई थी । हर कोई अपनों को खोजने में लगा था । मोहन के परिवार वाले भी हादसे की जगह पर पहुँच चुके थे । हादसे के चौबीस घंटे बीत जाने के बाद हादसे में मारे गए व्यक्तियों के शवों का पास ही के गाँव में अंतिम संस्कार कर दिया गया । मोहन के परिवारवाले तो हादसे की जगह पर पहुँच चुके थे किन्तु रेखा इंतज़ार कर रही थी कि श्रीकांत के परिवार का कोई व्यक्ति आए और बिंदु को ले जाए किन्तु हादसे के दो दिन बीत जाने के बाद भी जब उसे लेने कोई नहीं आया  तो रेखा , बिंदु को अपने साथ दिल्ली ले आई । बिंदु बार -बार अपने माँ-बाप को याद कर रोने लगती । रेखा उसे बार-बार इशारों से चुप कराती । अब वह क्या करे  बिंदु के बारे में  कुछ भी तो नहीं जानती कहाँ की है? इसके  रिश्तेदार कौन हैं ? आदि बातें । यहाँ  परिवार के लोगों ने फैसला किया कि बिंदु को हैदराबाद ले जाकर पुलिस को सौंप देते हैं और बता देंगे कि ट्रेन हादसे में इस मासूम के माता-पिता की मृत्यु हो चुकी है , आप इसके रिश्तेदारों तक इसे पहुँचाने का इन्तजाम कर दे।
किन्तु रेखा ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया । उसे लगा कि उसका पति और बच्चे तो संसार में उसे  अकेले छोड़ गए और इस बेचारी बच्ची के माँ-बाप इसे संसार में अकेला । अगर हैदराबाद में पुलिस इस बच्ची के रिश्तेदारों  को न खोज सकी तो वे लोग इसे अनाथाश्रम में भेज देगी । पता नहीं इस बेचारी का जीवन कैसे कटेगा और कही यह किसी बदमाश के हाथ लग गयी तो ……? इसका जीवन बरबाद हो जाएगा । नहीं नहीं मैं ऐसा नहीं होने दुँगी। मैं इस बच्ची का पालन -पोषण करुँगी। अगर इसके कोई रिश्तेदार होंगे भी तो वे लोग यहाँ आकर ले जाएंगे । हम अख्बार में इस्तहार दे देंगे । इस्तहार देने के तीन महिने बीत गए किन्तु बिंदु को लेने कोई नहीं आया । अब बिंदु रेखा के साथ घुल मिल गई थी । एक माँ की ममता ने यह साबित कर दिया कि माँ के प्यार को किसी भाषा की ज़रुरत नहीं होती । माँ की ममता के रास्ते में कोई भाषा बाधा न बन सकी । दोनों एक दूसरे की भाषा से अंजान होते हुए भी एक दूसरे के अज़ीज़ बन गए। कहते हैं ना कि प्यार से तो जानवर को भी अपने वश में किया जा सकता है। यह तो एक मासूम सी बच्ची जिसने अभी संसार में चलना ही सीखा था फिर वह कैसे ना प्यार की भाषा समझती ।

रेखा ने अपना हैदराबाद का मकान बेच कर दिल्ली में ही एक फ्लैट खरीद लिया था । वह पढ़ी लिखी थी दिल्ली आकर उसने एक नौकरी ढूँढ़ी और अपने जीवन को एक नई उम्मीद के साथ शुरु करने लगी। कहते हैं ना कि वक्त धीरे - धीरे हर गम -दुख को भुला देता है । अब रेखा के जीवन में बिंदु की अहम भूमिका है। उसका सारा ध्यान  बिंदु पर ही लगा रहता है।  बिंदु उसके जीने का आधार जो बन गई थी । वह बिंदु की  परवरिश में किसी प्रकार की कमी नहीं होंने देना चाहती थी । उसे पाकर वह अपने  दोनों बच्चों की कमी को पूरा करने की कोशिश करती पर जो कमी उसके जीवन में हो गई है उसे वह कभी पूरा नहीं कर सकती …… । उसने बिंदु की परवरिश में अपनी पूरी जवानी लगा दी । आज वह यह देखकर अपने आप पर गर्व महसूस करती है कि उसने जिस ज़िम्मेदारी को बरसों पहले अपने कांधों पर उठाया था  आज वह एक कामियाब नारी बन चुकी है। आज बिंदु आए. टी क्षेत्र में एक उच्च शिखर पर कार्य कर रही है। आज बिंदु का किसी भी आए.टी कम्पनी के साथ होना उस कम्पनी के लिए गर्व की बात है । इस स्थान पर पहुँचने में जितनी मेहनत, परिश्रम  बिंदु ने की है उससे ज्यादा  मेहनत और परिश्रम रेखा ने किया था । शायद इसी लिए  आए. टी कम्पनी उसे अपनी कम्पनी में उच्च आधिकारिक पद पर रखना चाहती है। बिंदु की भूमिका ने  रेखा को जीने की एक नयी राह दिखाई एक नया हौसला दिया । शायद इसी लिए वह अपने जीवन की जंग को जीत पाई है।

Wednesday, October 20, 2010

सौगात

                                      सौगात                                                  

शाम का समय था , मैं अपने मित्रों के साथ दिल्ली की सैर पर था । सैर करते -करते हम लोग कनॉट पैलेस जा पहुँचे । सचमुच कनॉट पैलेस दिल्ली का दिल है । चारो तरफ भीड़ ही भीड़ एक से बढ़कर एक दुकान सारा इलाका लोगों से खचाखच भरा हुआ था । यहाँ पर किसी को किसी की फिक्र ही नहीं ,सब अपनी मस्ती में चले जा रहे है। इसी भागती दिल्ली में हम लोग इधर -उधर सैर कर रहे थे , सैर करते -करते देश की राजनीति पर बातें शु डिग्री हो गई कि  हम कहाँ थे ? कहाँ आ गए । दिन प्रतिदिन बदलती राजनीति और राजनेताओं की स्थिति और आम आदमी की स्थिति में कितना अंतर आ गया है । नेता आज देश सेवा के उद्देश्य से राजनीति में नहीं आते बल्कि अपनी आर्थिक उन्नति के लिए ही राजनीति में घुसते हैं । हम अपनी चर्चा करते हुए इधर -उधर का नजारा देख रहे थे कि तभी कही से पकौड़ियों की खुशबु आई, हमारा ध्यान  राजनीति और राजनेताओं से हटकर उन पकौड़ियो की तरफ लग गया । काफी समय से पैदल  सैर करने के कारण हमें भूख भी लग रही थी सो हम उस दुकान की तरफ चल दिए जहाँ से पकौड़ियों की खुशबु आ रही थी । वहाँ जाकर देखा कि  छोटी सी दुकान है, पर काफी भीड़ थी । हमने पकौड़ियों की तीन प्लेट ली और पास ही रखी बैंच पर जाकर बैठ गए । वास्तव में  पकौड़ियाँ स्वादिष्ट थीं ।


पकौड़ी खाते -खाते अचानक मेरी नजर एक बूढ़े व्यक्ति पर पड़ी जिसकी उम्र होगी यही कोई  अस्सी - पिचासी वर्ष । दुबला पतला फटा कुरता और  धोती पहने  कुछ बेच रहा था ।  स्वयं खड़ा  होकर चलने में असमर्थ था फिर भी लाठी  के सहारे चलने का प्रयास कर रहा था । वह गुब्बारे और बीड़ी, सिगरेट बेच रहा था । इधर -उधर घूमकर गुब्बारे ,बीड़ी, सिगरेट बेचता और किसी पेड़ के नीचे बैठकर सस्ताने लगता । इधर- उधर घूमने के कारण उसकी सांसे फूलने लगती तो  एक स्थान पर बैठकर अपना सामान बेचने की कोशिश करता लेकिन वहाँ पर पहले से ही बैठे लोग उसे वहाँ बैठने नहीं देते ,उसे वहाँ से भगा देते।  बेचारा अपना सामान इकट्ठा कर फिर उसी प्रकार इधर - उधर घूमकर सामान बेचने लगता । उम्र के इस अंतिम  पड़ाव पर वृद्ध को  इस प्रकार का संघर्ष करते हुए देखकर मेंरे मन में उस के विषय में जानने की इच्छा हुई । जिस उम्र में व्यक्ति ईश्वर का भजन ध्यान करता है।  पोते -पोतियो के साथ खलता है लकिन वह वृद्ध यहाँ पर सामान बेच रहा है  आखिर ऐसी क्या वजह होगी कि इसे इस उम्र में भी इस प्रकार काम करना पड़ रहा है?



मैने उस पकौड़ीवाले दुकानदार से उस वृद्ध के बारे में  पूछना चाहा कि वह कौन है?  कहाँ का है ?  आदि बातें ।
दुकानवाले ने बताया कि वह उस वृद्ध के बारे में ज्यादा तो कुछ नहीं जानता पर हाँ इतना जरूर जानता है कि किसी जमाने में वह अच्छा  खासा अमीर व्यक्ति हुआ करता था । दिल्ली के पास एक गाँव है वहाँ पर इसके  पास लगभग तीस बीघे जमीन थी । हँसता खेलता परिवार था । तीन बेटियाँ और एक बेटा । सुना है  इसके बेटे ने इसके साथ धोखा करके इसकी सारी जमा पूँजी अपने नाम कर ली और इसे घर से बेज्जत करके निकाल दिया । यह बेचारा अब अपना जीवन निर्वाह करने के लिए यह काम कर रहा है। जो कुछ दिन भर कमाता है उसी से कुछ खा लेता है । भाईसाहव मैं इसे यहाँ पर पिछले पाँच - छह  सालों से देख रहा हूँ । यह बेचारा किस्मत का मारा अपनों के हाथों ही लुटा हुआ है ।
दुकानवाले से उस वृद्ध के बारे में थोड़ी जानकारी पाकर मेंरे मन में उस वृद्ध से मिलने की इच्छा हुई । मैे अपने साथियों को वहीं ठहराकर उस वृद्ध के पास गया । वह उस समय एक पेड़ के नीचे बैठा था । उससे बात करने के लिए पहले मैने उससे दो गुब्बारो का दाम पूछा – “बाबा गुब्बारा कितने का दिया है।”

“पाँच रुपए का।”
“अच्छा दो गुब्बारे देना ।”
गुब्बारे लेकर मैने पैसे देते हुए पूछा “बाबा आप इस उम्र में भी काम  करते हैं वह भी इस हालत में ?”
“अरे ! बेटा क्या क डिग्री इस  पापी पेट को भरने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा।”
“मगर इस हालत में …?”
“हाँ बेटा यह हालत मुझे मेरे बेटे की सौगात है । बेटा जवानी हो या बुढ़ापा यह पापी पेट तो तीनों वक्त का भोजन माँगता है । अब मेरे जैसे बेसहारा बुजुर्गों के सामने दो ही रास्ते   होते हैं एक तो यह कि अपमान और जिल्लत  भरा जीवन जीए ,बच्चों द्वारा फेंके गए टुकड़ों को खाकर घुट-घुटकर जीते रहो । और दूसरा रास्ता यह है कि आप खुद आत्मसम्मान के साथ जीते हुए अपना जीवन बिताओ । किसी के सामने हाथ न फैलाओ चाहे वह तुम्हारा अपना बेटा ही क्यों न हो? जब जीवन के अस्सी साल आत्सम्मान के साथ जीआ हूँ , तो अब क्यों किसी के आगे हाथ फैलाऊँ । भले ही भूखा  मर जाऊँ पर किसी के सामने रोटी कपड़ा और मकान के लिए गिड़गिडाऊँगा नहीं। ईश्वर ने जीवन दिया है वही इस जीवन की नैया पार लगाएगा ।”
पर  “बाबा अब आपकी उम्र कमाने की नहीं ? बच्चों के साथ रहने की है, नाती पोतो के साथ खाने खेलने की है। आप तो ठीक से चल भी नहीं पाते हो बार -बार आपकी साँसे फूल जाती है। आप के बच्चों ने आप को यह सब करने से कभी रोका नहीं ।”


“अरें ! बेटा  मेरी जो यह हालत तुम देख रहे हो ना ? यह मेरे बच्चों की ही दी गई  सौगात है मेरे लिए । यह बूढ़ा कभी मीलों का फासला घंटों में तैय कर लेता था पर अब तो स्थिति ऐसी है कि दस कदम भी लगातार नहीं चल सकता वह भी बिना लाठी के तो  एक कदम भी नहीं रख सकता । सब अपने अपने भाग्य से मिलता है बेटा ।”
क्या कह रहे हो बाबा ? - मैने पूछा
“हाँ बेटा यह बात सुनने में तुम्हे थोड़ी अजीब सी जरूर लगेगी पर जो कुछ भी मैं कह रहा हूँ सब सच है। तुम सोच रहे होगे कि मैं खुद ही अपने बच्चों के पास रहना नहीं चाहता हुँगा सो कोई भी मनगढ़ंत कहानी सुना रहा हूँ । ऐसा कौन कंबख्त बाप होगा जो अपने नाती -पोतों के होते हुए घर से बाहर रहकर एक भिखारी के सामान जीवन बिताएगा। सब किस्मत से मिलता है जब तक्दीर ही खराब हो तो कोई क्या कर सकता है। किस्मत से ज्यादा किसी को न मिला है न मिलेगा । अक्सर तुमने सुना , देखा होगा कि बच्चे माँ - बाप को कोई यादगार सौगात देते हैं । मेरे बच्चों ने भी मुझे इतनी अच्छी यादगार सौगात दी है कि मैं मरते दम तक नहीं भूल सकता । मैं एक ऐसा बदनसीब बाप हूँ जिसे किसी गैर ने नहीं लूटा खुद अपने ही खून ने धोखे से लूट लिया । वाह रे ! किस्मत .......।”

  
आपको लूट लिया बात कुछ समझ में नही आई बाबा - आखिर बात क्या है?


“जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो बूढ़े माँ-बाप उन्हें बोझ से समान लगने लगते हैं। उन्हें लगता है कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं सब सही है।  जब तक आपके पास किसी प्रकार की धन दौलत है तब तक बच्चे आपके आगे -पीछे घूमेंगे और जैसे ही उन्हें पता चलेगा कि बूढ़े माँ- बाप के पास उन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है तो बस तभी से वे लोग तुम्हें ताने मार-मारकर घायल कर देंगे। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । मेरे पास तीस बीघे जमीन थी । जमीन भी कैसी सोना उगलनेवाली । साल में तीन से चार फसल होती थी । ये लगा लो कि साल में कम से कम तीन -चार लाख की फसल आ जाती थी ।”  


आज से करीब बीस साल पहले तक मैं एक नामी जमीनदार हुआ करता था मेरे पास तीस बीघे जमीन थी और पुरखों की एक शानदार हवेली । “मैं अपने बाप की इकलौती संतान था सो जो कुछ पिता के पास था सब मुझे ही मिल गया । ईश्वर की कृपा से मेंरे चार संताने हुई जिनमें तीन बेटियाँ और एक बेटा था। मैने अपनपढ होते हुए भी अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाई उन्हें अपने पैरो पर खड़ा किया ।” लेकिन “मुझे क्या पता था कि जिन बच्चों को मैं पाल पोसकर बड़ा कर रहा हूँ वही एक दिन मुझे  इस हालत में लाकर छोड़ देंगे। अगर ऐसा पता होता कि जिन पौधों के मैं सीच कर बड़ा वृक्ष बना रहा हूँ वे ही मेरी मुसीबत का कारण बनेंगे। तो यह सब हरगिज़ न करता ।”


“हमारा गाँव दिल्ली की सीमाओ से ही लगा हुआ है।  कुछ साल पहले की बात है सरकार ने हमारे यहाँ की सारी जमीन का अधिग्रहण कर लिया था जिसके बदले में मुझे पचास लाख रुपए मिले थे । पचाल लाख रुपयों को देखकर बेटे की नीयत में खोट आ गया वह दिन प्रतिदिन उन रुपयों को हथियाने की कोशिश में लगा रहता उसे डर था कि कहीं मैं उन पैसों को बेटियों में न बांट दूँ। यह सिलसिला काभी समय तक चलता रहा । “एक दिन मेरी पत्नी की तबियत ज्यादा खराब हो गई उसे अस्पताल में भरती करवाया गया उस के इलाज पर मैने लाखों रुपए खर्च कर दिये लेकिन उसे बचाया न जा सका । वह मुझे इस संसार में अकेला छोड़कर चली गई । अच्छा हुआ वह बेचारी पहले ही इस संसार से चली गई नही तो यह सब देखकर  जीते जी अपने आप ही मर जाती । उसे अपने आप पर पछतावा होता कि उसने इस नालायक बेटे को जन्म दिया ।  पत्नी के इलाज पर जो लाखों रुपए खर्च हुए थे उस का बेटे बहु को बहुत दुख था कि लाखों रुपए यों ही बरबाद कर दिए।”


“पत्नी के देहांत के बाद मेरा भी स्वास्थ्य खराब रहने लगा। घर में कोई देखभाल करने वाला जो नहीं था । बेटे को अपने काम से फुरसत नहीं थी और बहु को अपने घर के कामों से फुरसत ही काहाँ थी। समय पर जो कुछ मिल जाता खा लेता नहीं मिलता तो आने  की उम्मीद लगाए बैठा रहता । किसी -किसी दिन तो सुबह से लेकर शाम तक खाना भी नहीं मिल पाता था जब बच्चों को याद आ जाती तो शाम को रुखा -सूखा थाली में रखकर दे जाते ।  खाना बाद में आता पहले तानों से भरी आवाजें घर के अंदर से आने लगती थीं।” 

“धीरे -धीरे मेरा स्वास्थ्य भी खराब होने लगा और एक दिन मुझे सांस लेने में बहुत तकलीफ होने लगी सो अस्पताल में भरती करवाया गया । अस्पताल के खर्चे  के लिए बेटे  ने बैंक के चैक पर मेरे अँगूठे का निशान यह कहकर लगवा लिया कि आपके इलाज के लिए काफी पैसों की जरूरत पड़ेगी और मेरे पास उतने पैसे हैं नहीं । मैं सीधा -साधा किसान बुद्धि का आदमी मैने चैक पक बिना रकम देखे अपना अँगूठा लगा दिया। बेटे ने इस मौके का खूब फायदा उठाया उसने मेरे खाते से तीस लाख रुपए निकालकर अपने खाते में जमा कर लिए । कुछ समय बाद जब मैं ठीक होकर घर वापस आया । एक दिन अनायास ही मैं  बैंक की तरफ चला गया । बैंक जाकर मुझे पता चला कि मेरे बैंक खाते से सारी रकम उस चैक के माध्यम से निकालकर बेटे ने अपने खाते में जमा कर ली है।”


“बैंक से सीधा घर वापस आया और बेटे के घर आने का इंतजार करने लगा । शाम को जब बेटा घर आया तो मैने उससे पूछा कि तुमने मेरे खाते के सारे पैसे अपने खाते में क्यों डाल दिए  ।” बेटे ने कहा कि “आप तो अस्पताल में भरती थे क्या पता था कि आप अस्पताल से घर  वापस भी आते की नहीं इसी लिए मैंने आपके खाते से सारे पैसे निकालकर अपने खाते में जमा कर लिए ।”

“पर बेटे जो कुछ भी मेरे पास है वह सब तेरा ही तो है फिर तुझे इस प्रकार करने की क्या जरूरत थी ।” “जरूरत , जरुरत क्यों नहीं थी? अगर आप पैसो को बैक में ही रखकर मर जाते तो बैंक वाले थोड़े ही इतनी आसानी से लाखों रुपयों को देते । फिर आप को पैसों की ऐसी क्या आवश्यकता है आप को तीनो वक्त का भोजन , पहनने के लिए कपड़े तो मिल ही रहा है ना फिर क्यों चिक - चिक लगा रखी है पैसा , पैसा ? पैसे को क्या छाती पर रखकर मरोगे।”
बेटे की इस प्रकार की कटु बातें  सुनकर मेरा मन किया कि  पुलिस  थाने जाकर शिकायत कर दूँ । फिर सोचा  यह सब करके भी क्या फायदा ? वैसे भी मैंने  यह सब इसी के लिए ही तो इकट्ठा किया था । अपनो द्वारा ठगे जाने के कारण मैने सोचा चलो अब मुझे इस जीवन से मुक्ति ले लेनी चाहिए सो जीवन से मुक्ति पाने के लिए मैंने एक दिन यमुना नदी में कूदकर जान देने की कोशिश की लेकिन वहाँ भी न मर सका । शायद जीवन में और दुख देखने बाकी थे । उस  दिन मैंने फैसला किया कि अब मैं उस घर में वापस लौटकर नहीं जाऊँगा , और ना ही आज तक कभी बेटे - बहु ने मुझे खोजने की कोशिश की । तब से मैं यह काम कर रहा हूँ दिन भर जो कुछ कमा लेता हूँ उसी से अपना पेट भर लेता हूँ । जब तक मुझ में दम है, काम करने की ताकत है। तब तक किसी के आगे हाथ नहीं फैलाऊँगा । आगे की पता नहीं ? अब तो ईश्वर से दिन - रात प्रार्थना करता हूँ कि ईश्वर अब तू मुझे इस संसार से उठा ले ।”

“कमाना खाना तो ठीक है पर आप रहते कहाँ पर हैं?”
“यही पास ही एक बस्ती है उसी में रहता हूँ। मुझ जैसे बदनसीब वहाँ पर और भी बहुत हैं।”
“अभी तो ठीक है गरमी का मौसम है किन्तु शरदी और बरसात में तो आपको बहुत परेशानी उठानी पड़ती होगी।”  

“अब परेशानियो से डर नहीं लगता बेटा । हाँ शरदियों के मौसम में अधिक शरदी के कारण कई दिनो तक बाहर नहीं जा पाता सो कई कई दिनो तक उपवास रखकर ही काटने पड़ते हैं । जब थोड़ा बहुत मौसम खुल जाता है सूरज निकल आता है, तो बाहर सामान बेचकर कुछ पैसे कमा लाता हूँ और इस पापी पेट को भरने की कोशिश करता हूँ । यह पेट है कि भरने का नाम ही नहीं लेता।

जैसे भी हो “बस अब तो मौत का इंतजार है कि कब मौत आए और मुझे इस जीवन से मुक्ति मिल जाए । बेटा हर किसी को जीवन मे सुख नसीब नहीं होता । मुझ जैसे लाखों बदनसीब है जो तिल तिल मर रहे है फिर भी जी रहे हैं।”
“देख लो बेटा यही है मेरे बेटे की सौगात अपने बूढ़े बाप के लिए ।”

Thursday, September 30, 2010

बन्धन

घर के बन्धन तोड़कर , निकले इस मोड़ पर
देखो इन दीवानों को , देखो इन मस्तानो को

                             घर के बंधन तोड़कर , प्यार का बंधन जोड़कर
                              मस्ताने निकल आए आज अपनी राह पर .
न घर का पता न मंजिल का
ये घर से बेगाने होकर चले आए .
                             
                          घर के बन्धन तोड़कर , निकले इस मोड़ पर

                          देखो इन दीवानों को , देखो इन मस्तानो को

लगी जो एक लगन , खिल गए देखो चमन ,
आज  झूमे इनकी मस्ती में,धरती और गगन
अरे देखो इन दीवानों को ,देखो इन मस्तानों को

                                 हंसते हुए दिलों को आंसूं देकर आओगे?
                                 बहते हुए  आंसुओं पर क्या तुम अपना घर बसाओगे .?
                                 टूटे दिलों कि आहें लेकर क्या तुम ख़ुशी से जी पाओगे?

घर के बन्धन तोड़कर , निकले इस मोड़ पर
देखो इन दीवानों को , देखो इन मस्तानो को


                             माना कि जीवन में हर चीज़ पानी ज़रूरी है
                            जिसको तुमने चाह ,उसकी खातिर  हो गए दीवाने ,

राह हो जीने की या पढने की  या हो सच्चाई पर चलने की
जीवन की राह पर तुम  हार न जाना ,सच्चाई की  राह से कभी दूर न जाना .
                         
                              घर के बन्धन तोड़कर , निकले इस मोड़ पर
                               देखो इन दीवानों को , देखो इन मस्तानो को

Monday, September 13, 2010

तितली रानी

       तितली रानी तितली रानी
       सुंदर -सुंदर पंख तुम्हारे
       इतने सुंदर पंख लाई कहाँ से ,


जब तुम फूलों पर मंडराती हो 
फूलों का रस ले जाती हो

       चुपके से तुम मेरी बगीया के फूलों का रस ले जाती हो
       फूलों के रस का क्या तुम अपने घर पर  शहद बनती हो,

होते पंख अगर मुझको भी
मैं भी फूलों पर संग तुम्हारे मंडराता
                                     लेकर फूलों से सुन्दर -सुंदर रंग
                                    मैं भी अपने सपनों को खूब सजाता

तितली रानी तितली रानी
फूल -फूल पर तुम मंडराती हो ,

Thursday, September 9, 2010

मोर


     
देखो मोर नाच रहा है
पंखों को खोल रहा है
        नाच इसका सबको भाता
       जब यह पंखों की छतरी  फैलाता

   

          काले -काले बदल इसको भाते
          देख इन्हे यह पिहू -पिहू का गीत सुनाता



सुनकर इसके गीतों को
  बरखा रानी आती मस्ती में

Monday, September 6, 2010

मैं बड़ा हो गया हूँ

मैं तुम्हें याद आता हूँ ,
जब हम साथ नहीं होते.
मैं बड़ा हो रहा हूँ इतनी जल्दी
देखो तो ज़रा मैं कितना बड़ा हो गया हूँ .
       पकड़कर  हाथ तुम्हारा चलना सीखा
      लो आज मैं दौड़ रहा हूँ
      जबसे मैने चलना सीखा ,
      अब तक बहुत बदल गया हूँ .
साल महीने गुजर  गए
देखो मैं बड़ा हो गया
देखोगे जब तुम मुझको
सोचोगे  यह कब हुआ .
     दीवार पर टंगी मेरी तस्वीर है
     एक नज़र उसे देख लेना
    देखकर  तस्वीर तुम्हे याद मेरी आएगी
    जब मैं छोटा था , तुम्हारी गोदी मैं सोता था .

Thursday, April 29, 2010

छोटी बहू

कल रात पड़ौस के घर में बड़ी हलचल मची हुई थी । एक आदमी अपनी पत्नी को बड़ी ही बेरहमी से मार रहा था । वह बेचारी रो रही थी और आदमी उस पर दना दन बजाए जा रहा था। वह पिटती जा रही ,और रोती जा रही थी, पर उस निर्दयी को उस पर लेशमात्र भी दया नहीं आ रही थी । वह उसे कभी थप्पड़ों से तो कभी घूंसों से तो कभी लात सें मार रहा था और जब हाथ-पैरो से मारते - मारते थक गया तो एक लकड़ी उठा ली और उससे मारने लगा । शायद कोई जानवर को भी इतनी बेरहमी से न मारता होगा जिस बेरहमी से वह अपनी पत्नी को पीट रहा था । जब तक स्त्री से सहा गया वह मार खाती रही जब उसका सब्र टूट गया तो उसे भी क्रोध आ गया ।उसने खड़े होकर ड़ंड़े को पकड़ लिया और बोली – “बस ! बहुत हो चुका , अब तक चुपचाप मार खा रही थी सो खाई अब अगर तुमने मुझे हाथ भी लगाया तो ठीक न होगा। तुम इन्सान हो या जानवर ? इस तरह तो कोई किसी जानवर को भी नहीं मारता होगा जिस तरह तुम मुझे पीट रहे हो ? आखिर मेरा कसूर क्या है ? जो तुम मुझे इतनी बेरहमी से पीट रहे हो। जब से ब्याह कर इस घर में आई हूँ तब से लेकर आज तक तुम लोगों ने जो - जो अत्यार मुझपर किए मैने चुप- चाप सहे लेकिन अब और न सहुँगी। आज से मेरा तुमसे कोई रिश्ता -नाता नहीं । सहने की भी एक सीमा होती है। मैं कहीं भी मेहनत मज़दूरी करके अपना और अपने बच्चों का पेट भर लुँगी, और अगर कहीं कोई काम नहीं मिला तो भीख मांगुँगी पर लौटकर इस घर में न आऊँगी” - कहकर अपने दो-तीन माह के बच्चे को गोद में उठाया और दूसरे हाथ से अपने तीन-चार साल के बेटे को पकड़कर घर से बाहर चलने लगी।वहीं पर उसकी सास खड़ी थी । सास ने दोनों बच्चों को उससे छीनते हुए कहा- “तुझे जहाँ कहीं भाड़-कूएँ में जाना है तो जा बच्चों को कहाँ ले जा रही है?” दोनों बच्चों को लेकर सास -बहू में खूब जमकर बहस हुई । हाय रे! विधाता ये कैसा जमाना जहाँ औरत ही औरत की दुश्मन बनी बैठी है। एक माँ दूसरी माँ का दर्द ही नहीं समझती तो वह कैसी माँ? खैर जो भी हो आखिर बहू को बिना बच्चों के ही घर से बाहर निकाल दिया गया और घर के दरवाजे अंदर से बंद कर लिए गए । बेचारी बहू.......काफी समय तक बाहर दरवाजे पर ही रोती - बिलखती रही । आज उसका साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं था । बेचारी बाहर बैठी-बैठी बच्चों के लिए बिलख रही थी, किन्तु निर्दयी माँ -बेटे को उस पर तनिक भी दया न आई। बाहर स्त्री रो रही थी और अंदर उसके दोनों बच्चे । हाय रे! ह्यदयहीनता मानव का मानव के प्रति यह अत्याचार । एक दिन इसी स्त्री को ये लोग बड़े ही जतन से ब्याहकर लाए होंगे । एक दिन इसी स्त्री के साथ पति ने न जाने कितने कस्में बादे किये होंगे, न जाने उस स्त्री की एक झलक के लिए, उससे बातें करने के लिए क्या-क्या बहाने बनाए होंगे । किन्तु आज इतना निष्ठुर हो गया है , मानो उसे पहचानता ही न हो । कभी उसने स्त्री को उसके सुख-दुख में साथ देने का वादा किया होगा किन्तु आज वह अपने उन सब वादों को भूल चुका है ।


वाह रे इन्सान ..........।इन दोनों के ब्याह को हुए बहुत दिन भी नहीं बीते , कुल चार -पाँच साल हुए होंगे । इन्हीं चाल-पाँच सालों में ही इनकी यह हालत है । सास - बहू का झगड़ा तो घर -घर की कहानी है किन्तु इस प्रकार किसी की बसी बसाई गृहस्ती टूट जाए यह भी तो ठीक नहीं । रोज़-रोज़ सास -बहू का झगड़ा , सास का दिन -रात बहू को ताने मारते रहना, हर काम में नुकस निकालते रहना , बहू भी सहे तो कितना....आखिर वह भी तो हाड़ -मास की ही से ही बनी है, कोई मशीन तो है नहीं। उसके सीने में भी और लोगों की तरह दिल है जो धड़कता है, वह भी खुशी - गम महसूस करती है । आज अगर बहू की जगह उनकी बेटी पर कोई इस तरह का आरोप लगा रहा होता तो यही माँ उसकी ढ़ाल बन जाती । किन्तु यह उसकी बेटी नहीं है बहू है। क्यों लोग बहुओं को बेटी का दर्जा नहीं दे पाते । स्त्री के रोने की आवाज सुनकर आस-पड़ौस के कुछ लोग वहाँ पर एकत्रित हो गए । आस-पड़ौस के लोगों ने घर के बंद क्यों दरवाजों को खुलवाया और घर के अंदर लोगों की भीड़ जमा हो गई । वहाँ पर इकट्ठे हुए लोगों ने घटना की जानकारी जानी तो कुछ लोग वहू के पक्ष में बातें करने लगे, तो कुछ लोग बहू की सास और बेटे के पक्ष में बातें करने लगे ।दर अल यह झगड़ा शुरू हुआ था एक चाँदी की पायलों की जोड़ी को लेकर । सास कहती कि मैने इसके ब्याह के समय इसे पाव किलो चाँदी की पायल दी थी जिन्हें यह अपने माइके में रख आई है या बेच दी हैं। बहू कहती कि मैने ब्याह के दूसरे महीने बाद ही उन पायलों को उन्हें लौटा दिया था । उसके बाद से उसने वे पायल न तो देखी हैं और न ही उसे उन पायलों के बारे में कुछ पता है। सास यह सिद्ध करने का प्रयास कर रही थी कि बहू ने पायल वापस दी ही नहीं हैं। एक तरफ सास और दूसरी तरफ बहू दोनों एक दूसरे पर आरोप - प्रत्यारोप करने में लगीं थी । बहू रोती जाती और बार-बार यही दोहराती कि वह उन पायलों के बारे में कुछ नहीं जानती उसने पायलों को बहुत दिनों पहले ही सास को लौटा दिया था। मुझ पर बेवजह ही चोरी का इल्जाम लगा रही हैं। किन्तु सास इस बात को मानने के लिए तैयार ही नही कि बहू ने कभी उसे पायल दी थी । पुरुष काठ के उल्लू के समान एक कोने में खड़ा तमाशा देख रहा था । जब स्त्री ने वहाँ पर एकत्रित भीड़ को उसकी करतूत बताई कि उसने उसे किस बेरहमी से मारा है उसने वहाँ पर खड़ी अन्य औरतों को अपने शरीर पर मार के पड़े निशानों को दिखाया तो सभी लोगों ने आदमी की निंदा की । जब से वह ब्याह कर उस घर में आई थी तब से अब तक कभी भी उसने किसी चीज की चाह नहीं की जो रुखा सूखा मिल जाता था उसी से संतुष्ट होकर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी । दिन -रात बैलों की तरह काम करती रहती फिर भी उसे एक प्यार का बोल नसीब नहीं हो पाता । इस पूरे फसाद की जड़ वह सास ही थी । सास दिन -रात बहू की उलटी -सीधी चुगली बेटे से करती रहती । एक तो थका हारा आदमी जब घर पहुँचता है वह चाहता है कि घर पर दो मिनिट सुकून से गुजारे पर जब उसके घर आते ही घर में कलह शुरू हो जाती तो उसका भी पारा चढ़ जाता और उसका सारा गुस्सा बहू पर ही निकलता । सास नहीं चाहती कि उसका बेटा उसकी किसी भी बात को काटे । वह चाहती कि उस घर में सदैव उसका ही राज चले वह नहीं चाहती कि उसके बहू बेटे उसकी किसी भी आज्ञा की अवहेलना करें । उसके इसी व्यवहार के कारण उसके तीन बेटे और बहुएँ घर छोड़कर जा चुके थे। यह बेटा सबमें छोटा था । सास की दिन- रात की कलह के कारण ही घर में सदैव कलह मचा रहता था, घर में सदैव अशांति का माहौल बना रहता। इसी के कारण घर में किसी भी प्रकार की कोई बरकत नहीं हो पा रही थी । दिन -रात बहू के खिलाफ बेटे के कान भरती रहती थी ताकि उसका बेटा सिर्फ उसकी ही बात सुने जो वह कहे वही सच हो । उसे लगता है कि अगर बेटा बहू की बातों पर विश्वास करने लगेगा तो उसका उस घर से राज खत्म हो जाएगा।
वहाँ पर खड़ी भीड़ ने उन लोगों को समझाया कि इस प्रकार घर में लड़ाई -झगड़े नहीं किया करते । किन्तु माँ-बेटे के कान पर जूँ तक न रेंगी । बहू ने अपने दोनों बच्चों को उठाया और घर से चलने लगी तो उसके पति ने पूछा – “बच्चों को कहाँ ले जा रही है?”
“कहीं भी ले जाऊँ, दुनिया बहुत बड़ी है कही भी चली जाउँगी जहाँ चैन से जी सकूँ।”
“खाएगी क्या”
“इससे तुम्हें क्या लेना -देना मैं चाहे कुछ खाऊँ या भूखी रहूँ । तुम्हें मेरी चिंता करने की कोई जरूरत नही है।”
“जितनी मेहनत यहाँ करती हूँ अगर इतनी मेहनत मैं कही भी करुँगी तो इज्ज की रोटी कमा ही सकती हूँ । तुम इसकी चिंता मत करों मैं बच्चों को वापस लेकर तुम्हारी चौखट पर पाँव भी नहीं रखूँगी। इतनी ताकत अभी भी मुझ में हैं कि तुम दोनों माँ-बेटे से ज्यादा मेहनत मजदूरी कर सकती हूँ। अगर कही कोई मजदूरी नहीं मिली तो भीख माँगकर अपना और अपने बच्चों का पेट पालुँगी । लौटकर यहाँ कभी न आऊँगी” कहकर उसने बड़े बच्चे का हाथ पकड़ा और बाहर जाने लगी तो दोनो माँ-बेटे ने उसका रास्ता रोक लिया । बहू ने दोनों को ऐसी ललकार मारी कि उनके होश उड़ गए उन्होंने कभी कल्पना भी न की होगी कि वह ....................। दोनों अपना सा मुँह लेकर हट गए । ऐसा लग रहा था जैसे कि आज स्वयं माँ काली ने उसके शरीर में प्रवेश कर लिया हो जो अत्याचारियों का नाश करने के लिए ही आई हो। स्त्री अपने दोनों बच्चों को लेकर घर छोड़कर चली गई । वहाँ पर खड़ी भीड़ देखती की देखती रह गई ।